अगस्त 14, 2013

गोद से उतार देने का समय

देश से मुझे भी प्यार है लेकिन यह प्यार ऐसा नहीं है कि इसके लिए देश के गू-मूत तक को शरीर पर लेपा जाये और इस तरह जिया जाए कि सबकुछ अच्छा अच्छा ही है . ऐसा मुझे स्वीकार नहीं है ! इस तरह के बहुत से अस्वीकार को लेकर अब जीने का आदि हो रहा हूँ और इसीलिए घर से लेकर बाहर तक ‘ज्यादा समझदार’ मान लिया जाता हूँ . यहाँ ज्यादा समझदार होना कोई प्रशंसा नहीं बल्कि व्यंग्य है जो यह मानकर किया जाता है कि अब खुद ही मान लो कि तुम क्या हो . किसी ने ऐसे ही एक दिन कहा था कि हिन्दू धर्म के मानने वालों ने महात्मा बुद्ध को बुद्ध के बजाय बुद्धू कहना शुरू कर दिया और बहुत तेजी से इस शब्द को बुध्द के बरक्स उनके ज्ञान के बदले भाषाई चमत्कार के जरिये हीनता दिखाने लिए प्रचलित कर दिया . जब स्वतंत्रता दिवस या कि गणतंत्र दिवस का मौका आता है सब तरफ अच्छा-अच्छा बताने की होड़ लग जाती है जैसे इससे बढ़िया कोई देश ‘न भूतो न भविष्यति’ ! और इन दिनों पर यदि देश के सबंध में एक हरफ भी बुराई करने के लहजे में आया तो वो हरफ फिर से हलक में डाल दिए जाने तक बाध्य किया जायेगा . देश को लेकर प्रेम इस कदर आकार लेता है कि यह कट्टरता की हद तक चला जाये .

मैंने बहुत दिनों से टीवी नहीं देखा है इसके बावजूद कह सकता हूँ कि सभी टीवी चैनलों ने स्वतंत्रता दिवस को भुनाने के पुरे इंतजाम कर रखे होंगे . क्या समाचार और क्या फ़िल्मी चैनल सब के सब एक से एक पॅकेज के साथ तैयार होंगे . ऐसा नहीं है कि विदेशी पूँजी से चलने वाले ये सब अचानक से भारत भक्त हो गए बल्कि रघुबीर सहाय की एक कविता ‘कैमरे में बंद अपाहिज’ से एक पंक्ति ‘परदे पर वक्त की कीमत है’ लेकर कहें तो यह कि वे सभी अपना अपना वक्त आम लोगों की देशभक्ति के बदले व्यापारियों को बेचने के लिए तैयार हुए हैं .

यह बात तो सबसे पहले कहना चाहता था कि हमारे बहुलतावादी समाज में दिवसों की भी बहुतायत है . बहुत से धार्मिक दिवसों के बीच कुछ गैर-धार्मिक प्रकार के भी हैं पर हर दिवस पर इतनी सकारात्मकता बहती रहती है कि कभी कभी मन यह मानने लगता है कि देश में नकारात्मक तो कुछ है ही नहीं . हर दिवस पर संबंधित व्यक्ति, वस्तु , स्थान और भाव का गुणगान होता है . और उसे सामान्य से बड़ा दिखाने की कवायद का नतीजा ये होता है कि साल दर साल हम उनके बारे में आलोचनात्मक न होकर अनुकरणात्मक होते चले जाते हैं . यही हाल हमारे स्वतंत्रता दिवस का भी है .

