मार्च 13, 2016

रामक्कलमेड़ : किवंदन्तियों से बचपन के सपनों तक



पहाड़ की उस अंतिम ऊँचाई से मैं नीचे देख रहा था । नीचे दूर दूर तक फैले खेत थे । खेत यूं कटे हुए थे जैसे लगता था कुछ बच्चों ने खेल खेल में ढेर सारे ब्रेड के टुकड़े करीने से बिछा दिए हों फिर उस पर हरी हरी चटनी डाल रखी हो । खेतों में खड़े नारियल और केले के पेड़ ऊपर से ब्रेड पर बिछाई चटनी की परत जैसे लग रहे थे । वहीं खड़े खड़े यह भी महसूस हुआ कि मैं अपनी छत पर खड़ा पड़ोसी के आँगन में झाँक रहा हूँ । केरल में खड़े पहाड़ की न सिर्फ ऊँचाई की अंतिम सीमा पर मैं खड़ा था बल्कि पहाड़ के सूत भर आगे से तमिलनाडु फैला था । दो राज्यों को अलग करने वाले पहाड़ की चोटी का रोमांच अलग था और डर अलग । 

मैं वहाँ से गिरता तो यकीनन तमिलनाडू में ही लेकिन जीवित नहीं बचता । पश्चिमी घाट की चोटियों की बनावट ही कुछ ऐसी है कि आसपास में सबसे ऊंची चोटी सबसे अलग थलग ही खड़ी होती है । इसलिए उस पर चढ़ते हुए जरा भी आभास नहीं हुआ कि दूसरी तरफ़ से पहाड़ थोड़ा थोड़ा ढलते हुए नहीं उतरता है बल्कि दीवार की तरह खड़ा ही रहता है । दूसरे कोण से देखने पर वह हिस्सा ऐसा लगता है जैसे उससे लगा कोई और पहाड़ हो जो कहीं चला गया हो ।

उस ऊँचाई पर हवा बहुत तेज़ थी लेकिन धूप उससे भी तेज़ । जितनी मशक्कत से मैं ऊपर चढ़ा उससे ज्यादा मशक्कत मुझे वहाँ बने रहने में करनी पड़ रही थी । इसके बावजूद वहाँ सबसे ऊँचे बिन्दु पर होने का एहसास अलग ही आनंद दे रहा था । चोटी अपेक्षाकृत चौरस थी और उसका विस्तार इतना था कि तीस चालीस लोग एक साथ सो सकते हैं । पर वहाँ सोने की हिम्मत कौन करे ! वहाँ मेरा होना मुझे इतना सुकून दे रहा था कि मैं वहाँ जितनी देर रहा उतनी देर पहुँचने में लगी मेहनत और वापसी की आनेवाली मुश्किलों से बिलकुल निश्चिंत ही रहा ! एक तरफ़ खुले खेत और दूसरी तरफ़ एक साथ लगी कई सारी पहाड़ी चोटियाँ । यह रामक्कलमेड़ था ।

रामक्कलमेड़ के बारे में कहा जाता है कि त्रेता युग में वहाँ रामचंद्र अपने भाई लक्षमण के साथ सीता को खोजते खोजते गए । किंवदंती यह भी है कि जिस सबसे ऊँची चोटी पर मैं चढ़ा था उसी पर चढ़ कर राम ने सीता को आवाज़ लगाई थी – सीता कहाँ हो तुम .... सीता ! चढ़ा मैं भी था और आवाज़ मैंने भी लगाई थी पर सीता को नहीं ! और मेरे साथ आज कोई लक्षमण भी तो नहीं था ! हालत यह थी कि वहाँ चोटी पर मेरी फोटो लेने तक के लिए भी कोई नहीं था । हालाँकि जहाँ जहाँ लोग मिले मैंने खुल के उनसे अपनी तस्वीर लेने में सहायता मांगी लेकिन चोटी पर देर तक कोई आया नहीं ।

सुबह जब स्कूल से निकला था तो यहाँ अंधेरे में उजाला तेज़ी से घुल रहा था । इसके बावजूद ऊपर जो पक्षी उड़ रहे थे वे एक काली छाया सी ही लग रहे थे और जो पेड़ों पर छिपकर आवाज़ें निकालते रहते हैं उनको तो भूल ही जाइए । इतनी सुबह इसलिए निकला था कि वह बस पकड़ में आ जाये जो सीधी रामक्कलमेड़  तक जाती है । बस आयी मैं चढ़ भी गया लेकिन टिकट लेते वक़्त पता चला कि यहाँ से कोई सीधी बस सेवा अब नहीं है । आधे रास्ते तक की बस थी उसके बाद मुझे अगली बस मिलती जो मंजिल से करीब पंद्रह किलोमीटर पहले छोडती ।
अनजान जगह पर जा रहे हों , सबकुछ तय कर के चले हों और रास्ते में आपको पता चले कि वहाँ जाने के साधन के बारे में आपके पास कोई खबर नहीं है । हालाँकि उस रास्ते पर एक ही बस के होने से यह अंदेशा तो था कि वह न आए तो क्या । लेकिन मैंने कभी इस बारे में सोचा नहीं । ऊपर से सुबह का पहाड़ी रास्ता ।

