पढ़ने लिखने की उम्र में हमारी ज़रूरतें कम थी और आसपास का सपोर्ट सिस्टम मज़बूत । महीने के अंत में चार – पाँच सौ रुपयों की ज़रूरत हो या फिर कभी कभी गर्लफ्रेंड के साथ समय बिताने के लिए कोई कमरा वह मज़बूत समूह हमेशा तैयार रहता था । कहीं घूमने जाना हो तो झोला उठाकर तैयार हो जाइए पैसे नहीं हैं तो कोई बात नहीं आपके हिस्से का ख़र्चा कोई और कर देगा । किसी ने अपनी यूजीसी की फ़ेलोशिप को केवल अपना नहीं माना तो किसी के घर उसकी आलमारी की सारी किताबें चाट जाने तक रह जाने में दिक्कत नहीं थी । कोई मछली बनाने के लिए विशेष रूप से बुलाया जा सकता था । उस दौर में या कभी भी ये चीजें माँ – बाप से नहीं संभलती बल्कि यदि इनमें उन्हें शामिल किया जाता तो असर विपरीत ही होना था । वह व्यवस्था जिसमें ये सब बिना किसी रुकावट के चलता था हम उसे दोस्ती कहते थे । ऐसा समूह जिसमें मॉरल पुलिसींग नहीं थी । एक–दूसरे की बेरहम टाँग खिंचाई अवश्य होती लेकिन बाहरी के सामने यही ढाल बन जाते ।
आज और उस समय में यह फ़र्क आ गया कि वे दिन सुदूर इतिहास की बात लगते हैं । वे घटनाएँ और दृश्य जिन्हें आपने जिया हो किसी घोर आशावादी इंसान के दिन में देखे गए सपने लगते हैं या फिर ख़ुद की ही कोई सुखद कल्पना लगती है । रोज़गार के सिलसिले में समूह टूटता गया अड्डे सिमटते गए फिर ऐसा भी दिन आया कि दिल्ली शहर में बहाने के लिए भी कोई नहीं बचा कि ‘दोस्तों के साथ हूँ’ कहा जाये ।
दूरियाँ अवश्य असर करती हैं । हम जो एक दूसरे की ढाल थे अलग अलग हो गए । अपनी-अपनी नयी जगह पर भले ही थोड़े दिनों का अकेलापन रहा हो पर नई व्यवस्था बनने लगी । नई व्यवस्थाओं में रोज़मर्रा की बातों के लिए तो जगह थी लेकिन वह बेफ़िक्री नहीं जो फाकाकशी के दिनों में रहा करती थी । परिवारों के शामिल हो जाने से यह व्यवस्था ‘नैतिकता’ के अतिरिक्त दबाव का भी शिकार हो गयी । सबसे बड़ी बात कि इसमें समस्याओं की सार्वकालिक उपस्थिती रही । ताज़ा विचार या फिर अलग सी बात , कुछ नया देखा – पढ़ा सिरे से ग़ायब ! तमाम कोशिशों के बावज़ूद इसे तदर्थ ही रहना था क्योंकि ज़्यादातर काम से जुड़े लोगों की दोस्ती ही थी । कार्यस्थल से निकले तो ‘तू कौन – मैं कौन’ होने में बस कुछ सेकंड लगने थे । काम की जगह बदलने से और संकट ।
भौतिक उपस्थितियों के विकल्प के रूप में सोशल मीडिया आया । समूह बनने लगे, तस्वीरें साझा होने लगी, जन्मदिन सालगिरह आदि मनाए जाने लगे । किसी के जन्मदिन पर उसके लिए अपना बनाया हुआ कोई खाना , दारू और सलाद या फिर कोई खूबसूरत तस्वीर समूह में आ जाएँ लेकिन उनका असर नहीं आता । कुछ मिनटों के लिए अड्डेबाजी वाली बात आ जाए लेकिन फिर सब अपनी अपनी दुनिया में सिमट जाते हैं । जो हम सबकी थी वह नितांत व्यक्तिगत स्तर तक रिड्यूस हो गयी । व्यक्ति की ज़िंदगी में इतनी चीजें होती हैं कि कई बार किसी ग्रुप में पड़े संदेश देखने में कई दिन लग जाते हैं और देखते भी हैं तो सरसरी तौर पर । कोरोना की तेज़ रफ्तार ने इसमें हल्का बदलाव अवश्य किया लेकिन उसके धीमे पड़ते है सब पहले जैसा हो गया ।
अलग अलग होते रहने के क्रम में जल्दी ही सबने अपना अपना दायरा बना लिया । वे दायरे तात्कालिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे लेकिन जिस सपोर्ट सिस्टम की बात ऊपर हुई वैसा नहीं बन पाये । बावजूद इस कमी के ये दायरे काम करते जा रहे हैं और आपसी दूरियों को निरंतर बढ़ाते जा रहे हैं । सोशल मीडिया पर सब हैं लाइक और कमेंट्स भी आते-जाते रहते हैं पर ऐसा तो हम उनके साथ भी करते हैं जो हमारे सपोर्ट सिस्टम का हिस्सा नहीं थे और जीवन में कुछ दिन पहले आए । अब बात इतनी बिगड़ चुकी है कि किसी को इसे ठीक करने की परवाह नहीं ।
दिल्ली जैसे शहर में तो सभी दोस्तियां केवल कार्यक्षेत्र और उसमें पड़ने वाले कामों के आधार पर ही बनती और टिकती हैं हर दोस्ती उनके लिए आपकी उपयोगिता पर निर्भर है. नौकरी बदलने पर किसी ने संपर्क जारी रखा भी तो वो बस वर्चुअल होगा। आफ़िस का सपोर्ट सिस्टम तभी तक साथ देगा जब तक आप उसे कॉम्पटिशन नहीं दे रहे फ़ाकाकशी या संघर्ष के समय ही अच्छी दोस्ती मिले तो मिले। बाद में सिर्फ़ मतलबपरस्ती है
जवाब देंहटाएंमित्र मेरे मन में भी यही बातें खलती रहती हैं. बहुत सही बयां किया है आपने. कहाँ गए वो दिन...
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया लिख रहे हैं आलोक आप। जीवन की छोटी-छोटी बातों को बारीकी से उकेर रहे हैं आप। यह पोस्ट तो सबके मन की बात होगी। सभी इस से दो-चार हुए होंगे।
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