दिसंबर 30, 2013
प्रदर्शन से जरूरी संबंध
दिसंबर 25, 2013
ग्लोरीफिकेशन ऑफ ए फेज़ : भाग दो
ग्लोरीफिकेशन ऑफ ए फेज़ : भाग एक
दिसंबर 07, 2013
गुंटूर और आसपास !
इधर दक्षिण भारत में भाषा का मामला बड़ा तगड़ा है । जरा सा हिलना हुआ नहीं कि एक नई भाषा सामने आ गयी । और जब से इस नवोदय की नौकरी में आया हूँ तब से घूमना फिरना कुछ ज्यादा ही हो रखा है । बल्कि ये इधर उधर जाना इसी नौकरी में आने के बाद संभव हुआ है । स्कूल में लोग कहीं जाना नहीं चाहते पर अपने को यह देश देखने का अवसर ही नजर आता है । इसलिए जब भी मेरा नाम आता है ख़ुशी ही होती है कि चलो जी एक और जगह देख लेंगे । यह ख़ुशी गुंटूर आने के नाम पर भी हुई पर जो यहाँ आ चुके थे उन्होंने कहा था कि बहुत बेकार सी जगह है । उस समय यह पता नहीं था कि गुंटूर ऐसा भी हो सकता है इसलिए ख़ुशी बहुत देर टिक नहीं पाई थी ।
जहाँ हमें ठहराया गया है वह स्टेशन के करीब ही है बीच शहर में । नवोदय में रहते हुए कुछ भी बीच शहर सा मिल जाये तो बड़ी बात होती है । स्टेशन से जब यहाँ पहुंचे उस समय कोई नही था सिवाय एक कुत्ते के जिसने हमें देखते ही भौंकना शुरू कर दिया । कुत्ते की आवाज सुनकर एक सज्जन ऊपर छत पर आये । हम तीन थे और सभी उत्तर भारतीय जिनका मुंह खुलता ही हिंदी में है और ऊपर वाले सज्जन पता नहीं कौन सी भाषा बोल रहे थे । फिर उनकी टूटी हुई हिंदी और हमारी टूटी-फूटी अंग्रेजी में जो संवाद बन पाया उसके अनुसार यही जगह थी जहाँ हमें ठहरना था और जहाँ हमारी ट्रेनिंग होनी थी ।
छिः ऐसी जगह में रहेंगे हम । मेरे साथ साथ सबके यही भाव थे । बहुत पुराना घर उसी में दीवारें डालकर छोटे छोटे कमरे बना रखी हैऔर सबसे ऊपर लकड़ी की सीढ़ी जिसका प्लेटफोर्म भी लकड़ी का ही है । भीतर दीवारों पर पुरानी पड़ती श्वेत श्याम तस्वीरें जो यह बताती थी कि यह घर कुछ ऐतिहासिक महत्त्व रखता है । बाद में पता चला कि यह घर आजादी के आन्दोलन में खासकर आंध्र प्रदेश का केंद्र था जहाँ बड़े बड़े लोग आकर ठहरते थे और आन्दोलन को आगे बढ़ने पर विचार विमर्श करते थे । बाद में यह संपत्ति इसके मालिक ने देश को दे दी और देश ने नवोदय को अपना ट्रेनिंग सेंटर चलाने के लिए ।
हम पहले आनेवालों में से थे और कमरे खुलवाकर अपने लिए बढ़िया जगह तलाश कर सकने वालों में से भी । कमरों का छोटापन और उनमें तैर रही घटिया सी गंध और मच्छरों की भरमार ने सबसे पहले यही सोचने को विवश किया कि ठीक है यह एक ऐतिहासिक स्थान है पर यहाँ इस सडी सी जगह में हमें ठहराने का क्या अर्थ है । यह सही बात है कि हम इस जगह को पाकर दुखी थे पर देश के इतिहास का हिस्सा बनने का भाव तो था ही । जिस कमरे में हमने अपना सामान लगाया बताया जाता है कि उसमें महात्मा गाँधी सोये थे । यह और कुछ दे न दे एक रोमांच तो देता ही है । उसी रोमांच पर टंग कर हमने संतोष करना चाहा कि मच्छरों ने बता दिया कि इस घर पर उनका अधिकार वर्षों से है । तभी एक मित्र ने चुटकी ली कि ये मच्छर महात्मा गाँधी को काटने वाले मच्छरों के वंशज हैं । हंसी छूट गयी और इसके साथ ही भूखे होने का एहसास भी होने लगा ।
