मई 02, 2013

छात्रवृत्ति बनाम स्कॉलरशिप



पहली बार छात्रवृत्ति शब्द तब सुना था जब मैं बहुत छोटा था ! इतना छोटा कि केवल यह समझ सका कि इसमें पैसे मिलते हैं । मामा को एम.ए. में कुछ निश्चित अंक प्राप्त करने के लिए पाँच हजार रुपयों की छात्रवृत्ति मिली थी । उसको पाने के लिए उन्हें बहुत भागदौड़ करनी पड़ी थी । दोपहर की धूप की परवाह किए बिना इस किरानी के घर उस किरानी के घर क्योंकि उन दिनों हमारे जिले के इन महाविद्यालयों के किरानी अपने कार्यालय में कम और घर पर ज्यादा होते थे । ( शुक्र है घर पर दिखते थे अन्यथा आजकल भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है । आज भी ये सब ऑफिस में कम ही देखे जाते हैं   ) उस भागादौड़ी का असर ये हुआ कि वे गंभीर रूप से बीमार पड़ गए । अगले दो तीन महीने उनकी हालत इतनी खराब रही थी कि वे बिस्तर से उठ भी नहीं सकते थे । पाँच हजार रूपय की छात्रवृत्ति में से कुछ उनलोगों  ने ही रख लिए थे ऐसा सुनने में आया था ।
उसी दौरान छात्रवृत्ति लफ्ज एक बार फिर से सुनने में आया और उसके बाद आगे के कुछ सालों तक । वजह थी सरकार द्वारा अनुसूचित जाती और अनुसूचित जनजाति पृष्ठभूमि के छात्रों को वार्षिक या छमाही दो सौ रूपय की छात्रवृत्ति देने की । यह निर्णय पटना वाली सरकार का था या दिल्ली वाली का इतना तो पता नहीं या अब याद नहीं लेकिन उन दो सौ रुपयों के लिए छात्रों और उनके माता-पिता को कितनी मिन्नत करनी पड़ती थी यह याद है मुझे । ये तो जाहिर ही है कि छात्रों की उपस्थिति पर्याप्त नहीं थी । होती भी कैसे , उस गाँव की लगभग दो तिहाई आबादी अभी भी भूमिहीन है । आज भी मजदूरी उनकी आय का मुख्य साधन है फिर वो गाँव के खेत में हो या दिल्ली-पंजाब में । तब दिल्ली पंजाब का चलन कम था । मजदूरी करने वाले छात्र को सरकार छात्रवृत्ति नहीं देगी ऐसा तो नहीं लिखा था कहीं पर लेकिन सरकार के प्रतिनिधि के रूप में जो शिक्षक थे वे जरूर ऐसा मानते थे । छात्रों और उनके माँ- बाप को बहुत कुछ सुनाया जाता था । इसमें जो स्थानीय शिक्षक थे उनका गला ज्यादा फड़कता था । जबकि जहां तक मेरा अनुभव है वे सिवाय चिल्लाने के और कुछ नहीं करते थे और बन पड़ा तो बांस की सटकी से छात्रों को पीट दिया । खैर किसी तरह छात्रवृत्ति मिल जाती थी पर वह भी बाप द्वारा पूरे अधिकार से हथिया ली जाती थी ।
आगे एक शब्द और सुना स्कॉलरशिप  ! पिता के एक परिचित के लड़के को अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय में किसी कोर्स में पढ़ने के लिए वहाँ से बुलावा आया था - मय स्कॉलरशिप । वे दिन मेरे लिए बहुत कठिनाई भरे थे । घर में चार पाँच बार इसकी चर्चा होती थी । पिता की बातों का भाव ऐसा होता था कि मैं झट से बड़ा हो कर वो स्कॉलरशिप क्यों न ले आता हूँ । शब्दकोश में देखा तो पाया कि दोनों शब्दों के अर्थ तो समान थे पर पिता के व्यवहार ने सोचने पर विवश किया ।  इन्होंने कभी किसी के छात्रवृत्ति पाने पर इस तरह की प्रतिकृया नहीं दी थी  यहाँ तक कि मामा के एम ए की छात्रवृत्ति पर भी बात नहीं की लेकिन यहाँ स्कॉलरशिप पर अलग ही तरीके से बात हो रही थी  ।
इन दो शब्दों ने अभी फिर से एक बार उन दिनों की याद दिला दी । एक मित्र ने अपने ब्लॉग में किसी और संदर्भ में स्कॉलरशिप के नही मिलने की बात की । फिर एक और मित्र ने भी उस पर प्रतिक्रिया दी । उस टिप्पणी, प्रतिक्रिया और पुन:प्रतिक्रिया में यही शब्द हावी रहा । उसमें यह मुख्य रूप से उभर के आ रहा था कि स्कॉलरशिप की एक सत्ता है जो आपको बहुत तरह की स्वायत्ता प्रदान करती है ।