हमें जिन परिस्थितियों में आजादी मिली उनमें यह स्वाभाविक ही था कि देश का गुणगान हो ताकि हमारे लिए कम से कम बोलने के हवाई स्तर पर ही सही बाहर के मुल्कों से टक्कर लेने का आत्मविश्वास पैदा हो सके . इसलिए नेहरु से लेकर उस दौर के अन्य राजनेताओं , बुद्धिजीवियों और फिल्मकारों ने इस तरह के काल्पनिक वातावरण का निर्माण किया . मनोज कुमार के फिल्मों और उसके गानों में इसकी झलक दिख जाएगी . उनकी फिल्में इस मामले में अकेली नहीं ठहरती हैं इस तरह की प्रवृत्ति हर जगह मिल जाएगी . तब के लिए यह ठीक था क्योंकि तब की वास्तविकताएं दूसरी थी लेकिन लगातार प्रश्न न करने से वही स्थिति बनी रही और क्रमशः और मजबूत होती गयी . इस देश में धर्म जिस तरह बहुत गहरी जड़ें फैलाये हुए है देशभक्ति ने भी वही रूप ले लिया है . इसका असर यह हुआ है कि हम देश को धर्म की तरह ही आलोचना के दायरे में नहीं रख सकते और यदि ऐसा किया तो बहुत संभव है कानूनी कार्रवाई का डर दिखा कर यह मानने को बाध्य कर दिया जाये कि देश बहुत ‘सुन्दर’ , ‘न्यारा’, प्यारा है . इस तरह का राष्ट्रप्रेम देश के लिए तो खतरनाक है ही उसमें रहने वालों के लिए भी उतना ही कष्टकारी है . और यही करण है कि देशप्रेम के दायरे में रखकर बहुत सी ऐसी बातें थोपी जाती हैं जो कहीं से भी स्वीकार करने के योग्य नहीं होती हैं .  जैसे कोई माँ अपने बिगड़े हुए बेटे की हकीकत उसके बाप से छिपाती फिरती है और लड़के की करनी पर खुद कोने में जाकर रोती है उसी तरह हम पहले स्वतंत्रता दिवस से आज तक देश की बुराइयों को छिपाते आ रहे हैं और उस माँ की तरह दोहरी मार भी हम ही झेल रहे हैं .

अभी कल मंथन फिल्म देख रहा था . वह फिल्म लाख डॉ. वर्गीस कुरियन के अथक प्रयासों से गुजरात में सहकारी डेयरी स्थापित करने की बात करती हो पर उसका केन्द्रीय भाव तत्कालीन भारत की जातीय जकड़नों को ही रेखांकित करता है . वह फिल्म अमूल से ज्यादा जातीय वास्तविकताओं की फिल्म है . यह फिल्म सत्तर के दशक में बनी थी तब की जातीयता और आज की जातीयता में कोई अंतर नहीं आया है . भले ही यह अब फिल्मों और साहित्य की चहारदीवारी से बाहर कर दिया गया हो लेकिन इसकी सामाजिक स्वीकार्यता घटने के बदले बढ़ी ही है . इस तरह की बहुत सी अन्य वास्तविकताएं हैं जो लगातार बनी हुई हैं और बढती भी जा रही हैं . धर्म समाज को पहले से भी ज्यादा संगठित रूप से संचालित कर रहा है . आज आजादी के 66 वर्ष होने को आये फिर भी शिक्षा, स्वास्थ्य भुखमरी के मोर्चे पर हम पहले की तरह ही हाथ बांधे रक्षात्मक रूप से खड़े हैं फिर भी हम इतनी बेगैरती से देश का गुणगान करते ही रहते हैं . और तो और हम अपने देश की गरीबी का आंकड़ा तय करने के लिए स्थानीय आवश्यकता के मानदंड तक नहीं बना पाए जो यहाँ के अनुकूल हो .

एक तरह से कहा जाये तो हमारा देश आज भी एक बच्चा ही है जिसे उसके निवासियों ने बच्चा समझकर गोद से उतारा ही नहीं और इस लाड-दुलार ने इसे आजाद होने के 66 वर्ष के उपरांत भी अपरिपक्व और अविकसित ही रखा है . समय आ गया है कि अब इसकी बहुत ज्यादा जय-जय करने के इसकी बुराइयों को रेखांकित किया जाये ताकि ध्यान उस ओर हो जिस ओर इसका जाना जरुरी है  

2 टिप्‍पणियां:

  1. " भारत का उन्न्यन करेंगे पुनः प्रतिष्ठा पायेंगे
    मन मन्दिर को स्वच्छ रखेंगे स्वर्ग धरा पर लायेंगे ।
    बडी किरकिरी हुई हमारी अब हमने भी सोच लिया
    कर्म योग का पाठ पढेंगे भागीरथी बहायेंगे ।"

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  2. माता जी अब भागीरथी बहाने का समय नहीं रहा ... कुछ ऐसा करो कि आदमी आदमी के प्रति सहिष्णु हो जाये .. एक दुसरे के अस्तित्व को समझते हुए जीवन जिए .. न कि किसी और का अधिकार लेकर....

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स्वागत ...

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