अप्रैल 08, 2012

जो देना है अभी दे दो बाद में तुम अपने घर हम अपने घर ।

सुबह सुबह शोर से नींद खुल गई है । आँखें मुँह फुलाये बैठी हैं - उन्हें और सोना है । पर क्या किया जा सकता है जब नीचे इतनी आवाजें आ रही हों उसमें सोया भी तो नहीं जा सकता । ये चिल्लम-चिल्ली निगम चुनाव के उम्मीदवारों ने मजा रखी है । सुबह सुबह जब लोग नींद में ही हों तब आकर इतनी आवाजें की जाए कि बंदा उठ जाए और समझ जाए कि ये कौन कर रहा है और क्यों कर रहा है । आज के दौर में हर जगह प्रतियोगिता का राज है , दूसरों से पहले स्वयं पहुँच जाने की इच्छा । विज्ञापन की दुनिया की तरह नये से नया तरीका ढूँढना इस समय की पहचान ! चुनाव है तो इसमें भी यही । आज मतदाता को जरूर महसूस हो गया होगा कि वह महाभारत के उस दृश्य में जी रहा है जहाँ वह गहरी नींद में सो रहा है और युधिष्ठिर - दुर्योधन उसके नींद से बाहर आने का इंतजार कर रहे हैं । एक बार को बड़ा अच्छा लगता है सोचना कि मतदाता इतना महत्वपूर्ण तो है ही कि उसके लिए इस तरह से किया जा रहा है । पर क्या यह ऐसा है ? इस व्यस्त से समय में मुश्किल से अपनी नींद के लिए अवकाश निकाल पाता है और उसके नितांत व्यक्तिगत पलों में उसे व्यक्तिगत नहीं रहने देने की कवायद की जाती है । बहरहाल नींद तो गई तेल लेने । मैंने गैलरी में जाकर देखा तो बड़ा ताज्जुब हुआ कि एक साथ इतने सारे बच्चे हाथों में खास पार्टी का चुनाव चिन्ह ले कर आगे आगे नारे लगाते चल रहे हैं । वे बच्चे किसी भी तरह से इस मोहल्ले के नहीं लग रहे हैं । प्रत्याशी के और उनके रिश्तेदारों के बच्चे हों इसकी संभावना तो प्रत्याशी को देखकर नहीं लगती । कम से कम जो काला चश्मा मैडम चढ़ा रखा है उसे देखकर तो पक्का कहा जा सकता है कि ये बच्चे उनके और उनके रिश्तेदारों के नहीं हैं । मैं नहीं जानता कि ये बच्चे कहाँ के हैं पर इसी तरह के बच्चों को कई बार विश्वविद्यालय मेट्रो पर दो दो रुपए माँगते देखा है ।
अभी परसोँ दिल्ली विश्वविद्यालय के आसपास घूम रहा था तो देखा लगभग सौ की संख्या में महिलाएँ किसी खास पार्टी के पर्चे बाँट रही थी । एक ही प्रकार के आर्थिक परिवेश की झलक उन स्त्रियों से क्यों आ रही थी , जिस इलाके में मैं घूम रहा था वहाँ इस आर्थिक समूह की स्त्रियाँ रहती ही नहीं है और जब मैं बस से यमुनापार आता हूँ तो वो प्रचार करने वाली स्त्रियों की तरह ही दिखने वाली स्त्रियाँ इस तरह की बातें कि 'आज यहाँ गए वहाँ गए ' '250 रुपए कम दे रहे हैं ' ' कितना भी खर्च कर ले जीतेगा नहीं' क्यों करती नजर आती हैं ये समझ पाना बहुत कठिन नहीं है ।
कल शाम बाल बनवा रहा था और वहीं पास में एक चुनावी सभा हो रही थी जिसमें स्थानीय विधायक भी उपस्थित थे । उन्होंने तमाम सूचना दी कि फलाँ दल के प्रत्याशी ने जब से पर्चा दाखिल कराया है तब से आफिस में दिन रात खुल्ला खाना दे रहे हैं , वो वाला शराब बाँट रहा है और ये निर्दलीय नोट ! जब उन लोगों की चुनावी सभा खत्म हुई तो उद्घोषक ने वहाँ बैठे लोगों से अनुरोध किया कि वे थोड़ी देर और बैठें उनके लिए नाश्ते की व्यवस्था की गई है ।
देश की चुनावी राजनीति, देश की दशा से बहुत आगे चली गयी है । अब यह मतदाता और नेता दोनों ही स्तरों पर माना जा चुका है कि इस गरीबी या महँगाई या कि सड़क आदि का इलाज किसी के पास नहीं है । ऐसी स्थिति में दोनों ही एक ने तरह के संबंध में बँध रहे हैं और यह है तात्कालिक और व्यक्तिगत फायदे का संबंध । जो देना है अभी दे दो बाद का झंझट ही क्यों पालें ! इस बीच एक नए तरह का वर्ग भी उभरा है जो चुनाव प्रचार के लिए एक तरह से 'स्किल्ड लेबर' का काम कर रहा है । ये दिखने में भले ही लुंजपुंज , गंदे दिखते हों पर इनमें एक प्रोफेशनल के गुण भरे पड़े हैं एक बार यदि पैसा लिया तो उसकी पूरी कीमत भर काम करते हैं । यह स्थिति भी एक तरह से लोकतंत्र के हित में ही है । पैसे का किसी रूप में सही नीचे की ओर प्रवाह हो तो रहा है । पहले जहाँ दूर दराज से ऐसे लोगों को चुनाव -प्रचार के लिए केवल 'पेट-भात' पर पकड़ लाया जाता था उससे तो स्थिति बदली है ।

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