उस बातचीत से अलग होकर भी देखें तो इन शब्दों का अपना अपना समाज स्पष्ट हो ही जाता है । स्कॉलरशिप निश्चित तौर पर अपनी रौबदार उपस्थिती के साथ छात्रवृत्ति को बहुत पीछे छोड़ देता है ।
इधर यू जी सी ने बहुत सारे मित्रों के लिए स्कॉलरशिप की व्यवस्था कर दी । कुछेक को छोडकर लगभग सभी उसे पाते हैं । इसके लिए वे प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा चयनित होते हैं । यह स्कॉलरशिप उन सभी को एक आर्थिक उन्मुक्तता जरूर प्रदान करती है जो पक्के तौर पर किसी छात्रवृत्ति में नहीं होती । मज़ाक में मैंने कई बार अपने दोस्तों को कहा भी है कि आप सभी को घूमने-फिरने के पैसे मिलते हैं और अपने अपने शौक- मौज पूरे करने के भी । कुछ नही तो कम से कम बहुत से किताबों की खरीददारी तो सुनिश्चित हो ही जाती है ।
यह आजादी छात्रवृत्ति शब्द में नहीं है । शब्द के माध्यम से बना बिम्ब शब्द से चिपक जाता है या कहें कि उसके लिए रूढ हो जाता है । हिन्दी का यह शब्द कभी भी छात्रों के लिए लगातार मिलने वाली एक निश्चित राशि का द्योतक नहीं रहा । हर बार वह किसी के प्रथम आ जाने पर , एक खास प्रतिशत में अंक ले आने पर या फिर सरकार द्वारा जनकल्याण के उद्देश्य से चुनिन्दा समूह के छात्रों को कभी कभी ही मिल पाता था । राशि की उस अस्थायी प्रकृति ने उस पर छात्रों का अधिकार ही नहीं होने दिया ।
शब्द अपने अर्थ से बहुत कुछ संचालित करते हैं और जब सत्ता शब्द बदलती है तो उसके माध्यम से बदले हुए शब्द के भाव समाज में आते हैं । एक ब्रांड है सागर रत्ना । इस पदबंध में जो भाव है वह पक्के तौर पर सागर रत्न में नहीं है । एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा की विशेषताओं से जुडने के बाद उस भाषा का समाजशास्त्र किसी न किसी रूप में आता ही है ।
छात्रवृत्ति के पैसे में छात्र की भागीदारी नहीं के बराबर होती है , पहले तो घोषित रुपयों में से कुछ तो रूपय निकलवाने में ही खर्च हो जाते हैं । अभी हाल में बिहार सरकार ने किसी कक्षा के छात्रों को साइकिल और पोशाक के लिए रूपय देने की घोषणा की थी । ये रूपय विद्यालय में रसीद जमा करने पर मिलते । फिर क्या था कपड़ों और साइकिल की दुकानों पर भीड़ लग गयी बिना खरीदे रसीद लेने के लिए । दूकानदारों ने भी इसका फाइदा उठाया केवल रसीद के लिए सौ से डेढ़ सौ रूपय वसूल किए । किसी किसी विद्यालय के प्रधानाचार्य ने अपने ही परिचित की दुकान से रसीद लाने को कह दिया था । ये परिचित अपने हिस्से के लोभ में भी बनाए गए थे । फिर जब पैसे मिले तो उन पर छात्रों का कोई हक़ नहीं रहा सारा बापों के स्थायी खाते में चला गया । इसके उलट स्कॉलरशिप न तो यहाँ मिलती थी और न ही इसने वैसा स्वरूप ही ग्रहण किया । 

2 टिप्‍पणियां:

  1. बदला हुआ लेआउट बढ़िया लग रहा है। ऐसे ही लगे रहो। चीज़ें इससे और स्पष्ट हुई हैं। देखकर आंखे भी थोड़ा तो सुकून पा ही रही हैं। बस अब तो 'लोकेशन' बदल डालो..कब तक दिल्ली पड़े रहोगे..

    और जो छात्रवृति और स्कॉलरशिप वाले समाजशास्त्रीय अर्थों को तुमने खोला है काबिले तारीफ है। अंतर हम भी देख रहे होते हैं। पर ज़रूरत है दृष्टि की। इस दृष्टि को ऐसे ही बनाए रहो।

    और मामा जी के साथ हमारी भी सांत्वना है।

    बाकी तो सब बातें होती रहती है..

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    1. भाई इसीलिए तो दिल्ली पर लिख भी नही रहा हूँ ... दिल्ली को नहीं बलूँगा रहने दो ...

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