फ़रवरी 02, 2012

पराये, तेरे कूचे से बाहर !

कहने को बहुत कुछ है पर किस तरह कहूँ कि छिपा भी दूँ तेरी नादनी को ........!

उस काम को करने की दिली इच्छा थी , ऐसी कि उसके लिए कुछ भी । कुछ भी मतलब कुछ भी ! मन में था और मौका इतनी आसानी से मिलेगा ये सोचा भी नहीं था । आसानी क्या, बाध्यता थी कि उस व्यवस्था में रहना है तो वैसा करना ही पड़ेगा । सोचिये कि जो आप करना चाहें और आपको वही करने के लिए अवसर भी दिए जाएँ तो कितना ही मजा हो । और जब आप आंतरिक रूप से अभिप्रेरित हों तो काम को करने का उत्साह अलग ही होता है । फिर भले ही आप किसी समूह का हिस्सा भी हों तो बार बार आगे बढ़ कर काम करने का ही मन करता है कोई करे न करे आए न आए कोई परवाह नहीं । ये बेफिक्री ही आपको आगे ले जाती है और इसी से आप एक सामान्य दायरे से हट जाते हैं ।
और मामला तब फँसता है जब बेफिक्री से आपके आसपास समस्या पैदा होने लगती है । यहाँ तकनीकी दक्षता नहीं बल्कि उसको धारण करने की क्षमता समूह में आपकी हैसियत तय करने लगती है । आपके पास यदि अपेक्षित उपकरण नहीं है तो आप वे तमाम शऊर जो उस कार्य के लिए अपेक्षित हैं, रखकर भी नाकारे हैं और जिसके पास वो खरीदी हुई तकनीकी हो वो नासमझ भी हो तो भी किसी भी समूह में पूज्य है । हालाँकि इसमें कुछ भी नया नहीं है पर इसे एक उदाहरण द्वारा और स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है जैसे आप किसी समूह में होँ और आपको कोई फिल्म बनानी हो और आप दृश्य को पकड़ने की बारीक नजर भी रखते हों इसके बावजूद पूरा समूह वही करेगा जो कैमरे वाला कहेगा । पूरी गणित पूँजी की है । जो खरीदने की क्षमता रखता है आज लीडर वही है । ऐसा नहीं होता तो इतने गो-पों पंडित नेतागिरी में न रहते(कम से कम मेरे शहर के विधायक तो पक्के तौर पर ) । बहरहाल समूह को कद्र तो सोच की नहीं बल्कि पूँजी की करनी थी सो बेचारे सोचक के लिए वहाँ कोई स्थान ही नहीं रह गया था । यह स्थिति लगातार कुछ दिनों से बनी थी लेकिन एक सोच ही थी जो बराबर अपनी किल्लाठोक उपस्थिति जता रही थी । पर वह भी स्वयं को समझाने और खुश करने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं थी । अंततः जीत पूँजी की ही हुई और एक अपनी क्षमता दिखाने का अवसर जाता रहा । कहने को तो समूह छोड़ना मेरा ही था इसे भी खुद को खुश करने का एक बहाना ही मानिए ।
सामाजिक स्थिति और स्वीकृति पूँजी तय करती है और इससे लगातार आपका साबका पड़ता रहता है । बात कुछ पुरानी है पर है जेहन में उसी तरह लिखी जैसे उस समय हुई थी ।दिल्ली में लंबे समय तक तैयारी करने के बाद भी कोई सरकारी नौकरी न करने के कारण घर जाने पर मेरी स्थिति अदना सी थी वहीं आठवीं पास बीएमपी एक सम्मानित व्यक्ति हो गया था ।
काम तो मिलते रहेंगे और होते भी रहेंगे पर मेरा उस समूह से निकलना समूह के समाजशास्त्र को समझने का अवसर देता है । हम सब चाहे मानें या न मानें पर पूँजी की ही गुलामी करते हैं । आज मैंने इसे झेला है तो मैं इस तरह की बात कर रहा हूँ लेकिन कल को मैं भी ऐसा कर सकता हूँ और उस समय मेरे पास भी उसके पक्ष में तर्क होंगे । समूह एक मजबूत गठजोड़ है लेकिन उस में सत्ता जब पूँजी हथिया ले तो उसका समूहपना नष्ट होकर उसे एक विकृत रूप दे देता है जहाँ विचार , बहस और यहाँ तक कि हँसी-मजाक के लिए भी गुंजाइश नहीं बचती ।
आगे की राह पर बहुत से मकाम हैं और वहाँ ढेरों समूह पर उनमें जाने का नया भय सर उठा रहा है । ऐसी स्थिति रही तो लोग एक दूसरे से बोलना-भूंकना छोड़ देंगे । बाबा भारती को अपना घोड़ा चोरी होने का मलाल नहीं था बल्कि उस घटना के प्रकाश में आने के बाद लोग विश्वास करना छोड़ देंगे इसका दुख था ।

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