अपराजिता के कई परिचयों में से एक
उनका कलाकार रूप है । वे जिस संजीदगी से कला को जीती हैं और जिस तरह उनका कलाकार
सरोकारों से जुड़कर जन पक्षधर बना रहता है , वह जानने - समझने
की ख़ूब लालसा थी । उसके वशीभूत उनसे कुछ प्रश्न पूछने की इच्छा ज़ाहिर की और वे
इसके लिए सहज तैयार हो गयी ।
मेरा उनसे लंबा परिचय है । उनसे चार
– पाँच बार मिलने का सुअवसर मिला और हर बार दिल्ली विश्वविद्यालय का परिसर ही
केंद्र में रहा । CAB के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों में वे आर्ट्स फ़ेकल्टी
के बाहर विद्यार्थियों का हौसला बढ़ा रही थी तब आख़िरी मुलाक़ात हुई । कोरोना न होता
तो उनसे मिलकर ये प्रश्न पूछे जाते । मेरे अनगढ़ सवालों के इतने विस्तृत और गहरे
उत्तर देने के लिए उनका आभार । आइये उनकी कला-यात्रा से रु–ब-रु होते हैं ।
आलोक रंजन : महाविद्यालय में हिंदी के अध्यापन , घर के दायित्वों
के साथ साथ कला का सामंजस्य किस प्रकार बिठाती हैं आप ? यह प्रश्न इसलिए
कि इन तीनों में से कोई भी कार्य अंशकालिक नहीं है ।
अपराजिता : यह सामंजस्य बैठाने से अधिक अपने
को तलाशने, तराशने की प्रक्रिया अधिक है मेरे लिए।घर और काम दोनों जगहें, मेरे भीतर की
कला को धार देती हैं।जिन भी विषयों पर मैं चित्र भाषा में अपनी बात कहती, रंगों से सौंदर्य को सींचती-पोसती हूँ वह इन्हीं दो कर्म क्षेत्रों से अपना खाद-पानी पाता है।
घर मेरे खुला कैन्वस है और कॉलेज का वातावरण उस
कैन्वस पर उकेरे जाना वाला विषय है, विचार है।
साहित्य ने मुझे संवेदना के स्तर पर अधिक गहरा किया
है, अभिव्यक्ति के धरातल पर मैं कला में जितने भी प्रयोग करती हूँ या करने का साहस करती हूँ (बिना किसी
फ़ॉर्मल आर्ट ट्रेनिंग के) वह अध्यापन कार्य की प्रेरणा से ही सम्भव हुआ है।जब आप मिरांडा हाउस जैसे संस्थान में अपना अधिकांश समय युवा विचारों और योग्यता के बीच बिताते हैं तो भीतर का सजग कलाकार उससे बहुत कुछ सीखता चलता है।इसलिए मैं चाहे घर गृहस्थी की ज़िम्मेदारी हो या कार्यस्थल की व्यस्तता, कला को इन दोनों को समान रूप से जोड़कर चल पाने का कारण मानती हूँ।
आलोक रंजन : आपने किताब
के लिए इलस्ट्रेशन बनाए हैं , हिमोजी की एक श्रृंखला ही खड़ी कर दी, अलबेली आयी और फिर चित्रगीत माला । अपनी कला यात्रा में इसे एक विकासक्रम की तरह देखती हैं या आपके ये कार्य अपने भीतर ही एक विकासशील यात्रा की क्षमता रखते हैं ?