नहा -धोकर निकले तो किस दिशा में खाना ढूंढने जाएँ यही तय करने में समय लग गया । वो कहते हैं न ज्यादा जोगी मठ उजाड़ वही वाली मिसाल सामने आ गयी थी । खैर किसी तरह एक सड़क पकड़ी तो पता ही न चले कि खाने की दुकानें कौन सी हैं । और पता करने जाएँ तो हमारी भाषा आड़े आ जाये । हमने बहुत कुछ ट्राई कर लिया था यहाँ तक कि जो थोड़ी बहुत मलयालम सीखी वो भी लगा दिया । फिर भी वह भाषा न बना पाए जो हम किसी को सामझा सकें और कोई समझ सके । बड़ी मशक्कत के बाद एक ने एक दुकान का रास्ता बताया और जब वहां गए तो वह भी बंद थी । आंध्र प्रदेश जबसे बंटने के रस्ते पर चढ़ा है तब सइ यहाँ दुकानों का बंद होना सहज सा लगता है । खैर पैदल चलकर भूख और अगले स्तर पर चली गयी थी आगे एक दुकान दिखी और हम घुस गए । उस दुकान में हम क्या खाते यह समझाने में बहुत समय लग गया और आगे हम जब भी बाहर गए यह हमारी मुख्य समस्या बनी रही ।
किसी तरह खा कर बाहर आये और पेट भरते ही हमारी इच्छाओं ने हिलोरें मारनी शुरू कर दी कि दिन भर के फ्री टाइम का उपयोग करने के लिए यहाँ कोई देखने योग्य जगह है तो देख लिया जाये । यह पता करने में भी भाषा आड़े आ गयी । पर भाषा इस बार हमसे ज्यादा देर तक खेल न सकी । अपने एक साथी को जनकारी थी कि यह समुद्र से ज्यादा दूर नहीं है सो उन्होंने वही पूछा और जवाब भी सकारात्मक मिला । 50 किलोमीटर के बाद समुद्र । वही जो बांछें होती हैं खिल गयी । हम वापस उस ऐतिहासिक भवन की और न गए और न ही उन मच्छरों के वंशजों के पास जिन्होंने गांधीजी को काटा था ।
बस वाले ने हमें जहाँ उतारा वहां से समुद्र पांचेक किलोमीटर रहा होगा जो दूरी निश्चित रूप से तिपहिये से की जानी थी । उससे पहले हमने बहुत से संतरे बिकते देखे । एक अम्मा के खोमचे के पास पहुंचे और उनसे संतरे का रेट पूछा । उन्होंने अपनी भाषा में पता नही क्या समझा । कुछ बोली और कुछ इशारा किया जो हमें समझ नहीं आया । उन्होंने फिर कोशिश की हमें फिर समझ नही आया । फिर उन्हें ही एक युक्ति सूझी । अपनी अंटी से एक पचास का नोट निकाला और छह संतरे सामने रख दिए । हमें भक से समझ आ गया । अब एक बार समझ में आ गया तो मेरी मोलभाव की आदत जाग गयी । सोच लीजिये कितना कठिन रहा होगा पर साहब किसी तरह उँगलियों को बारह से घटाकर दस तक लाया और वो छह से बढ़कर दस तक आयीं उन्होंने भी ऊँगली का ही सहारा लिया । और जब संतरे चुनने की बारी आई तो 'बिग' और 'टाईट' हमने कई बार बोला । वहां कुछ और स्त्रियाँ थी ।
तिपहिये वाले ने जहाँ उतारा वहां से समुद्र दिख रहा था । धूप में उठती लहरें और उनकी आवाज और उन आवाजों में भीगते खेलते लोग-लुगाईयां । हम बिना किसी तयारी के आ गए थे । अब इस धूप में तैयारी करने लगे । वहां हमलोग सबसे अलग लगते होंगे । हाथों में अपने कपडे जूतों के थैले लेकर यहाँ वहां फिरने वालों में केवल हम ही थे ।
