आज लगता है सर से एक बड़ा बोझ उतर गया । आज बारहवीं
के छात्रों की हिंदी विषय की परीक्षा थी । उन्हें मैं हिंदी पढ़ाता हूँ लिहाज़ा मेरे ऊपर भी दबाव रहता है । हिंदी विषय
की परीक्षा और दबाव ये दोनों एक साथ हास्यास्पद लगते हैं । इतने हास्यास्पद कि कोई
विश्वास तक करने को राजी नहीं हो सकता क्योंकि हिंदी अन्य विषयों की तरह उपयोगी नहीं
मानी जाती । इसका नौकरी और तकनीक के बाजार में कोई खास महत्व नहीं है । इसके
बावजूद यह एक विषय के रूप में विद्यालयों में पढ़ाया जाता है और इसे साधारणतया आसान
मान लिया जाता है । यह उत्तर भारत के लिए तो आसान विषय है लेकिन दक्षिण भारत के
लिए हिंदी गणित से भी ज्यादा कठिन विषय है । इसलिए इसके अध्यापक यदि दबाव की बात
करते हैं तो वह सच है ।
मैं एक आवासीय विद्यालय में काम करता हूँ । यहाँ
छात्र घर से परीक्षा भवन नहीं जाते बल्कि विद्यालय में ही बने परीक्षा भवन में
परीक्षा देते हैं । उनकी परीक्षा पूर्व की
तैयारी का हर क्षण अध्यापक की निगरानी में होता है । यहाँ अध्यापक की इच्छा वाक़ई कोई
अर्थ नहीं रखती । जिसके फलस्वरूप परीक्षा के दिनों में विद्यालय किसी कोचिंग संस्थान
में तब्दील हो जाता है जहाँ अध्यापक छात्रों के पीछे भाग रहा होता है । इसके लिए विद्यालय
के अधिकारी पूरा दबाव बनाए रखते हैं ।
विद्यालय प्रशासन और उसके अधिकारियों के लिए
छात्र का बहुत अच्छे अंक लाना किसी भी अन्य बात से ज्यादा महत्वपूर्ण है । इसलिए वे
समय समय पर अपने आदेश निकालते हैं जिनमें अध्यापकों से अपेक्षा होती है कि वे छात्रों
की तैयारी इस तरह से करवाएँ कि छात्र अच्छे अंक लाएँ । इतना ही नहीं ऊपर से ही प्रतिवर्ष
विभिन्न कक्षाओं और विषयों के लिए न्यूनतम प्राप्तांक तय कर दिए जाते हैं । अभी थोड़े
दिनों मुझसे और मेरे जैसे अन्य अध्यापकों से लिखवाया गया कि इस बार की बारहवीं की परीक्षा
में हम अपने विषय में न्यूनतम कितने प्रतिशत अंकों की उम्मीद करते हैं । मतलब पढ़ने
– पढ़ाने का एकमात्र उद्देश्य है अच्छे अंक आना !
