मैं दो तरह की भाषाई राजनीति का शिकार हूँ ।
मेरा जन्म जहाँ हुआ वहाँ कोई भी स्त्री हिंदी नहीं बोलती थी । न मेरी माँ , न
नानी , न नानी की पड़ोसनें (जिन सबको मैं आजतक अपनी नानी ही
मानता आया हूँ) कोई भी नहीं । उस स्थान पर कभी कभार ही किसी पुरुष के मुँह से
हिंदी सुनाई देती थी वह भी सरकारी स्कूल में । वहाँ यह स्थिति आज भी है ।
जो हिंदी
वहाँ सुनी मैंने वह कहीं से भी यह हिंदी नहीं थी जिसकी विद्वान लोग बातें करते हैं
। लेकिन पता नहीं कैसे परीक्षाओं के आवेदनों में मेरी मातृभाषा हिंदी लिखाई जाने
लगी । नवोदय विद्यालय की छठी कक्षा के आवेदन पत्र में मेरे मामा जी और उस विद्यालय
के प्रधानाध्यापक ने मेरी मातृभाषा हिंदी दर्ज़ कर दी । एक ऐसी भाषा जिसे मेरे
आसपास कोई भी नहीं बोलता था वह मेरी मातृभाषा बन गयी । इसके साथ साथ यह भी था कि
हिंदी उसी तरह मेरे नाम के साथ जुड़ गयी जैसे कि मेरी जाती ,
मेरा धर्म आदि । इन सब के निर्धारण में मेरा कोई योगदान ही नहीं रहा । सरकारी
दस्तावेज़ में मेरी मातृभाषा हिंदी है जिसका चयन मैंने नहीं किया और सबसे बड़ी बात
कि साधारण तौर पर इस भाषा को वहाँ आज तक कोई नहीं बोलता है जहाँ मेरा जन्म हुआ ।
इस बीच समय काफी गुजर गया और अस्मिता मूलक
राजनीति का प्रसार तेज़ी से देश के विभिन्न
क्षेत्रों की तरह हमारी ओर भी हुआ । अपनी पहचान को पहचान दिलाने के लिए संघर्ष
शुरू हुए । हालाँकि हमारी ओर यह संघर्ष न तो उतना उग्र है न ही उतनी घना । बहुधा
देखा गया है कि साधारण लोगों को इस पहचान के संघर्ष से कोई लेना देना ही नहीं है ।
वहाँ भोजपुरी फिल्में सिनेमा हाल से उतरती ही नहीं हैं और मैथिली फिल्मों को या तो
स्थान ही नहीं मिलता और यदि स्थान मिल गया तो दर्शक नहीं मिलते लिहाज़ा फिल्मों का
बहुत जल्दी उतर जाना स्वाभाविक है ।
हाल के दिनों में हमारी ओर भी मैथिली भाषा
के पहचान की कवायद शुरू हुई है । यहाँ से शुरू होती है भाषा संबंधी दूसरी राजनीति
जिसका शिकार मैं अपने को मानता हूँ । अब गाँव – गाँव में कुछ लोग मिलने लगे हैं जो
बात बे बात मैथिली भाषा के प्रयोग करने उसकी पहचान दिलाने की बात करने लगे हैं ।
उस समय यह बहुत बुरा लगने लगता है जब शादी के मौके पर गाँव के किसी पढे लिखे को
बोलने के लिए कहा जाता है और वह वक्त और मौका देखे बिना ही मैथिली का राग अलापने
लगता है ।
मैं जिस ओर रहता हूँ वहाँ मैथिली को ठीक उसी
तरह समझने और बोलने वाले बहुत कम हैं जिस तरह दरभंगा ,
मधुबनी के लोग बोलते समझते हैं और जिस मैथिली का प्रारूप विमलेश कांति वर्मा की
किताब में दिया गया है । मतलब हम जो बोलते हैं वह मैथिली से थोड़ी अलग है । थोड़ी
अलग होने से भी मुझे कोई दिक्कत नहीं है । लेकिन भाषा अपने साथ जो समाजशास्त्र
लाती है वह जब मैथिली के साथ हमारे यहाँ आता है तो ठीक हिंदी या अंग्रेजी की तरह
ही आयातित लगता है । जिस मैथिली के उत्थान और जिसकी सार्वजनिक स्वीकृति की बात की