यूँ फिरते फिरते भूख लग आई थी । पर बहुत तलाश करने पर खाने में तली हुई मछलियों के अलावा कुछ भी नहीं था । हम जब वहां पहुंचे तो वहां भी हमारी भाषा हमें पहुँचने से रोकने लगी । उस जगह कई स्त्रियाँ थी और पहली बार हमने यह देखा कि वे हम पर तरस खा रही थी ।
उस दिन के बाद से आजतक चार पांच दिन हो गए । यहाँ कई बार बाहर जाना हुआ और कई बार ये महसूस हुआ कि हम यहाँ भाषा के मामले में कितने अज्ञानी से हो गए हैं । खाने पीने से लेकर जरूरत के सामानों तक के लिए यदि बाहर गए तो भी भाषा नहीं समझ पाने का और दूसरों को न समझा पाने का दुःख बना रहता है ।
एक शहर में कुछ दिन
पिछले कुछ दिनों में एक बात ने बहुत परेशान किया है कि भई कितनी भाषाएं जानी जाएँ । कितनी कि काम चल सके । जब बहुत ज्यादा यात्रा करनी हो तो यात्रा के हिसाब भाषा का गंभीर असंतुलन पैदा हो जाता है । उस समय उन तमाम दावों और दलीलों की हवा निकल जाती है जिनमें यह कहा जाता है कि भारत में हर जगह हिंदी समझी जाती है और सबसे बड़ा तो ये कि अंग्रेजी विश्वभाषा है । इन यात्राओं में हमने देखा कि न तो विश्वभाषा काम देती है और न ही देश की संपर्क भाषा । तब लग जाता है कि यार हम तो जो भाषा सीख लें लेकिन वह हमेशा काम देंने वाली नही है । इधर यात्रायें बहुत की हैं और ये यात्रायें ऐसी हुई हैं कि ज्यादातर दक्षिण भारत के भीतरी इलाकों में जाना पड़ा है । एक बार को दक्षिण भारत के बड़े शहरों में अंग्रेजी बोल के काम चला लिया जाये पर उन शहरों के कुछ किलोमीटर दायें बाएं निकल गए तो साहब फिर शहर क़स्बा या गाँव कुछ भी हो आप समझाते रह जाओ सामने वाले भी समझाते रह जायेंगे । अंतिम किस्सा तो जनाब इसी आंध्र प्रदेश का है जहाँ अभी टिका हुआ हूँ ।
उस किस्से पर जाने से पहले थोड़े समय में इस शहर और इसकी संभावनाओं को देखते हैं जो शायद इसलिए जरुरी जान पड़ता है कि ये शहर दक्षिण के उन शहरों में से है जिसका जिक्र बहुत ज्यादा नहीं आता है ।
एक शहर है गुंटूर । वैसा ही जैसा एक शहर हो सकता है । बहुत सी गाडियों की चीख पुकार , उनकी एक दुसरे से आगे निकल जाने की होड़ और उनके बीच से स्कूटी से निकल जाती खुशनुमा चेहरे वाली युवती सब है इस शहर में । हाँ इस बीच बड़ी - छोटी दुकानों और लाइन से लगे कोचिंग संस्थानों की भीड़ भी है । इन कोचिंग में भीड़ सी लगी देखी है सुबह सुबह और उन चेहरों में कहीं अपना चेहरा तलाशने की कोशिश की जो पंद्रह साल पहले इसी तरह इंटर की कोचिंग के लिए सहरसा की गलियों में घूमता था । छात्रों के चेहरों पर वही किशोर भाव लेकिन यहाँ दबाव ज्यादा दिख रहे थे । हो सकता है ऐसा ही दबाव सहरसा के कोचिंग जाने वाले छात्रों पर रहा हो लेकिन चूँकि बहुत दिनों से वहां गया नही इसलिए उन भावों की कोई जानकारी नहीं है । आगे ये दबाव बहूत सी परीक्षाओं के पास करने की है । नौकरी कम हुई लेकिन बहुत सी नयी परीक्षाएं आ गयी और उनकी तैयारियों के लिए कोचिंग ।
