अगस्त 24, 2021

नहीं चाहिए बाल केंद्रित शिक्षा


 

                            

विद्यार्थी बनना एक कठिन कार्य है और अध्यापक बनना सरल । इस वाक्य के साथ ही मैं ढेर सारे अध्यापकों के कार्य को छोटा मानता हुआ दीख सकता हूँ लेकिन जिन अर्थों में विद्यार्थी बनने की बात है उनमें वे बीस ही ठहरते हैं । निश्चित रूप से अध्यापक भी मेहनत करते हैं लेकिन उनकी मेहनत और विद्यार्थियों की मेहनत की तुलना में कम रहती है । अध्यापक को अध्यापक बने रहने के लिए ज्यादा काम करने की दरकार नहीं रहती । उसे विद्यार्थियों तक विषय-वस्तु को सम्प्रेषण लायक बनाने में जो श्रम लगता हो उसके बाद उसका काम खत्म हो जाता है । यहीं पर यदि विद्यार्थी की स्थिति को लें तो उसे न सिर्फ अध्यापक के साथ मानसिक रूप से कक्षा में रहना है बल्कि उसके बाद और पहले की सारी प्रक्रिया में भी सजग होकर भाग लेना है । ऐसा उसे एक अध्यापक के साथ नहीं बल्कि दिन भर में कम से कम पाँच विषय के अध्यापकों के साथ करना पड़ता है ।

 

कक्षा की तैयारी , उसमें बने रहने , विषय वस्तु को आत्मसात करने , गृहकार्य से लेकर परीक्षा के लिए सीखे हुए को धारण किए रहने तक के सभी कार्य न सिर्फ समय और मेहनत की माँग करते हैं बल्कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की कठिन परीक्षा भी लेते हैं । हमारी शिक्षा प्रक्रिया सीखने के बजाय  सीखे हुए को याद कर परीक्षा में उसके सम्यक उपयोग पर ही चलती है । इसलिए विद्यार्थियों का काम कई गुना बढ़ जाता है । इसे देश में बेरोजगारी के बढ़ते दर से जोड़कर देखें तो विद्यार्थियों के ऊपर के दबाव को सरलता से समझा जा सकता है । घटते रोज़गार के अवसर उपलब्ध रिक्तियों पर उम्मीदवारों की संख्या को बढ़ा देते हैं । इसलिए एक उम्मीदवार को अलग अलग तरह की छँटाई प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है । यह क्यों कहें कि हमारे यहाँ रोजगार नहीं है ! चयन प्रक्रिया में बस एक नया तरीका ही तो जोड़ना है फिर जो चयनित नहीं होंगे अपने को कमजोर और अक्षम मानकर स्वयं पर ही अविश्वास करेंगे , खुद को ही कटघरे में खड़ा करेंगे । उसे यह समझने में काफी देर लगेगी कि यहाँ सलेक्शन बाय रिजेक्शनका नियम चलता है जिस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है । हींग और फिटकिरी के बिना ही चोखा रंग !  

 

नौकरी की चयन प्रक्रिया में एक साधारण सा दिखने वाला बदलाव आम तौर पर स्कूली शिक्षा पर प्रभाव डालता हुआ न दिखता हो लेकिन उसका सीधा असर यहीं पड़ता है । माता – पिता अपने बच्चे के भविष्य के बारे में इतने चिंतित हो जाते हैं कि बिलकुल शुरू से ही सारी तैयारियाँ करवा डालना चाहते हैं , सारे प्रमाण पत्र हासिल करवा लेना चाहते हैं ताकि कोई न कोई काम आ जाए । इस बीच यह समझ कहीं पीछे रह जाती है कि बच्चे का रुझान उसकी रुचि और क्षमताएँ किस तरह की हैं ।

 

हमारी शिक्षा प्रणाली में एक प्यारा सा वाक्यांश आजकल खूब चलता है – बाल केन्द्रित शिक्षा । इस पर बहुत सी बातें होती हैं अध्यापकों को बार बार याद दिलाया जाता है कि शिक्षा बाल केन्द्रित होनी चाहिए लेकिन उस बालसे जानने की कोशिश भी नहीं होती कि उसे क्या चाहिए । क्या उसे शिक्षा चाहिए भी – हम ऐसा कभी नहीं सोचते । बस नए मुहावरे को जहां तहां इस्तेमाल करते रहते हैं । इस नए नए शब्दों के साथ हमारी शिक्षा लगातार एक ही प्रक्रिया दोहराती आ रही है ऊपर से मज़ा यह कि इससे नए परिणाम की उम्मीद भी कर रही है ।

अपने देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बड़े बड़े शिक्षा-शास्त्री कैसे पढ़ाया / सिखाया जाये कि विद्यार्थियों पर कम दबाव पड़ेसोचकर ही अपने को क्रांति का प्रवर्तक मान लेते हैं लेकिन कहीं एकाध लोग हैं जिन्हें विद्यार्थियों की चिंता है । अमेरिका की एक शिक्षिका ने कुछ सालों पहले विद्यार्थी बनकर कक्षा में उनके अनुभवों को समझने का प्रयास किया । उनका शोध कुछ महीने चलने वाला था लेकिन पहले ही दिन वे लगातार बैठकर’ , ‘सीखते रहने के दबावको झेलकर तंग आ गयी । उनके शोध के नतीजे चौंकाने वाले नहीं थे । ऐसा नहीं कि लोग (कम से कम अध्यापक और माता – पिता ) यह अनुभव नहीं करते । वर्तमान शैक्षणिक प्रक्रिया को बदलकर इस लायक बना देने जैसी सोच कि कोई इसके बाहर रहकर भी बेहतर जीविकोपार्जन के साधन हासिल कर ले निकट भविष्य में आती नहीं दिख रही ।

 

बाल केन्द्रित शिक्षा के बदले बाल केन्द्रित होने की ओर जाना होगा जहां रोजगार का आधार केवाल शिक्षा को मानने के बजाय अन्य विकल्प देखे जा सकते हैं । खेल-कूद, प्रदर्श कलाएं आदि भी रोजगार पाने का साधन हो सकते हैं । ज़ाहिर है इसके लिए ख़ूब सारे रोज़गार क्षेत्र सृजित करने पड़ेंगे और इस दिशा में राष्ट्र-राज्य की भागीदारी बढ़ानी पड़ेगी ।  

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