एक दोस्त ने कहा कि तुमने फोन नहीं उठाया तो मुझे लगा कि तुम
ऑफिस में होगे इसलिए मैंने फोन काट दिया । बात सही थी उसका जब फोन आया तब मैं सच
में अपने काम पर था पर कुछ था जो अटपटा था । हाँ ऑफिस अटपटा था । मैं जहां काम
करता हूँ वह एक स्कूल है और उसके लिए हममें से कोई भी ऑफिस शब्द का प्रयोग नहीं
करता है । इसलिए बात अटपटी लगी । दोस्त का भी दोष नहीं है उसके लिए तो काम करने की
जगह केवल ऑफिस ही है । उसके लिए क्या लगभग सभी के लिए कार्यस्थल ऑफिस के रूप में
रूढ हो चुका है और हमारे लिए यह स्टाफ़ रूम और कक्षा के रूप में ।
एक शिक्षक के रूप में मैं कभी नहीं सोचता हूँ कि मैं ऑफिस जा
रहा हूँ । मेरे लिए तो यह विद्यालय है कार्यालय नहीं । जबकि मैं यहाँ काम ही तो
करता हूँ । फिर ये कार्यालय क्यों नहीं है ? तो
क्या पढ़ना – पढ़ाना कार्य नहीं है ? या फिर कार्य और पढ़ाने में क्या अंतर है ?
इन प्रश्नों पर अपने छात्रों की प्रतिक्रिया जानने के लिए मैंने
अपनी कक्षाओं में इस पर एक बातचीत कारवाई । यह मेरे लिए दुतरफा फ़ायदे का सौदा था ।
पहला तो यह कि मुझे अपने प्रश्नों पर हम शिक्षकों को झेलने वालों की सीधी
प्रतिक्रिया मिल जाएगी दूसरे , इसी बहाने उनका दस अंक का आंतरिक मूल्यांकन भी हो
जाएगा । छात्रों ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया । केवल इसलिए नहीं कि इसके माध्यम से उनका मूल्यांकन
होता बल्कि इसलिए भी कि इस तरह उन्हें अपनी भड़ास निकालने का मौका मिल गया था ।
हमारा ठिकाना कार्यालय न होने के पीछे उनके तर्कों को इस प्रकार
समेटा जा सकता है - कार्यालयों में गंभीर काम होते हैं , वहाँ रूपाय पैसे का हिसाब रखा जाता है , कागजी काम होते हैं दूसरे कार्यालयों से पत्र – व्यवहार होता
है , वहाँ जरा-सी त्रुटि का भी अवकाश नहीं है , वहाँ आर टी आई का डर है । एक अध्यापक के ठिकाने में यह सब नहीं
है । जैसा कि बड़ी सरलता से देखा जा सकता है कि छात्रों के लिए अध्यापन एक गंभीर
काम नहीं है ।
उनकी इस प्रतिक्रिया पर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ । इसके पीछे के
कारण पर यदि हम जाएँ तो बात स्पष्ट हो जाएगी । बच्चे दरअसल वही कह रहे हैं जो वे
अपने आसपास से सीख रहे हैं खासकर बड़ों से । बड़ों की बच्चों के संबंध में सामान्य
राय कुछ इन वाक्यांशों में प्रकट होती है- वह तो अभी बच्चा , तुम बच्चे हो , पहले बड़े तो हो जाओ आदि । ऐसा केवल उनके घर और आस –
पड़ोस के लोग ही नहीं करते बल्कि हम शिक्षक भी यही करते हैं ।
कई बार मैंने सुना कि जीवविज्ञान में प्रजनन संबंधी अध्याय
पढ़ाते हुए शिक्षक या शिक्षिका असहज हो जाते हैं । मैंने अपनी पढ़ाई के दौरान न
सिर्फ जीव विज्ञान बल्कि हिन्दी में भी ऐसा महसूस किया था । हाईस्कूल में हिन्दी
पढ़ाने वाले अध्यापक ने गुस्से से कहा था कि यह अध्याय ‘छोटे बच्चों’ के लिए हाई ही नहीं । जबकि हम हाईस्कूल में आते ही
शारीरिक और मानसिक रूप से अपने बड़ों की श्रेणी में रखने की बेताबी वाली उम्र में
पहुँच चुके थे ।
हरिमोहन शर्मा जो शायद अभी दिल्ली विश्वविदयालय में हिन्दी
विभाग के अध्यक्ष हैं हमें विद्यापति पढ़ाते थे । धार्मिक पद जो बहुत थोड़े थे उनका
अर्थ तो उनहोंने कर दिया लेकिन उससे इतर पद जिनमे शारीरिक सौन्दर्य और अंगों के
वर्णन थे उनका कुछ नहीं किया । जब हमने इस बाबत बात की तो उनका सीधा कहना था कि
बाद में समझ जाओगे । वह बाद तो अशोक प्रकाशन की गाइड मिलने के बाद ही आ पाया । मैं
स्वयं बरहवीं कक्षा को हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘निबंध शिरीष के फूल’ पढ़ा
रहा था । उसमें एक स्थान पर वात्स्यायन और उसके कामसूत्र का जिक्र है । एक छात्र
ने पाठ से उसका संबंध पूछ लिया तो मेरी स्थिति बड़ी ही असहज हो गयी और उसे थोड़ा और
बड़ा हो जाने के लिए बोलकर आगे बढ़ गया ।
हम बड़े बच्चों से एक सुरक्षित दूरी बनाए रखना चाहते हैं । इसी
कारण हम उनकी समझ से भी दूरी बनाना चाहते हैं क्योंकि उसकी समझ हमारे और उनके बीच
की दूरी को कायम नहीं रहने देगी । इसके लिए हम उनकी और अपनी समझ के बीच एक उंच नीच
