आज सुबह से मैथिली गीत की एक पंक्ति परेशान कर रही थी - शहर सहरसा के पक्का पर तरुणी मारे ठहक्का बेजोड़ ! मतलब साफ है सहरसा शहर की युवतियाँ अपनी छतों पर ठहाके लगा रही हैं ! इस पंक्ति में शहर है , यौवन है और उन्मुक्त हँसी है ! और एक साफ सा संकेत है कि यह गाँवों में नहीं मिलेगा । यदि खुला जीवन देखना है तो सहरसा आईए !
रविवार की सुबह सुबह यह शहर जब छुट्टी के मौज और सर्दी में रजाइ के गुनगुने अहसास में लेटा था तभी मैं यहाँ आया था - अपने शहर ! यहाँ की सड़क और उसमें पड़े गड्ढे में फिसलते रिक्शा के पहियों और उससे लगभग गिरते हुए सा होने पर लगा कि मैं क्यों इसे अपना शहर कहता हूँ ! यदि मैं इस तथ्य को निगल लूँ तो कुछ ज्यादा बदल नहीं जाएगा पर इस गड्ढे से भी एक आत्मीयता है जो सीधे शुरुआती यौवन की ओर ले जाता है जब हम सारे दोस्त एक ही लड़की के दीवाने थे । यहीं छोटी-बड़ी लडाईयां की और बहुत से चोट खाए । आज की तमाम परेशानियाँ मेरी किशोरावस्था की यादों के सामने छोटी हैं चाहे जो हो मैं इस शहर से छूटना नहीं चाहता ।
बहरहाल उस गाने की पंक्ति कई बार सामने आ गई । और जब मैं इसके सहारे बाहर आता हूँ तो शहर को सोती हुई बुजुर्गियत ओढ के बैठा पाता हूँ ! कुछ भी ऐसा नहीं कि इसे युवा कहा जा सके । मोहल्ले दर मोहल्ले भटक लीजिए किसी बाइक की उत्तेजित भों भोँ नहीं है । बाइक़ हैं पर स्थिर चाल में चल रहे हैं । और ताज्जुब ये कि चलाने वाले युवा हैं ।
अपने दोस्तों को ढूँढने निकला हूँ दो -एक अखबार में हैं , कुछ मोबाइल की दुकान पर और बांकि अपने पिता के साथ । इनमें वे भी हैं जो बाहर पढ़ने गये थे और वे भी जो शुरुआत से ही अपने पिता की पान की गुमटी पर बैठते थे । इस खोज का नतीजा ये है कि किसी के पास कोई समय नहीं है । अपने दोस्तों की क्या कहें छोटे भाई के दोस्त भी नहीं दिखते ! किसी मैदान पर कोई नहीं खेल रहा है । कल शाम मैंने चार -पाँच फोन किए कुछ छोटे बच्चों का पता लगाने पर सब शहर से बाहर हैं कोटा , इम्फाल ! इंजीनियरिंग और बेरोजगारी ने गर्ल्स स्कूल , रमेश झा महिला कॉलेज और चूडी शृंगार की दुकानों से लड़कों को चट कर लिया है ।
आज हमारे यहाँ हर तरफ बुजुर्ग फैले हैं आप हर दूसरे कदम पर पैर छूने के लिए झुकिये नहीं तो आपकी शिक्षा का कोई मतलब नहीं । हर दूसरा वाक्य आपको यह याद दिलाता है कि आप किस परिवार से हैं ( भले ही आप के परिवार का कोई सामाजिक अस्तित्व न हो ) । आप की अपनी पहचान मेरा शहर स्वीकार करने की दशा में नहीं है । यहाँ पहचान वही है जो कभी बन गई ! अब उसमें जोड़ ही हो सकता है उसे पलटना या बदलना नहीं हो सकता । यह शहर अपनी पुरानी पहचान ही बनाए रखना चाहता है । इसका सामाजिक संगठन आस पास के गाँवों से यहाँ आकर काम करने वाले मामूली वकीलों, शिक्षकों, किरानियों और दस बारह माडवाडी व्यापारियों से मिल कर बना है ।
यहाँ परिवारों में हो हल्ले हैं , हर गली में दो चार शराबी हैं सड़कों में गड्ढे हैं ,घरेलू हिंसा है और सबको इसी से प्यार है ।
अभी अभी बैंक से लौटा हूँ हमारे बहनोई अपने दिवंगत पिता की फिक्स्ड डिपॉज़िट के नाम्नी का नाम पता करवाने के लिए क्लर्क को सौ रुपये घूस देकर आए हैं । मैंने रोका तो कहते हैं इस शहर का पुराना चलन ।
इन तमाम पुरानों ने मैथिली गीत के उस पंक्ति की तरुणाई को बड़ी ही बारीकी से बेदखल कर रखा है ।
bahut badhiya bhai...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ! भाई !
जवाब देंहटाएंis sahar ki khabar nikalne main he kuch khabar chuth jati hai...u know hum log jarur iska khyal rakhenge...
जवाब देंहटाएंएक बेहतरीन आलेख गाँव की याद फिर से ताजा हो गयी। सहरसा अभी भी जवान हैं बस कुछ झुर्रियां आ गयी हैं जो वक्त के साथ चला भी जाएगा। पुनः पुनः धन्यवाद। एक और निवेदन हैं जिस मैथिली गाने का जिक्र किया हैं वो अगर सुनने को भी मिल जाता तो एहसानमंद रहूँगा। सहरसा की याद फिर से ताजा करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंsunil@esamaad.com
गाना तो हमने लोक मे सुना था मित्र! देखते हैं कहीं मिल जाए ....
हटाएंधन्यवाद दोस्त इन्तेजार रहेगा।
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