अपराजिता : हिमोजी (हिंदी चैट स्टिकर) वह पहला कलात्मक काम
था जिसके कारण आप सबके बीच मुझे एक कलाकार के रूप में भी पहचान मिली लेकिन कला से मेरा प्रेम पुराना है। लगता है जैसे पढ़ने समझने की उम्र की शुरुआत से ही मैं एक कला यात्रा पर हूँ।
मिट्टी के खिलौने बनाने वाली छोटी अपराजिता, माँ के
तीज-त्योहारों के चित्र, अल्पना, माँडने बनाती थी तो लोग कहते कलाकार है। भीतर का कलाकार भले कला में शिक्षा ना ग्रहण कर सका हो पर अपने परिवेश को देखने परखने की सलाहियत से मंझता चला गया। लोक कलाओं में बहुत रूचि थी तो वह भी बहुत दिनों तक किया, फिर स्केचिंग, कार्टूनिंग, ऐब्स्ट्रैक्ट कई तरह की विधाओं में काम किया। एक समय जब
काम, पढ़ाई, बीमारी और व्यस्तताओं का बोझ ज़्यादा हो गया तो सब बंद भी
किया। लेकिन जो बना ही रंग-रेखाओं से हो वह अपनी अभिव्यक्ति के और कहाँ
जाएगा, कला ही की शरण में।कला ही मेरी शरणस्थली है, मेरी भाषा है, अभिव्यक्ति का माध्यम है।
हिमोजी, अलबेली, चित्रगीत इसी
अभिव्यक्ति के अलग-अलग पड़ाव हैं। हिमोजी के पात्रों की
देह-भाषा (चैट स्टिकर की अपील और इमोशंज़) को जब हिंदी समाज ने गहराई से
समझा और सराहा तब लगा भाषा को कला के ज़रिए भी तो एक नया तेवर दिया जा सकता है।
यहीं से अलबेली का जन्म हुआ। अलबेली की दुनिया में
जितने भी राजनीतिक सामाजिक मुद्दे हैं अलबेली उन सबसे प्रभावित भी होती है और अपनी बात को सबके बीच कहने का साहस भी रखती है। यह साहस मेरे भीतर (एक व्यक्ति के तौर पर) उतना नहीं, जितना मेरी भाषा के पास है। भाषा तो सबकी सांझी है, अगर वही दब्बू-डरपोक हो गयी तो फिर अभिव्यक्ति के ख़तरे कौन उठाएगा…… अलबेली सब कह सकती है, इसलिए मुझ से जन्म कर भी वह मुझ से बहुत आगे है।
मेरी कला यात्रा में बड़ा योगदान सोशल मीडिया और रोज़ बदलती टेक्नीक का है।चित्रगीत
इसी का परिणाम हैं।आप कला के साथ-साथ तकनीक को भी एक्सप्लोर कर रहे हैं दिन
प्रतिदिन। अपने समय से यह जुड़ाव आपकी कला (भाषा) में भी झलकना चाहिए।बिना
तकनीक के चित्रगीत शृंखला सम्भव नहीं थी।हाँ, फ़िल्मी गीतों के भीतर जिस गहरी भाव-सम्वेदना हम उसके लोकप्रिय, बाज़ारूपन के
कारण नहीं देख पाते उन्हें महसूस करने की भी कोशिश है चित्रगीत।
शब्द और संगीत के इस अनोखे जादू को जो हिंदी सिनेमा
की अपनी विशेष थाती है मैं चित्र भाषा में संजोने का काम भर कर रही हूँ।
किताबों के आवरण बनाना अपने कलाकार को भाव, सम्वेदना, कला और समझ के चुनौती देने जैसा है। वह मैं जब-जब कोई अच्छी योजना आएगी, करती रहूँगी।
आलोक रंजन : अलबेली को आपने
समकालीन समाज - राजनीतिक परिस्थितियों पर टिप्पणी के लिए चुना । कई
बार वे सामाजिक सौहार्द्र चाहने वालों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनी ।
मॉब लिंचिंग , जेएनयू हमला या फिर किसान आंदोलन अलबेली सोशल मीडिया में
विरोध के प्रतीक के रूप में खड़ी दिखी । यह किस प्रकार संभव हुआ ?
