मई 15, 2013

विद्यापति को इतना गाते क्यों हो ?


एक व्यक्ति हुए हैं विद्यापति हमारी मैथिली में ! वे अपने कविकाल में जितना प्रसिद्ध हुए होंगे उससे ज्यादा उन्हें हम मैथिल बार बार याद करके प्रसिद्ध करते रहते हैं । इसके पीछे सामने वाले को यह समझाना रहता है  कि हमारा अतीत बहुत समृद्ध रहा है इसलिए हमसे यदि संवाद हो तो इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए । मैं  इसे एक प्रकार का अहंकार कहता हूँ और लगातार इसका विरोध करता आ रहा हूँ इस तर्क के साथ कि हमारे पास जो था वह था पर अभी हम किस स्तर पर हैं इसे निश्चित तौर पर उस विरासत के साथ नही जोड़ा जा सकता । क्योंकि आज जो स्थिति है वह उस विरासत को संभाल सकने लायक भी नहीं है आगे बढ़ाने की बात तो जाने ही दें । इसके बावजूद कुछ स्थितियों में मैं भी उन पुरानी बातों को अपने गर्व के लिए प्रयोग करता हूँ हालांकि इस प्रयोग में विद्यापति का नाम कुछेक नामों के बाद आता है ।


मैं विद्यापति को एक प्रतीक मानता हूँ जिसके माध्यम से मैथिल अपनी पहचान निर्धारित करने की कोशिश करते हैं । यह उनके लिए सरल है । उनके पद्य आसानी से समझ में आ जाते हैं साथ ही उनकी गेयता असंदिग्ध है । ये सब मिलकर उनके पद्यों को लोकप्रिय बनाते हैं । इसके प्रमाण मैथिलों के ज्यादातर गीतों में भनही विद्यापति की उपस्थिती के रूप में प्राती से लेकर सांझ तक में मिलते हैं । एक बात यहाँ समझने में भूल हो सकती है कि ये मिथिला की आम प्रवृत्ति है । जबकि स्थिति इसके अलग है । विद्यापति आम तौर पर शिक्षित मैथिल में ही गाये-पढे जाते हैं । शिक्षा में अभी भी सवर्णों का ही बोलबाला है उसमें भी इसे ब्राह्मण आधिपत्य के साथ जोड़ा जाए तो गलत नहीं होगा । शिक्षा के सिलसिले इधर आम तौर कायस्थ को  ब्राह्मणों के बराबर ही माना जाता है । लेकिन कुछ चुने हुए लोगों को छोड़कर आम स्थिति में यह जाति भी शिक्षा के स्तर बहुत पिछड़ी है । इस तरह से यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि विद्यापति एक ब्राह्मण प्रतीक हैं । उन्हें सवर्ण प्रतीक भी कहा जा सकता है । हालांकि फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आँचल और उनकी कहानी रसप्रिया के प्रसंगों के अनुसार विद्यापति के गीत (विदापत नाच) सवर्णों के अलावा जातीय श्रेणीक्रम में नीचे रख दी गयी जातियों में भी लोकप्रिय प्रतीत होते हैं ।  लेकिन अंततः यह सवर्णों और समर्थों के मनोरंजन के लिए ही था । विद्यापति एक सवर्ण प्रतीक हैं लेकिन ये एक लोकप्रिय प्रतीक भी हैं इसलिए इसके माध्यम से मैथिल संगठन बनाना आसान है । सवर्णों के अलावा लोगों से संबंध जोड़ने में विद्यापति उनके लिए इतने बड़े कर दिए जाते हैं कि उन्हें हीनभावना होने लगती है कि उन्होने विद्यापति को भी नहीं पढ़ा । यही अपराधबोध उन्हें संगठन के लिए कुछ करने की भावना से जोड़ता है । अंततः यह भी सवर्ण नफे का ही काम हो जाता है । इसके बावजूद विद्यापति के नाम पर संगठन से लेकर कार्यक्रमों तक की भरमार लगी रहती है । इनमें से एक है विद्यापति पर्व समारोह जिसे मैथिलों द्वारा मनाया जाता है ।


इस साल महीने भर के अंदर ही दो विद्यापति पर्व समारोह को जानने का  मौका मिला । पहला रांची का । रांची में मैं सशरीर तो नही था पर मेरा भाई उसमें एक कलाकार की हैसियत से शामिल हुआ था । सो बहुत सी बातें उसी के आधार पर जानी और बाद में इसे रांची के रहने वाले एक मित्र ने भी सही ठहराया वह स्वयं भी उस कार्यक्रम में एक दर्शक के तौर पर उपस्थित था । दूसरा यहाँ सहरसा में अभी कल रात ही आयोजित हुआ जिसमे मैं था ही ।

इन दोनों आयोजनों में कुछ समान बातें रेखांकित की जा सकती हैं । नाम भले ही विद्यापति का हो और संगठन भले ही दावा करें कि वे कला-संस्कृति और साहित्य के लिए काम कर रहे हैं और इस आयोजन को उन सब की वार्षिकी के तौर देखा जाए पर यहाँ मंच और उसके नीचे केवल और केवल राजनीति है । कविता , गीत-संगीत , नाटक आदि पर राजनीति की चादर डाल दी जाती है । मंच पर नेताओं को ही बुलाया जाता है । इन दोनों आयोजनों में से किसी में भी मंच पर कोई कलाकार नही था । सहरसा के आयोजन के आमंत्रण पत्र पर तो सिवाय नेताओं के किसी का नाम भी नहीं था और जिन कलाकारों को रात भर जागकर कार्यक्रम करना था उनका तक जिक्र नहीं था । रांची में यह स्थिति नही थी । नेताओं के भाषण में देरी के कारण रांची से लेकर यहाँ तक कलाकारों को बहुत विलंब से मंच मिला । रांची में क्रिकेट के स्टेडियम बनाने वाले पर मंच से बातें होती रही , यहाँ राज्यपाल कॉंग्रेस का और बाकी दल वाले अपने अपने दलों का गुणगान करते रहे ।


अजीब स्थितियां हैं .. जब नेता मंच से उतरते हैं तो दर्शकों को अश्लील गाने चाहिए , जो लड़की कम कपड़े में नृत्य और गीत गाने आए उसी को बार बार बुलाने की फरमाइश । नाटक यदि हो तो उसका कोई मतलब नही है , ज़ोरों की हूटिंग  की जाती है एक दल यदि बेशर्म होकर नाटक कर भी दे तो बाद के दलों को भगा दिया जाता है ... आयोजक शराब पीकर कोने में पड़े रहते हैं ... पुलिस नेताओं के पीछे पीछे चल देती है ।
विद्यापति के नाम पर भावनात्मक ब्लेककमेलिंग से लोगों को तो जोड़ना तो आसान हो सकता है पर जिन उद्देश्यों को लेकर ये संगठन बनाए जाते हैं वे उद्देश्य कभी पटल पर आ ही नहीं पाते । 

2 टिप्‍पणियां:

  1. kafi sahi aakalan kiya aapne vidyapati ki virasat ka aur unke davedaron ka...mai bhi kucch had tak yahi manata hun ki hamari sahityik aur sanskritik prateeko ke naam par jo ghatiya rajniti hoti hai vo band honi chahiye aur ek saaf suthari sanskritik andolan ho jisse ham maithil mulyo ko sarvsangat aur sabhi vargo ke liye asthapit kar sake...

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    1. यह राजनीति के साथ साथ स्वार्थ का मुद्दा भी है संतोष जी ...

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स्वागत ...

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