तीसरी बात है केरल में हिंदी पढ़ाना । कहने को
तो मेरे विद्यालय में हिंदी द्वितीय भाषा है लेकिन इसकी हालत छात्रों की पाँचवीं छठवीं
भाषा की है । हर वर्ष गायरहवीं में ऐसे छात्र हिंदी में भेजे जाते हैं जिन्होंने दसवीं
में सबसे कम अंक प्राप्त किए हों । उनसे ज्यादा अंक प्राप्त करने वाले गणित और इन्फोर्मेशन
प्रैक्टिस में डाले जाते हैं । तीन सालों में मैंने देखा है कि दसवीं में सबसे कम अंक
लाने वाले छात्र वे होते हैं जो किसी भी विषय और भाषा में ठीकठाक समझ या क्षमता नहीं
रखते , वे समस्याग्रस्त छात्र होते हैं और उनका ध्यान पढ़ाई लिखाई के बजाय खेलकूद
व अन्य कार्यों में ज्यादा होता है ।
इन कारणों के साथ हम आगे बढ़ेंगे । ग्यारहवीं
में जब छात्र हिंदी की कक्षा में आते हैं तो
उनकी हिंदी भाषा की समझ ऐसी होती है कि अध्यापक अपने बाल नोंचने लगे तो पहली ही कक्षा
में गंजा हो जाये । लिंग , वचन और हिंदी में एक पूरा वाक्य न बोल
पाने की समस्या तो तब आएगी न जब छात्र शुद्ध रूप से वर्णमाला लिखना , पढ़ना जनता हो । हर साल पहला महीना उनके साथ वर्णमाला और अक्षरों को जोड़ जोड़कर
शब्द बनाने में गुजरता है । मेरे सहकर्मी झट से कह देते हैं कि तुम्हारे पास तो कम
छात्र होते हैं इसलिए तुम्हारा काम कम है । इन सबसे ऊपर उस कक्षा में 80 प्रतिशत
छात्र ऐसे होते हैं जिनकी हिंदी में कोई रुचि नहीं होती है और शुरुआती महीनों में
दूसरे विषय में जाने की जुगत में लगे रहते हैं । इस तरह के छात्रों के साथ काम
करना अपने आप में एक चुनौती होती है ।
हालांकि मैंने इस विद्यालय में केवल तीन साल
ही पढ़ाया है लेकिन इन तीन सालों में वर्तमान बैच सबसे कमजोर बैच रहा । हमें सिखाया
गया है कि छात्रों को कमजोर न कहें और यदि कोई है तो यह अध्यापक के लिए चुनौती है
। यही बात हमारे ऊपर के अधिकारी भी बीच बीच में आकर कह जाते हैं । लेकिन आदर्श
बातों के परे वास्तविकता नामक भी कोई बात होती है । और वास्तविकता कम से कम हिंदी
के मामले में दुखद है । पिछले वर्षों में जो छात्र मिले उनमें कुछ तेज तर्रार
छात्र भी थे जो या तो मेहनत के बल पर या समझने की शक्ति के बल पर आगे बढ़ गए ।
पिछले ही वर्ष की बात है मेरे विद्यालय में बारहवीं के परिणाम के आधार पर चार
मेरिट सर्टिफिकेट मिले जिनमें से दो हिंदी में और एक - एक अंग्रेजी व जीवविज्ञान के थे । लेकिन ऐसी कोई उम्मीद इस
बैच से मैं नहीं कर रहा हूँ ।
जब दस छात्र-छात्राओं यह बैच ग्यारहवीं में मुझे मिला था उस समय इनमें
से किसी को भी वर्णमाला नहीं आती थी । किसी तरह से दसवीं पास कर आए हुए लोगों को
हिंदी सीखाना शुरू किया । लेकिन जिनकी रुचि ही हिंदी में न हो वे इसे सीखने में
सहज ही असहयोग करेंगे । किसी तरह ये छात्र एक – एक कदम ऊपर आने लगे । इसके बावजूद
वे इस स्थिति में नहीं थे कि पाश , कबीर और मीरा की कवितायें समझ सकें या कि कृष्ण
सोबती के मियां नसीरुद्दीन के नखरे परख पाएँ । जैसे तैसे वह साल बीता था । पिछले
साल गर्मी की छुट्टियों के दौरान मैंने यह अनुभव किया कि ये छात्र जब बारहवीं में
आएंगे तो उनकी कक्षा में जाने के लिए मेरे मन में कोई उत्साह ही नहीं है । और हुआ
भी ऐसा ही । बारहवीं की शुरुआत के कुछ दिन निश्चित तौर पर उत्साहहीन थे । मेरा मन
ही नहीं करता था उनकी कक्षा में जाने का । थोड़ी बहुत हिंदी जो उन्होने सीखी थी वह
दो महीने की छुट्टियों में स्वाहा हो गयी । ऊपर से पाठ्यक्रम नवंबर तक में ही पूरा
कर देने का दबाव । उन दिनों भाषा के बजाय उसके साहित्य ने मेरी मदद की और मैंने
भाषा सिखाना छोड़ दिया ।
पाठ्यक्रम पूरा हो गया लेकिन सीखने के नाम
पर दस में से दो या तीन छात्र ऐसे थे जो कुछ प्रश्नों के उत्तर दे सकने की स्थिति
में थे । इन छात्रों के बारे में दूसरे विषयों के अध्यापक भी कमोबेश यही राय रखते
थे । अंग्रेजी की अध्यापिका ने एक छात्र को डिस्लेक्सिक घोषित कर दिया था । ऊपर से
अधिकारी आते रहे और इन छात्रों को हमारे लिए चुनौती बताते रहे । एक ने तो यह तर्क
भी दे डाला कि यदि ये छात्र यहाँ तक आ गए हैं तो इसका मतलब है कि इनमें कुछ है बस
अध्यापक वे तरीके नहीं पहचान रहा है । खैर !
