पूना के उस होटल के कमरे में उन्हें पहली बार अपने माता – पिता से अलग हो जाने का एहसास हुआ खासकर अपनी माँ से । माँ की बेचारगी और सुलगता हुआ दुख वे महसूस कर रहे थे । माँ ने निश्चित रूप से आगा जी से कुछ नहीं कहा होगा । लेकिन भीतर ही भीतर बहुत दुखी हुई होगी ! वे देर तक सो नहीं पाये । उन्हें अपनी अम्मी याद आ रही थी ।
दिलीप साहब जेब में चालीस रुपय लेकर घर छोड़ दिये थे । पिता से किसी बात पर हल्की सी बहस हुई और पिता जी जिन्हें घर में सब ‘आग़ा जी’ बुलाया करते थे, बिगड़ पड़े । दूसरे विश्वयुद्ध का काल था बंबई का उनका फल का व्यापार मंदा पड़ा था । उत्तर – पश्चिम सीमाप्रांत में कुछ ज्यादा सख़्ती थी । वहाँ से आने वाली ट्रेनों में ही पेशावर से इनके फल आते । युद्ध काल में अति आवश्यक वस्तु न होने के कारण फल नहीं आ रहे थे । उसका असर इतने बड़े परिवार का पेट भरने वाले पर पड़ रहा था । आग़ा जी चिड़चिड़े होने लगे थे । पिता की डांट के बाद दिलीप साहब ने घर छोडने का फैसला कर लिया । उस फैसले के पीछे गुस्सा नहीं था बल्कि दुख और अपमान की भावना थी ।
चालीस रुपय से ही उन्हें नौकरी मिलने तक अपना काम चलाना था इसलिए शाहख़र्ची चल नहीं सकती थी । बंबई से पूना की ट्रेन में वे तीसरे दर्जे में जा बैठे रास्ते भर उन्हें यह डर सता रहा था कि कोई जान न जाये कि आग़ा जी का लड़का तीसरे दर्जे में सफर कर रहा है । उनके पिता ने हमेशा अपने बच्चों खासकर बेटों को हमेशा बढ़िया सुविधाएं दी थी ।
पूना पहुँचने पर उन्हें नौकरी की तलाश करनी थी । घर से भाग आए हैं और बंबई से पूना इतना भी दूर नहीं है ऊपर से उनके पिता ठहरे नामी फल और मेवों के व्यापारी जिनको लोग जानते – पहचानते थे । अगली सुबह वे नौकरी की तलाश में थे । एक केफे के ईरानी मालिक से उन्होंने काम के सिलसिले में बात की । उन्हें किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी सो उन्होने एक एंग्लो – इंडियन जोड़े द्वारा चलाये जा रहे कैफे का पता दिया । वे झट से वहाँ पहुँच गए । वह जोड़ा इनकी अंग्रेजी से बहुत प्रभावित हुआ सो उन्होंने, इनको ब्रिटिश आर्मी की केंटीन के ठेकेदार के पास भेज दिया । दिलीप साहब अगले दिन केंटीन ठेकेदार के ऑफिस के लिए निकल पड़े । वे प्रार्थना कर रहे थे कि वह उनको पहचान न पाये क्योंकि आग़ा जी अपनी बातचीत में पूना के अपने दोस्त फतेह मोहम्मद ख़ान ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एंपायर का कई बार ज़िक्र कर चुके थे । लेकिन वहाँ पर उनका छोटा भाई ताज मोहम्मद ख़ान था जिसने दिलीप की ओर उतना ध्यान नहीं दिया और उन्हें काम पर रख लिया । केंटीन के मेनेजर को एक सहायक चाहिए था । वहाँ पर दिलीप साहब की धाराप्रवाह अंग्रेजी बहुत काम आयी । बाद में उनके वहाँ ढेर सारे संपर्क बने और चीजें बदलने के कगार पर पहुँच गयी ।
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