कोचिंग के बोर्ड पर सबकुछ तेलुगु में लिखा है पर बैंक, एसएससी ,आइ बी पी एस आदि अंग्रेजी में । ये सब अंग्रेजी में लिखकर क्या सन्देश दे रहे हैं यह जानना बहुत कठिन नहीं है । ये तो उस सपने के लिए है जिसको पूरा करना अंग्रेजी के हाथ में माना जाता है । हिंदी हो या कि तेलुगु मैं इन सबको हाशिये से ऊपर की भाषा नहीं मानता हूँ और शायद इससे ज्यादा इन सबकी स्थिति है भी नहीं । तेलुगु में आदमी सपने तो देख सकता है लेकिन उन्हें पूरे करवाने की हैसियत इसकी नहीं रही । इसकी ही क्यों किसी भी भारतीय भाषाओं की यह औकात नहीं रह गयी कि सपनों को पूरा करने में मदद कर दे ।
भारतीय भाषाएँ बहुत जल्दी से अपनी हैसियत खोती जा रही हैं । हम चाहे लाख अपनी भाषा को लेकर उठते बैठते रहें पर ये सब अब कुछ कौड़ियों के बराबर हैं । यहाँ ये कौड़ियाँ चिनुआ अचबे के अफ्रीका की तरह ही है जहाँ स्थानीयता ने बड़ी जल्दी अपना स्वाभिमान खो दिया । यहाँ गुंटूर के कोचिंग सेंटरों को मैं उन दुकानों की तरह देख रहा हूँ जहाँ पौ फटते ही सपनों की बिक्री शुरू हो जाती है और खरीददार इस भाव में आते दीखते हैं कि सपना अब पूरा हुआ कि तब । पर यह इतना ही सहज होता तो कोचिंग सेंटर वाला भी कोचिंग के बदले सरकारी नौकरी ही कर रहा होता ।
गुंटूर को बचे हुए आंध्र की राजधानी के काबिल माना जाता है इसलिए लोग कहते हैं कि जबसे राज्य के विभाजन की बात चली है तब से इन कोचिंग सेंटरों ने कमर कस ली है वह भी इसलिए कि राजधानी बने तब तो जरुरत है ही पर यदि विजयवाड़ा से राजधानी की लड़ाई हारने की नौबत भी आ जाये तो भी दोनों के बीच की कम दूरी इस शहर को बहुत महत्वपूर्ण बनाये रखेगी । उस स्थिति में और कुछ चाहिए न चाहिए अंग्रेजी चाहिए । क्योंकि गुंटूर में सिकंदराबाद बन्ने की क्षमता देख रहे हैं कोचिंग वाले । इसलिए वे अपने यहाँ अंग्रेजी सिखाने की विशेष व्यवस्था कर रहे हैं । इन बहुत सी स्थितियों में कोचिंग कोई धर्मार्थ काम नही कर रहे बल्कि एक और नया भ्रम बेचकर पैसे पीट रहे हैं । और इस पूरी प्रक्रिया में स्थानीय भाषा पीछे छूट रही है ।
पर इसी गुंटूर में इसी बाज़ार को अपने लिए तेलुगु भाषा को इस्तेमाल करते हुए भी देखा जा सकता है । हालाँकि बाजार के सम्बन्ध मं यह कोई नयी बात नहीं है लेकिन वही तेलुगु बाजार के दबाव में लोगों के संदर्भों से बाहर हो रही है और दूसरी तरफ वही स्थानीय भाषा बाजार की मांग के दबाव में बहुराष्ट्रिय कंपनियों की संपर्क भाषा बन रही है । सभी बड़े ब्रांड यहाँ तेलुगु में अनूदित होकर लोगों को बाजार तक लाने का कार्य कर रही है । इससे भी घाटा भाषा का ही है और फायदा बाजार का । लेकिन इसकी यह जटिलता इस स्थानीय भाषा को सीमित कर रही है जहाँ कुछ ही शब्द होंगे जिनसे काम चलाया जायेगा और बहुत सी स्थितियों के लिए न तो संबोधन रह जायेंगे और न ही नाम पर कोचिंग और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ उसी तरह काम करती रहेंगी जैसे पहले करती थी ।