फिर परीक्षाओं का दौर आया । दिसंबर जनवरी से
बारहवीं बोर्ड देने वाले छात्रों की लगातार परीक्षाएँ होती हैं और उन्हें अलग से
पढ़ाने की पूरी व्यवस्था करना हमारी समिति के चलन में है । समिति यह कार्य
अध्यापकों के ऊपर दबाव डाल कर करती है । तरह तरह के टाइम टेबल बनते हैं जिनमें
सुबह 6 बजे से रात के 10.30 बजे तक कार्यक्रम शामिल रहता है और सब अध्यापकों के
भरोसे और जिम्मे । मुझे याद है जब दिसंबर के अंत में इनकी पहली परीक्षा हुई थी तो
हिंदी के दस में से सात छात्रों ने तीस से ज्यादा अंक के सवाल छोड़ दिए थे । वे उन्हें
हल ही नहीं कर पाये । यही हालत अगली दो परीक्षाओं तक रही थी ।
इस बीच जब मार्च आ गया तो हिंदी की परीक्षा
से पहले करीब नौ दिन मुझे मिल गए । इन नौ दिनों में मैंने चार बार उनकी परीक्षा ली
। कई बार पाठों को दोहराया । एक एक परीक्षा पर विस्तार से बात की । उनकी गलतियों
पर टोका । एक प्रश्न पर दिए जाने वाले मिनट तय किए । यह सब करने में जान निकल जाती
थी । हालत ऐसी हो गयी कि कोई छात्र छोटी सी गलती भी करता तो मैं चिल्ला उठता था ।
तनाव का असर चरम पर रहा इन दिनों । लेकिन इसके सकरत्मक परिणाम आए । जिस छात्र ने
पहली परीक्षा में पचास से ज्यादा अंक के प्रश्न अनुत्तरित छोड़ दिए थे उसने अंतिम
परीक्षा में एक भी प्रश्न नहीं छोड़ा । यह वही छात्र है जिसे अंग्रेजी वाली
अध्यापिका पठन विकृति की शिकार बताती हैं ।
ये छात्र सबसे कमजोर थे । अभी भी हैं । इनकी
हिंदी भाषा का स्तर कोई बहुत ऊंचा नहीं चला गया है लेकिन जिस तरह ज्यादा अंक प्राप्त करना या करवाना एक मजबूरी बन गयी है
उसमें इन छात्रों का नौ दिनों में इतने ऊपर आ जाना मैं एक उपलब्धि ही मानता हूँ ।
आज परीक्षा हो गयी है और मुझे नहीं पता कि इनके कितने अंक आएंगे । लेकिन परीक्षा
भवन के बाहर आते हुए जैसा संतोष उनके
चेहरे पर था उसकी कल्पना मैंने दो सप्ताह पहले तक नहीं की थी ।
यह ऐसे छात्रों का समूह था जिनके साथ
ग्यारहवीं कक्षा से मैंने ज्यादा काम किया । ये देर से सीखते थे इसलिए इनके साथ
ज्यादा समय देना पड़ा । देर से समझते थे इसलिए अलग अलग तरीकों से समझाता रहा ।
इसलिए इस बैच के एक एक छात्र को नापसंद करते हुए भी मैंने इन्हें अपने करीब ज्यादा
पाया ।
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