अपराजिता : अलबेली एक जीता-जागता चरित्र है। वह
आज़ाद हिंदुस्तान में पैदा वह स्त्री है
जिसके पास पढ़ने-बोलने-चुनने का संवैधानिक अधिकार है।अपने इस अधिकार के
इस्तेमाल के साथ ही वह हर स्त्री का प्रतिरूप है। उसकी पहचान, वेश भूषा भले भौगोलिक सीमा विशेष की हो लेकिन उसके विचार सर्वकालिक, सार्वभौमिक हैं।
वह जन की पक्षधर है तो स्वाभाविक है उसका विरोध का
प्रतिरूप होना।और फिर कला, केवल सौंदर्य का प्रतिपादन तो नहीं, और सौंदर्य भी
क्या केवल सुंदर ही के संदर्भ में जीवन में उपस्थित है।
सौंदर्य तो बोध है, पसीने में भी है, लहू में भी, जीवन में भी है, संघर्ष में
भी।अलबेली की देह भाषा उस कला से जन्मी है जो हमारे जीवन के संघर्षों से
जन्मी है, जो हमारे बारे में है, हमारे सरोकारों के बारे में है। सरोकारहीन
कला गैलरियों की दीवारों पर सजा दी जाए, अलबेली तो सड़क
पर उतरेगी, फ़ेसबुक को वॉल-वॉल भटकेगी, मॉब लिंचिंग पर आक्रोश व्यक्त
करेगी, आज़ादी के नारे लगाते हुए आँख में किरकिरी की तरह चुभना पसंद करेगी। कला कला के लिए नहीं, हमारे जीवन को बदलने, परखने बेहतर करने के लिए है, अलबेली यही करेगी।
आलोक रंजन : आजकल एक तरह का
अघोषित आपातकाल चल रहा है । अभिव्यक्ति के खतरे हैं । कार्टूनिस्ट
निशाने पर लिए जा रहे हैं । इस माहौल में अलबेली की उपस्थिति से आपको डर नहीं
लगता जबकि आपके पास खोने के लिए बहुत कुछ है ?
अपराजिता : अभिव्यक्ति का ख़तरा तो सुकरात को
भी था पर उन्होंने उठाया, अभिव्यक्ति का ख़तरा तो मीरा को भी था फिर भी उसने सती होने से इनकार कर प्रेम करने के अधिकार को चुना।यह सच है कि परिणाम सोच कर सृजन करने, कहने वाले भी हैं, लेकिन अलबेली की पक्षधरता तो परिणाम जानने के बाद ही तय हुई है।
वह अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाते हुए यह ज़रूर ध्यान
रखती है कि समर्थन हिंसा और विभाजित मानसिकता का ना हो बस।
बाक़ी तो कलाकार के लिए बैन पुरस्कार समान है।
जिस दिन कोई ऐसी कोई स्थिति बने समझिएगा, अंग्रेजों की
अस्सेंबलि में बम फोड़ने वाले क्रांतिकारियों की नातिन है अलबेली। अपनी विरासत को सम्भालना सीख गयी।
आलोक रंजन : हिमोजी में, तकनीक और कला के
साथ - साथ हिंदी की भावुक - चुटीली व हाजिर जवाब दुनिया खुलती है । हिमोजी इतनी
सक्षम कैसे हुई ?