का भेद रखते हैं जो वास्तविक से ज्यादा भ्रम है । इसके बाद हम इस भ्रम को लगातार तरह तरह से मजबूत करते रहते हैं । इसके अंतर्गत बच्चों से जुड़ी
लगभग हर गतिविधि आ जाती है और इसी के तहत उनकी पढ़ाई से जुड़े लोग भी आते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ और बातें हैं जो इस प्रकार
के संप्रत्यय का निर्माण करने में सहायक हैं ।
शिक्षण को समान्यतया आधे दिन का काम माना जाता है और ऐसा माना
जाता है कि हर तरफ से असफल होकर व्यक्ति अपने अंतिम विकल्प के रूप में इसे चुनता
है । इसमें से अंतिम बात का तो ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है । अंग्रेजों ने जब
अपनी तरह की शिक्षा प्रणाली की शुरुआत बंगाल में की तो उन्हें शिक्षकों की
आवश्यकता थी । उन्होने उनके लिए वेतन की व्यवस्था की । उससे पहले तक इसके लिए ‘शनिचरा’ और ‘सीधा’ देने के अतिरिक्त कोई व्यवस्था नहीं थी । अब
अंग्रेजों के लिए मुश्किल की स्थिति यह बन गयी कि उन्हें शिक्षक मिल ही नहीं रहे
थे क्योंकि जो मेहनतना रखा गया वह बहुत कम होने के कारण अनाकर्षक था । फिर इस बात
के प्रमाण भी हैं कि शिक्षकों की मांग और उनके नहीं आने के मद्देनजर अंग्रेजों ने
न्यूनतम अर्हताओं में भी भारी कमी की । हालांकि इस बात से पूरे देश की शैक्षिक दशा
को नहीं समझा जा सकता क्योंकि यह केवल बंगाल से संबन्धित है और अन्य स्थलों के
प्रमाण हमारे पास नहीं हैं । इसके बावजूद अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि पहले ‘शनिचरा’ या ‘सीधा’ फिर अंग्रेजों के द्वारा निर्धारित अनाकर्षक वेतन
ने शिक्षकों की किस प्रकार की छवि गढ़नी शुरू कर दी थी । शिक्षक स्वयं इस काम को
अपनी आय के लिए पूर्ण न मानकर ट्यूशन ,
एजेंटी , खेती या कोई अन्य संगत काम करते आ रहे हैं । याद
कीजिये ‘पाथेर पांचाली’ का वह दृश्य जिसमें बच्चे बाहर पढ़ाई कर रहे हैं और उन्हें
घेरकर बिठाने वाला तथाकथित अध्यापक भीतर अपनी दुकान चला रहा होता है और जब बच्चे
शोर करने लगते हैं तो वह आकार छड़ी से उनकी खबर लेता है ।
ये सारी बातें बच्चे के मन में अध्यापकों की कोई बहुत अच्छी छवि
नहीं बनाती हैं । अपने छात्रों के द्वारा अध्यापन को कार्य की श्रेणी में न रख
पाने का मलाल तो था लेकिन इस बात की खुशी थी कि उनहोंने इतनी आलोचनात्मक दृष्टि
हिन्दी में तो विकसित कर ही ली जो केरल में दुर्लभ होने के कारण निश्चित रूप से
उल्लेखनीय है ।
आखिर में हमारा स्टाफ रूम ! एक ऐसी दुनिया जहां छात्रों का
प्रवेश समान्यतया वर्जित है । उनके लिए वर्जित होने में ही इसके डायनामिक्स की समझ
निहित है । यह वस्तुतः ऐसी दुनिया है जहां अध्यापक वही व्यक्ति नहीं है जो वह थोड़ी
पहले कक्षा में था या थोड़ी देर बाद होगा । यहाँ वह उन नजरों से दूर है जिनको वह
गंभीर रहना , अच्छे आचरण करना और पता नहीं कितने नैतिक आचरण
सिखाता है । फिर महात्मा गांधी का वह चीनी छोड़ देने वाला किस्सा भी वही शिक्षक
कक्षा में बताता है । इसलिए उससे सहज अपेक्षा रहती है कि वह उन नैतिक आचरणों को
प्रैक्टिस में लाये । लेकिन स्टाफ रूम में वह सब होता है जो एक मनुष्य सहज रूप में
कर सकता है मसलन हंसी ठट्ठा , मोबाइल पर गाने , अश्लील चुट्कुले , चुहलबाजी ,
चुगलखोरी, लड़ाई आदि । बस इतना ध्यान रहे कि आवाज बाहर नहीं
जानी चाहिए । यह तो रही हमारे स्टाफ रूम की बात । आगे दिल्ली के एक मित्र ने बताया
था कि उसके स्टाफ रूम में तो अध्यापक मोबाइल पर अश्लील वीडियो देखते हैं । ठीक
विधानसभा में ऐसा करने वालों की तरह ।
फिर भी मैं मानता हूँ कि स्टाफ रूम में हम एक तरह से मर्यादित
ही रहते हैं हाँ उसका स्तर भले ही कम हो । ऊपर ज़ाहिर ही हो गया है कि कक्षा में हम
वो नहीं होते जो हम स्टाफ रूम में होते हैं और जो हम स्टाफ रूम में होते हैं वह
अपने घर में नहीं होते । शुक्र है कि ये तीनों जिंदगी अध्यापक एक ही साथ नहीं जीता
है । दिन के अलग अलग हिस्से न हो तो वह तो एक्सपोज़ ही हो जाये ।
Shikchhako ki vartmaan sthiti ka yatharth chitran. Asha karta hoon ki aap is bheed me shaamil na honge.
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