इस शहर का होना इसके बड़े या कि छोटे होने में नहीं है बल्कि विजयवाड़ा के पास होने में है । जैसे जैसे गुंटूर के राजधानी बनने की उम्मीद कम होगी इसके विकास की सम्भावना बढ़ेगी । क्योंकि विजयवाड़ा के पास फैलने का स्कोप नहीं है और गुंटूर अभी बढ़ रहा है जो ज़ाहिर है सबको आकर्षित करेगा ही । उस बैकड्राप में यहाँ का भाषाई संतुलन बहुत कुछ कहता है । इतना कि भाषा जिन्दगी बदलने वाली बन जाय । कोचिंग संस्थान तेलुगु को 'रिप्लेस' करने में लगे हैं ताकि वे अपने बाजार को एक 'मोमेंटम' दे सकें ।
यह शहर बहुत सी संभावनाओं से भरा है पर जहाँ तक उन संभावनाओं की बात है वह यहाँ की स्थानीयता की कीमत पर टिकी है । अब देखने की बात रह जाती है कि यह स्थानीयता जो टूटनी शुरू हो गयी है कहाँ तक अपने को बचा पाती है । कल थोड़ी बहुत घुमा फिरि और बातचीत के बीच ऐसे लोगों की भरमार देखी जो 'सॉफ्ट स्किल' 'लाइफ स्किल' सीखने की बात कर रहे थे । पता नहीं क्यों वे इस बात पर जोर दिए हुए हैं कि यहाँ के बच्चों में इन सब की कमी है । ये अमेरिकी चिंतन को सीधे लागू कर देते हैं बिना यह सोचे कि ये गुंटूर है ! कम से कम हैदरबाद भी होता तो मान लिया जाता कि अब बच्चों पर से माँ बाप का ध्यान हट गया है और वे बहुत व्यस्त हो गए हैं । यहाँ तो ससुरा बाप कुछ काम धाम ही न करता तो किस बात का व्यस्त भैया । खैर ये इन कोचिंग वालों और चंद मनेजमेंट वालों के सपनों को पूरा करने वाला शहर बन रहा है तो चाह कर भी इसे कोई आयातित मानसिकता से बचा नही सकता क्योंकि प्रभावित करने वाली स्थिति में वही हैं ।
नवंबर 29, 2013
खलनायकों का साहित्य में स्वागत
आगे यह बताते चलें कि उधर सहरसा जेल में बंद आनंद मोहन भी कवितायेँ लिखता है । फांसी की सजा पाया वह व्यक्ति कल को जेल से रिहा होकर किसी नामवर या कि किसी अन्य सिंह से अपनी किताब का विमोचन करवा लेता है तो क्या हम उसे मार्क्वेज़ बना दें ? लोग इस बात को लेकर उठबैठ रहे हैं कि पप्पू ने अपनी किताब में खुलासे किए है । मेरे लिए यह जानना जरुरी है कि क्या उसने ऐसे खुलासे किए हैं कि उसने कितने निर्दोष को मारा या उसके अन्याय किया । क्या वह अपने को एक अपराधी स्वीकार करता है ? इनका उत्तर नहीं में ही होगा । बस ये है कि पैसे के गणित को राजनीति की कॉपी पर बनाने का समय है तो सब साहित्यकार हो जाएँ और आपलोग जिसको चाहें स्थापित कर दें ।
नवंबर 24, 2013
सौंवी पोस्ट
हिंदी हिंदी के शोर में
हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...

-
घर के पास ही कोई जगह है जहां किसी पेड़ पर बैठी कोयल जब बोलती है तो उसकी आवाज़ एक अलग ट्विस्ट के साथ पहुँचती है । कोयल मेरे आँगन के पे...
-
फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी है 'रसप्रिया' एक बहुश्रुत रचनाकार की बहुत कम चर्चित कहानी । इस कहानी का सबसे बड़ा घाटा यही है कि यह रेण...
-
बचपन से ही कौवों को देखता आ रहा हूँ । हाँ , सभी देखते हैं क्योंकि वे हैं ही इतनी बड़ी मात्रा में । वही कौवे जो कभी रोटी का टुकड़ा ले के...