अपराजिता : हिमोजी स्टिकर्स, दरअसल अपनी
कलात्मक अभिव्यक्ति में देशज रूप-रंग और भाषा
में हिंदी के धारदार तेवर को लेकर आने के कारण इतने दिलचस्प हैं। यह
हिंदी को अपनी बोलियों और परिवेश से मिला वह आस्वाद ही है जो हिमोजी
स्टिकर्स को अंग्रेज़ी के फ़ॉर्मल स्टिकर्स और हाव-भाव वाली शैली की तुलना में उसके यूज़र्ज़ को अधिक प्रभावी लगता है।
अपनी भाषा में बात कह सकना यूँ ही थोड़ी मज़ेदार होता
है।बात करने का स्वाद तो अभी आता है जब भाषा बोली का तेवर मिलजुल कर आए।मैंने पहले भी कहा, तकनीक मेरी कला
यात्रा को सक्षम करती रही है। तब जब हिंदी में चैट स्टिकर नहीं थी, हम अंग्रेज़ी
चैट स्टिकर भेजते-रिसीव करते थे उस समय भी मेरे भीतर उनका
रेप्लेस्मेंट हिमोजी की शक्ल में चलता रहता था, फिर जब बेचैनी
इतनी बढ़ गयी कि हिंदी की बात हिंदी में क्यूँ नहीं कही जाए तो बस काम पर लग गयी। शुरुआत में 300 स्टिकर बनाए जिनमें से छाँट कर 250 क़रीब एप में जोड़े।2019 में इनमें लोक कलाओं से जुड़े स्टिकर भी जोड़े। अपनी धरती की कला, अपनी भाषा में बात कहने का अब एक माध्यम तो है कम से कम - हिमोजी।
आलोक रंजन : हिंदी पत्रिकाओं
में , किताबों के आवरण पर एक से एक खूबसूरत और अर्थपूर्ण
इलस्ट्रेशन आते हैं लेकिन उनके सर्जक नेपथ्य में ही रह जाते हैं । यह क्यों होता है ?
अपराजिता : मुझे लगता है हिंदी की समझदार, सम्वेदनशील
दुनिया भी लम्बे अरसे तक कला को फ़िलर की तरह इस्तेमाल करती आयी है।फ़िलर मने, ख़ाली जगह को भरने का सुंदर कलात्मक विकल्प।चित्र में उकेरे दृश्य, रेखा-रंग का
अपना भी एक पाठ, एक मूल्यांकन है, वह भी एक सह-पाठ निर्मित करता है यह समझ तब बनने लगी है जब हमने
इस पर सवाल उठने शुरू किए।
किताब की समीक्षा और प्रचार में आवरण और रेखांकन पर
आपको अब से पहले कभी एक लाइन भी कही गयी नहीं मिलेगी। 2017 में जब मैंने एक
किताब का पहली बार कवर बनाया तो यह बताते हुए पोस्ट लिखी (फेसबुक पर) कि कवर बनाने
वाला किन बिंदुओं पर किताब का आवरण खड़ा करता है, कैसे वह आवरण
किताब से आपका पहला परिचय करवाता है, किस तरह किताब
में पाठ के साथ आए रेखांकन समांतर सह पाठ रचते हैं जो कि विषय
को अधिक ग्राह्य बनाते हैं।
मुझे लगता है यह कलाकार की भी ज़िम्मेदारी है कि वह
अपनी रचना के संदर्भ में पाठक और दर्शक को बताए।आख़िर हमारी शुरुआत तो इसी चित्र भाषा से हुई है, इसके भीतर उतरना सीखना हम भूल कैसे सकते हैं। यह ज़िम्मेदारी लेखक और प्रकाशक की भी है कि वे जिस उत्सुकता से किताब के आवरण और रेखांकन के लिए कलाकार के पास आते हैं उतनी ही ज़िम्मेदारी से उसे पाठक के बीच भी दोहराएँ।
आलोक रंजन : हमारा समाज कला
के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना कैसे शुरू करेगा ?
अपराजिता : कला के प्रति हमारे समाज में
सम्मान बहुत है, मानदेय की बात कीजिए। कला को जब तक
शौक़ से श्रम के रूप में नहीं देखा जाएगा, श्रम भी
रचनात्मक और संसाधन और समय लगवाने वाला श्रम। अधिकांशतः लोग इसे शौक़ की तरह देखते हैं, योग्यता, मेहनत और रीसोर्स के रूप में जिस दिन समझना देखना शुरू करेंगे, आप ही आप उसके
प्रति सजग सम्मान पैदा होने लगेगा।
आप अपने लोकल आर्टिस्ट को सपोर्ट कीजिए, उसकी कला को दाम
देकर ख़रीदिए, सराहने के साथ, यही उसके प्रति सम्मान होगा।
आलोक रंजन : अपने देश में
कला के माध्यम से जीवनयापन की संभावना अभी भी दूर की कौड़ी क्यों लगती है ?