मुझे इन रस्तों पर सुबह सुबह की यात्रा बहुत अच्छी लगती है । रास्ते पर आवश्यक रूप से धुंध होती है ।  कहीं यदि आपका वाहन रुक गया तो आप बाँस के पेड़ों से गिरती बूंदों की आवाज़ भी सुन सकते हैं । जरा और आगे बढ़ गए तो कभी सामने तो कभी दायें और कभी बाएँ से सूरज दिखाई देगा क्रमशः लाल से पीला होते हुए । लाल पीला होना एक मुहावरा भी है न !

दिन कितना भी गरम हो लेकिन सुबह हल्की ठंड जरूर लगती है । उस समय आप बस में या आसपास नजर दौड़ाएँ और कोई दिख जाये तो आप पाएंगे कि उसने कैसे बस की खिड़की बंद कर रखी , कैसे कान को ढँकने के लिए कनझप्पा लगा रखा है । आपको उस आदमी को देखकर तो बहुत हँसी आएगी जिसने स्वेटर , मंकी कैप आदि डाल के केरल को बाक़ायदा कश्मीर बनाने की कोशिश की हो । क्या करेंगे पर ऐसे लोग होते हैं जो सुबह की जरा सी ख़ुशनुमा हवा भी झेल नहीं पाते ।

ऐसी यात्राओं में मैं बहुत कम बस के भीतर देखता हूँ । मेरी आँखें बस लगातार पीछे जाते दृश्यों को समेटने में लगी रहती हैं । बस जब इलायची के खेतों के बीच से गुजरी तो जरा सी महक नहीं आयी । और उसी रास्ते में आज मैंने भारतीय इलायची अनुसंधान संस्थान भी देखा । किस किस तरह के अनुसंधान संस्थान होते हैं ! यहाँ इलायची है तो कहीं बैंगन अनुसंधान संस्थान भी होगा कानपुर और नागपूर की तरह !  चलिए अब यह संस्थान है तो इसे इस बात का अनुसंधान जरूर करना चाहिए कि कई किलोमीटर तक दोनों ओर फैले इलायची के खेतों के बीच से गुजर जाने पर भी जरा सी महक क्यों  नहीं आयी । आइए हमारे हमारे धान के खेतों के बीच से गुजरकर, महसूस होगा कि कहीं से आए हैं । मन महमह कर उठेगा !

हाँ इस बीच यह बताना भूल गए कि पहली बस ने जहाँ उतारा था वहीं थोड़ी बहुत पूछताछ करके आगे के रास्ते का खाका बन गया । थोड़े से इंतज़ार के बाद एक बस भी मिल गयी । उस थोड़ी देर के इंतजार में मैंने एक कंघी खरीदी , थोड़े से संतरे खरीदे और सबसे बड़ी बात कल का पका हुआ दालवडा खाया जिसे दुकानदार ने आज बस तेल में डालकर गरम किया था । यह मुझे पता नहीं चलता लेकिन मैंने देख लिया ।  दुकानदार मेरी उपस्थिती से बेपरवाह पुरानी चीजें बारी बारी से कड़ाही में डाल कर निकाल रहा था । यह कोई नयी बात नहीं है सहरसा , पटना दिल्ली से लेकर चंडीगढ़ तक में मैंने दूकानदारों को ऐसा करते देखा है !

ऐसे कहने के लिए तो रामक्कल में तीन ही चीजें हैं ।  उन तीन प्रसिद्ध स्थानों के अलावा पूरा का पूरा लैंडस्केप आपका मन मोह लेने के लिए तैयार बैठा है । जिन्हें ट्रेकिंग का शौक न हो वे वहाँ न जाएँ क्योंकि वहाँ जो भी आनंद है चोटियों पर ही है । तीन में एक से तो परिचय करवा ही चुका हूँ , अरे वही ऊँची चोटी जहाँ से राम ने अपनी पत्नी को उसकी गुशुदगी के दौरान आवाज़ लगाई थी । वहाँ का दूसरा आकर्षण है ‘कुरुती – कुरुवन’ की प्रतिमा। 