जाती है वह हमारे यहाँ बहुत कम लोग बोलते हैं । इसलिए उसके बहुत से प्रयोग भी समझ
से परे हो जाते हैं ।
हाल में हमारे सहरसा रेलवे स्टेशन पर मैथिली
में उद्घोषणा को लेकर कुछ पत्रकारों और मैथिली आंदोलन के कर्ता धर्ताओं ने आंदोलन
किया और रेलवे ने उनकी मांग मान भी ली । लेकिन असली खेल इसके बाद शुरू हुआ । वह
उद्घोषणा दरभंगा – मधुबनी की तरफ बोली जाने वाली भाषा में थी । उसका अंदाज भी उधर
का ही था इसलिए उसे समझने में सबको आसानी नहीं होती थी । वह उद्घोषणा मदद के बजाय
स्थानीयता का मज़ाक ज्यादा लग रही थी । सहरसा कोशी कमिश्नरी का मुख्यालय है और
खगडिया ,
मधेपुरा व पूर्णिया के पास जहाँ एक सुपौल
को छोड़ दें तो मैथिली का ‘मानक’ रूप अन्यत्र साधारण
चलन में नहीं है ।
अब सवाल है कि हम क्या बोलते हैं ? असल
में हम जिस भाषा का प्रयोग करते हैं उसे क्या नाम दें हमें भी नहीं पता । ‘मानक’ मैथिली वाले ही
हमारी भाषा को ‘ठेठी’ कहते हैं । ठेठी
बोलने वालों को भी मैथिली बोलने वाले मान लें तो भी ठीक है लेकिन वे ऐसा नहीं करते
। वे हमारे लिए ‘ठेठियाबै छै’ मुहावरे का प्रयोग व्यंजना में करते हैं । मतलब कि खगडिया का व्यक्ति यदि
यह कहे कि ‘कै रूपा में देभी रे’ तो उनकी मानकता से
वह बाहर है ।
बाहर केवल ठेठी बोलने वाले ही नहीं हैं बल्कि
वे लोग भी बाहर हैं जो सवर्ण नहीं हैं । क्योंकि वे मानक मैथिली नहीं बोलते ।
मैथिली की राजनीति करने वाले लोग इस बात को सही नहीं मानते । वे तुरंत कह देते हैं
कि ऐसा नहीं है हम सब एक ही भाषा के लोग हैं हाँ सबके बोलने का ढंग अलग है । लेकिन
धरातल पर ऐसा नहीं है । वहाँ भाषायी अस्पृश्यता है जो भौगोलिक भी है और जातिगत भी
।
मुझे याद है एक बार सहरसा में मैथिली को लेकर कोई कार्यक्रम हो रहा था बड़े
बड़े विद्वान लोग बैठे थे और सब घनघोर मैथिली बोल रहे थे । वहीं पड़ोसी विधानसभा
क्षेत्र के एक विधायक को भी आमंत्रित किया गया था । वे आए और अपनी ‘ठेठी’ में बोलने लगे । मंच
पर जो लोग थे वे तो इधर उधर देखने ही लगे लेकिन सबसे चुभने वाला था मेरे एक दोस्त
का व्यवहार । उसने कहा कि जिसे मैथिली नहीं आती उसे बुलाना ही नहीं चाहिए था और
ब्राह्मण – कैथ को छोडकर तो किसी भी नहीं बुलाना चाहिए था ।
मैं खुद को समझाने कि कोशिश करता रहा हूँ कि
यह सब मेरे अनुभव हैं हो सकता है किसी और के न हों ऐसे अनुभव लेकिन मेरे अपने अनुभव
इतनी बड़ी संख्या में और इतनी जल्दी जल्दी दुहरा जाते हैं कि इसे सामान्य प्रवृत्ति
मानने को विवश होना पड़ता है ।
यहाँ केरल में जो मलयालम में दस्तख़त करना जानता
है वह शिक्षित है । काश कि यही बिहार के लोग भी समझ पाते और सबकी मातृभाषा उस भाषा
को मान लेते जो उनके घर में बोली जाती है तो बिहार की साक्षारता दर भी केरल से कम नहीं
होती । साथ में यह भी कि बिहार की तीनों प्रमुख भाषाओं के लिए लिपि है जो प्रयोग में
न होने के कारण धीरे धीरे लुप्त मान ली गयी है ।
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