अगस्त 01, 2013

नादां वहीं हैं हाय , जहां पर दाना ....


विद्यालय में यूं तो बहुत सारे छात्र हैं और सभी इंसान ही हैं , फिर भी इस स्थान को मैं भावनाओं से भरे हुए स्थान की तरह नहीं पाता हूँ । इसका कारण यहाँ का अपना समाज हो सकता है जो जीवन को वस्तुपरक ढंग से देखना सीख चुका है । समस्या यही है कि बहुत सारी बातों को हम सरलीकरण के खांचे में डालकर उन्हें नज़रअंदाज़ करना सीख जाते हैं जो जानने समझने के साधारण तौर – तरीके के बदले विशेष को प्रश्रय दिलवाता है । अर्थात, बिना किसी शोध के हम छोटी सी बात को समझने का दावा भी नहीं कर सकते जैसे शोध ही ज्ञान का एकमात्र आधार हो !


अभी हाल ही में दिल्ली से आने पर 11वीं कक्षा में गया तो पता चला कि एक छात्रा विद्यालय छोड़ कर जा रही है ! विद्यालय एक ऐसा स्थान है जहां छात्रों का आना-जाना तो लगा ही रहता है सो कोई अनोखी बात हो ऐसा तो था ही नहीं । न मैंने ऐसा महसूस किया और न ही कहीं से ज़ाहिर ही हो रहा था । छात्रों ने बताया कि उसे किसी दूसरे विद्यालय में विज्ञान में नामांकन मिल गया है । यूं विज्ञान या कि किसी भी अन्य क्षेत्र में छात्रों की दीवानगी मुझे नहीं जँचती है फिर भी मैं हर किसी पर अपनी बात थोप तो नहीं सकता न ! सो उसके विज्ञान की पढ़ाई के लिए विद्यालय छोडने को उसकी तरक्की मानते हुए उसे शुभकामनायें ही दी । थोड़ी देर बाद पता चला कि ऐसा वह अपने मन से नहीं, बल्कि अपने पिता के मन से कर रही है !


एक दिन बाद वह लड़की स्टाफ़-रूम में सभी शिक्षकों से मिलने आयी । कोई दूर से ही कह सकता था कि वह घंटों रोयी होगी । बात करने पर उसने बताया कि वह विज्ञान नहीं पढ़ना चाहती है । वह वहाँ पास नहीं हो पाएगी । बल्कि यहाँ उसका मन भी लगता है और मन माफिक विषय भी मिले हैं । लेकिन पिताजी हैं कि एक बार भी सुनने को तैयार नहीं हैं !


उस दिन वह लड़की कई बार इधर-उधर दिखी- कभी यहाँ से अनापत्ति-प्रमाणपत्र लेते हुए तो कभी वहाँ से ! उसके चेहरे पर रोने के भाव हमेशा ही ताज़ा बने रहे । छुट्टी के बाद तो उसके दोस्तों के चेहरे भी उसी तरह के थे – ग़मज़दा । शाम होते होते मुझे भी अपनी कक्षा से एक बढ़िया हिन्दी बोलने वाली छात्रा खोने का ग़म होना शुरू हो गया । वैसे ही यहाँ एक कक्षा में ठीकठाक हिन्दी बोलने वाले एक-दो मिलते हैं उस पर भी उस लड़की को उसके पिता विज्ञान पढ़ने के लिए यहाँ से ले जा रहे हैं ।


पहली नज़र में तो उसके पिता सीधे सीधे अपराधी नज़र आए जो अपने बच्चे की भावनाओं और इच्छाओं का कोई भी खयाल किए बिना अपनी जिद उस पर थोप रहे हैं । लेकिन गहरायी से देखने पर मामला कुछ और ही नज़र आता है । उसके पिताजी या कि इस तरह के कोई और, केरल की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनसे यहाँ साक्षारता और शिक्षा में नयी हवा की शुरुआत मानी जाती है । जिस पीढ़ी ने केरल को शिक्षा और साक्षारता के क्षेत्र में गर्व करने का मौका दिया उसी पीढ़ी के हैं ये हज़रत ! इन्होंने शिक्षा को जिस तरह से समझा उसमें वह केवल अधिकतम आय प्राप्त करने के साधन के रूप में ही मानी जाती है । तभी साहब विज्ञान विषय में ही भविष्य देख रहे हैं ।