अपराजिता : इसका जवाब भी मेरे पिछले जवाब हमें
है फिर भी, फिर से कह दूँ…. कला योग्यता, प्रतिभा सब है महज़ शौक़ नहीं है। शौक़ के लिए ही (स्वांत: सुखाय ही) कला सृजन का कारण नहीं। हिंदी की दुनिया की बात करूँ तो, व्यावसायिक कार्यों में कला का उपयोग फ़िलर के रूप में ना हो। वह बाक़ायदा शब्द को पूरा करने वाली विधा के रूप में आए।
हमारे समाज में आज भी कला की चोरी आम बात है। जब कलाकार के श्रम की ही चोरी कर ली जाएगी, श्रम का मूल्य
कौन देगा। आप पेंटिंग की क़ीमत उसके पीछे छिपी वर्षों की साधना, उस पर खर्च हुए
संसाधन और ऊर्जा के आधार पर नहीं देते, आप उसे बाज़ार
में पड़े बाक़ी सामान की तरह काम की चीज़ की
तरह देखते परखते हैं, एक बार मिले आँखों के आनंद से उसकी क़ीमत आंकते हैं
और उसके श्रम को घटा कर आँकते हैं।
वैसे जिस देश में बड़ी जनसंख्या अभी जीवन यापन के
ज़रूरी मुद्दों पर ही लड़ रही हो वहाँ प्रतिभा और श्रम के मूल्य पर चर्चा दूर की कौड़ी ही है।
आलोक रंजन : आप रचना करते
समय कोई विशेष प्रक्रिया अपनाती हैं जैसे शांत वातावरण , किसी खास कोने
में बैठना वगरैह ?
अपराजिता : शान्ति में मोक्ष मिलता है कला
नहीं, कला तो जनता और उसके सवालों के बीच धँसने से मिलती है। वह मिलती है सुबह 8:30 से 10:30 बजे के बीच भीड़ भरे मेट्रो स्टेशन पर, वह सार्वजनिक वाहन में सट कर खड़े लोगों के आपसी-संवाद के
बीच मिलती है, वह किसी की शिकन में छिपी दिखेगी, किसी के सवाल में हल्ला बोलती दिखेगी, वह किसी के आँसू में ल बह चली
आएगी।
हाँ चित्र बनाने के लिए ‘me time’ तो चाहिए, कई बार आधी रात
में उठ कर बनाती हूँ, कभी किसी ख़ाली लेक्चर में, कभी घर लौटते वक़्त…. मतलब समय चाहिए, जब-जहाँ-जैसे मिल जाए। कोई ख़ास कोना नहीं है, चित्र बनाते
वक्त जहाँ भी होती हूँ वो समय ख़ास होता है। अपने से घिरी, अपनी ही रफ़्तार
में कलम की धार पर चलती।
आलोक रंजन : चित्रगीत माला
आपकी कला का दार्शनिक पक्ष लगती हैं जहाँ रूमान , वैराग्य एक साथ
उभरते हैं । क्या आप इससे इत्तेफाक रखती हैं ?
अपराजिता : बिलकुल रखती हूँ और आपने इतना
बारीक विश्लेषण किया चित्रगीत का कि दिल ख़ुश हो
गया। अलबेली अगर अपने आसपास के वातावरण से संवाद है तो चित्रगीत ख़ुद
से संवाद है। जब तक आपको अपने भीतर उमड़ते दुःख, सम्वेदना, विचार को राह
नहीं मिलेगी आप कुछ सार्थक नहीं रच सकते। चित्रगीत विचार को विराम तक ले आने
की यात्रा के बीच पड़ने वाला क्षण है। वैसे सच यह है कि वह विराम आता नहीं, सफ़र लगातार
जारी है इसी सफ़र में कभी कोई दृश्य बिंध जाता है, कभी कोई छूट
जाता है।
चित्रगीत नया प्रयोग है, आगे जाने किस
राह मुड़ेगा नहीं कह सकती लेकिन अलबेली साथ चलेगी अभी बहुत दूर तक यह तय है।