कुरुती कुरुवन स्थानीय युगल थे जिन्होंने इडकी डैम की नींव रखी थी । दूसरी ओर की पहाड़ी की चोटी पर यह प्रतिमा बनी है और यहाँ तक जाने के लिए 10 रूपय भी चुकाने पड़ते हैं  लेकिन अपनी विरासत को जिंदा रखने की यह अदा है बहुत प्यारी ! कुरुती –कुरवन की प्रतिमा वाली पहाड़ी पर मैं सबसे पहले गया । वहाँ से राम द्वारा आवाज़ लगाने के लिए इस्तेमाल की गयी पहाड़ी ठीक सामने थी लेकिन काफी दूर थी । दोपहर की उस धूप में जब मैंने वहाँ जाने का निश्चय किया तो पहले ही एक पहाड़ी पर चढ़ने से थक गयी टांगों का खयाल आया । वहीं एक पेड़ के नीचे बैठकर मैंने दो – तीन संतरे निपटा दिए और उसके छिलके डाल दिए पेड़ की जड़ में ताकि जब वे छिलके खाद बनकर पेड़ की तह में पहुंचेगा तो पेड़ को मैं याद आऊँगा । राम आया हो या न आया हो पर मेरे आने का एहसास पेड़ को जरूर रहेगा !

ढलान पर उतरना मुझे हमेशा से खतरनाक लगता रहा है । चढ़ते वक़्त तो केवल फिसलने का डर रहता है लेकिन उतरते हुए पहाड़ भी धकेल रहा होता है । मेरे आगे आगे एक प्रेमी युगल चल रहा था । वे तो थोड़ी दूर जाकर दौड़ने ही लगे । बाद में मैंने देखा वे एक पेड़ के नीचे रुककर लड़की की टूटी चप्पल को बांधने की कोशिश कर रहे थे । पहाड़ी से उतरते हुए यदि आपने जूते पहन रखे हैं तो आपका अपना भार , पहाड़ द्वारा धकेले जाने से पैदा गति आदि सब लगता है पैर की अंगुलियों के नाखूनों पर ही टिक जाते हैं । उँगलियों का ऊपरी पोर अभी थोड़े दिन दर्द में रहेगा ।

बचपन में मुझे दो चीजें बहुत रोमांचित करती थी एक किसी गाँव के सामने से गुजरती रेलगाड़ी और दूसरी किताबों में छपी पवनचक्कियों की तस्वीरें । मैं जहां जहां भी रहा रेलगाड़ी उन स्थानों के सामने क्या पीछे से भी नही गुजरी । धीरे धीरे रेलगाड़ी वाले रोमांच ने दम तोड़ दिया लेकिन पवनचक्कियों वाला रोमांच अभी भी जिंदा है । पिछले साल रामेश्वरम जाते हुए तमिलनाडु के तेनी नमक स्थान से गुजर रहा था । तेनी में सड़क के दोनों ही ओर दूर दूर तक सैकड़ों पावन चक्कियाँ थी । मैं बस में था और बस बहुत तेज़ी से मदुरै की ओर बढ़ रही थी सो जरा देर के लिए भी नहीं रुक पाया । आज ऊपर की दोनों ही पहाड़ियों से पवन चक्कियाँ नज़र आ रही थी । इतना ही नहीं नीचे तमिलनाडू का जो हिस्सा नजर आ रहा था उसमें भी वे सैकड़ों की तादाद में खड़े थे कुछ घूम रहे थे कुछ खड़े होकर दूसरे को घूमते हुए देख रहे थे ।

मुझे हमेशा से लगता था कि पवनचक्कियाँ बहुत छोटी होती हैं और बहुत तेज़ी से घूमती हैं । उनके बारे में मैं इतना सोचता था कि एक रात सपने में मैंने कई सारी चक्कियाँ एक साथ घूमते देखा था । आज इन पहाड़ियों की ट्रेकिंग से फारिग होकर मैंने एक और ट्रेकिंग की । लगभग पाँच किलोमीटर चलकर ऐसी जगह पहुंचा जहां हवा की खेती होती है – विंड फार्म ! वहाँ पहुँचने पर एहसास हुआ कि एक एक पवन चक्की कितनी बड़ी होती है । विशाल और आकाश को छूती हुई । वह स्थान सच में रोमांचक लगा । उस सबसे ऊंची चोटी के बाद दूसरा ऐसा स्थान लगा जहां घंटों बिना काम के बैठ कर चुप रहा जा सकता है या बतियाया जा सकता है । अगली बार वहाँ सही साथी लेकर जाऊंगा ।

इसके बाद वापसी का रास्ता शुरू हुआ । वापसी जल्दी ही इसलिए करनी पड़ी क्योंकि वहाँ से बाहर निकलने की अंतिम बस 4 बजे ही थी । यदि वह बस छूट जाती तो वहीं पहाड़ी पर कहीं ठंडी हवा खाता रहता । वह उतना बुरा भी नहीं होता बल्कि रोचक ही होता लेकिन मुफ्त का एक आकस्मिक अवकाश चला जाता । काम धंधे पर लगा आदमी कितनी आवारागर्दी करेगा ?


वापसी की यात्रा में कोई खास रोचकता मुझे भी महसूस नहीं हुई । एक जगह दो डोसे एक साथ खा लिए थे तो नींद भी आ रही थी । हल्का हल्का ही याद है कि कुछ कुछ वही स्थान गुजरे थे जो सुबह देखे थे । 

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