मैंने जब से होश संभाला तब से जब भी केरल का जिक्र सुना, देखा, पढ़ा हमेशा वह एक आदर्श राज्य के रूप में ही दिखाया गया । और इस सबने मन पर इतना असर कर लिया था कि यहाँ मैं उन्हीं से उपजी बहुत सारी पूर्वधारणाओं के साथ आया था । मैं पता नहीं क्यों यह मानकर चलने लगा था कि इस राज्य में स्त्रियों को अन्य स्थानों की अपेक्षा ज्यादा स्वतन्त्रता होगी और कम से कम उनके पास कुछ अधिकार तो होंगे ही जैसे अपने अध्ययन क्षेत्र को चुनने की । पिताओं के वर्चस्व वाले परिवारों में वैसे भी लड़कियों की पढ़ाई कोई विशेष स्थान नहीं रखती है ।


अभी विद्यालय का कप्तान को चुनने की बैठक हुई थी । उस बैठक में सबने यह स्वीकार किया कि 11 वीं कक्षा में एक भी ऐसा लड़का नहीं है जो कप्तान बन सके । ज़िम्मेदारी, अनुशासन, धैर्य और अध्ययनशीलता एक साथ किसी में भी नहीं है । कई नाम उछले पर सब किसी न किसी के द्वारा काट दिए गए । वहीं सबने एकमत से स्वीकार किया कि उसी कक्षा की एक नहीं बल्कि कई लड़कियों में कप्तान बनने की क्षमता है । इस पर मेंने कह दिया कि क्यों न इस बार विद्यालय के कप्तान की ज़िम्मेदारी इस बार किसी लड़की को ही दे दी जाए इस तरह से एक परिवर्तन भी हो जाएगा और उनकी क्षमताओं का उपयोग करने का मौका भी मिल जाएगा । सच बता रहा हूँ इस प्रस्ताव का सिरे से विरोध शुरू हो गया । छोटे-छोटे से लेकर बड़े-बड़े कई बहाने बता दिए गए । और नहीं हुआ तो उनके लड़की के रूप में असुरक्षित और कमजोर होने का मुद्दा डाल दिया गया । परिणाम ? वही जो होता आया है अपने देश में । इस बात की पूरी संभावना है कि लोग मेरे इस प्रस्ताव को दूसरे नजरिए से भी देखने की जुगत कर रहे होंगे ।


जहां देखो वहाँ समाज में व्याप्त असमानता की भावनाओं के खिलाफ लड़ने के लिए शिक्षा की ढाल लायी जाती है और ऐसा माना जाता है कि इससे परिवर्तन हो ही जाएगा । शुरू मैं मैं भी यही मानता था पर पिछले दिनों के कुछ अध्ययन और कुछ अपने अनुभवों ने शिक्षा की निरीहता को समझने का मौका दिया है । इसे केरल के आधार पर ही देखिये तो समझ जाएंगे कि शिक्षा की जो भी महिमा गाते फिरते हैं वह बेकार सी है । केरल देश में सबसे ज्यादा शिक्षित प्रदेशों में से आता है और यहाँ स्त्रियों की स्वतन्त्रता और उनके प्रति हिंसा का जो आलम है वह सहज आभास देता है कि इन सामाजिक बुराइयों पर अंकुश के लिए केवल शिक्षा से काम चलाना संभव नहीं है और इसके लिए नए रास्तों और तरीकों को तलाशने की जरूरत है ।

यहाँ मुझे हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियाँ बड़ी मौजूं लगती हैं –

कर यत्न मिटे सब, सत्य किसी ने जाना ?
नादां वहीं हैं, हाय ,  जहां  पर   दाना !
फिर मूढ़ न क्या जग, जो इस पर भी सीखे ?

मैं सीख रहा हूँ,  सीखा  ज्ञान भूलाना !  (हरिवंशराय बच्चन) ! 

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