जनवरी 22, 2015

ये उम्मीदों की बोझ और ये उनका कंधा !



नवोदय विद्यालय के शिक्षक के रूप में  (हाउस मास्टर के रूप में भी) जब-जब बच्चों के  माता-पिता से मेरी मुलाक़ात हुई है तब-तब  मेरा सबका ऐसी एक-दो माताओं से पड़ा है जिनके लिए उनके बच्चे बड़ी उम्मीद हैं और ऐसे में जब बच्चे के अंक जरा से कम आते हैं या उनके अनुशासन में रहने की छोटी सी भी शिकायत मिलती है तब उनका दुख उनकी आँखों पर जाता है । उस समय जो आँसू उन आँखों में आते हैं वे बिना कहे जीवन की उन तमाम मुश्किलों तक आपको सहज ही खींच लेते हैं जिन तक का सफर संभव है आपने कभी भी न किया हो । कुछ स्थितियों में पति का देहांत हो चुका है लेकिन ज्यादार स्थितियों में पति का शराबी होना सामने आ जाता है । स्थिति तब और बुरी हो जाती है जब बच्चा भी रोने लगे

मेरे हाउस में कई बच्चे ऐसे हैं जिनके पिता इतनी शराब पीते हैं कि वे सामान्य कार्यकलाप के लिए भी अक्षम माने जाते हैं । अपने बच्चे से मिलने खुद नहीं आते तो ज़िम्मेदारी स्वाभाविक रूप से माँ पर आ जाती है । यदि बच्चे से मिलना हो तो भी वही आती है, उसकी कोई शिकायत मिले तो उसे सुनने और उस पर आँसू बहाने भी वही आती है ।

अभी पिछले महीने का ही तो किस्सा है ! बारहवीं में पढ़ने वाले एक बच्चे ने अपने घर से थोड़े पैसे मंगाने के लिए मेरा बैंक अकाउंट नंबर लिया । मैं उस बात को भूल गया । कई दिनों के बाद किसी अंजान जगह के यूनियन बैंक के मैनेजर का फोन आया कि एक व्यक्ति मेरे खाते पर पैसा जमा करवाने आया है और फॉर्म पर केवल खाता संख्या लिखकर नशे में धुत्त बैंक में निढाल पड़ा हुआ है । मेरे खाते की डिटेल्स से उस मैनेजर ने मेरा फोन नंबर निकाला था । मैं यहाँ कल्पना ही कर सकता हूँ कि मेरे हाउस के उस छात्र की माँ बहुत व्यस्त होगी और खुद नहीं आ पायी होगी और उसे विश्वास नहीं रहा होगा फिर भी उसने अपने पति को पैसे जमा कराने भेजा होगा । … उसकी पति वह भी नहीं कर पाया !

केरल में शराब की खपत बहुत ज्यादा है और जिस अनुपात में शराब की खपत है उसी अनुपात में स्त्रियाँ बाहर काम पर जाती देखी जा सकती है । मैं यहाँ यह नहीं कह रहा हूँ कि उनका काम पर जाना बुरा है या गलत है या कि उनको काम नहीं करना चाहिए बल्कि मेरा कहना यह है कि पुरुष के शराबी होने के कारण स्त्री पर काम को प्राप्त करने और उसे बनाए रखने का दबाव दोगुना है । यह अकारण नहीं है कि केरल की लड़कियां छोटी उम्र में ही यह तय कर ले कि उन्हें नर्स ही बनना है डॉक्टर नहीं । छोटी उम्र से ही भोगा हुआ आर्थिक संघर्ष जल्द से जल्द रोजगार प्राप्त करने को लगातार दबाव बनाता होगा ।

हमारा विद्यालय ऐसा विद्यालय है जो परीक्षा लेकर छात्रों को प्रवेश देता है । इसलिए बच्चे स्वाभाविक रूप से ज़हीन मान लिए जाते हैं । ज़हीन बच्चा घर की हालत में सुधार लाये यह दबाव बिना कहे उस पर आ जाता है । फिर उसकी हर गतिविधि इसी उम्मीद और उससे उपजे दबाव के दायरे में रखकर देखी जाती है । नवोदय विद्यालय खुले तौर पर उन बच्चों को प्राथमिकता देता है जिनके परिवार हाशिये पर जी रहे हैं (कम से कम आर्थिक स्तर पर) । इसलिए ऐसे बच्चों की संख्या आनुपातिक रूप से ज्यादा है जिनपर हर क्षण अपने परिवार के भविष्य को सुधारने का अतिरिक्त दबाव है ।

भारत हमारा ऐसा देश है जहां रोजगार पाने के लिए बच्चे को बहुत संघर्ष करना है इस स्थिति में जब हाशिये पर जी रहे माता-पिताओं की बात आती है तो उनकी सारी उम्मीदें और खुद बच्चे के सपने उनके बचपन को बुरी तरह प्रभावित करने लगते हैं । शिक्षक जो उन बच्चों की पारिवारिक दशा से वाकिफ होते हैं वे भी इस स्थिति का फायदा उठाते हैं और वे कई बार उन बच्चों के न कम अंक पाने या ‘अ–अनुशासित’ व्यवहार के प्रति हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं । बिना इसकी परवाह किए कि इससे उन बच्चों के मानसिक स्वस्थ्य पर कितना दबाव पड़ेगा ।

हमारे शिक्षाविदों ने बिना बोझ की  शिक्षा पर बहुत बातें की है सरकार ने उस पर नीति भी बना दी आजकल बच्चों को शारीरिक दंड दिया जाना भी गैर कानूनी हो गया है लेकिन यदि गौर से देखा जाये तो ये वे प्रश्न हैं जो अपेक्षाकृत खाते पीते घरों के बच्चों की समस्याएँ हैं । अपने बच्चे की पीठ पर का भरी बस्ता और उनके गालों पर थप्पड़ के निशान भरे पेट वाले माँ बाप को तो अवश्य ही बुरा लगता होगा लेकिन मुफ़लिसी में जी रहे माँ – बाप इसे भी अपने बच्चे की तरक्की ही मानते होंगे ।

हमारी सरकारों ने या शिक्षाविदों ने बच्चों की पीठ का बोझ कम कर दिया और उन्हें मार खाने से भी बचा दिया लेकिन क्या उन्होने कभी विद्यालयों में पढ़ रहे बच्चों के भविष्य के  रोजगार बारे में सोचा ? जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो इतना भर पाते हैं कि हमारी सरकारें और हमारे शिक्षाविद सबकुछ बच्चों पर छोड़ अपना पल्ला झाड़े बैठे हैं सरकारों को शायद ही परवाह है कि बच्चा अपने भविष्य के लिए कितना आशंकित और चिंतित है और इस बात का तो उन शिक्षाविदों को अंदाजा भी नहीं है कि बच्चों पर बस्ते और अध्यापक की मार से ज्यादा रोजगार का दबाव है । वे कभी ‘पैरेंट्स टीचर मीटिंग’ में आयें तो देख पाएँ उस संचित दुख और उससे बाहर न निकल पाने के त्रास को । तब वे जान पाएंगे कि उन्होने जो दुनिया बना रखी है उसमें बच्चे के पास एक ही विकल्प है कि वह अति प्रतिभाशाली बन जाये, सर्वगुण सम्पन्न हो तभी उसे रोजगार मिलेगा और तब वह अपनी माँ का असली सहारा होगा । यदि वह अति प्रतिभाशाली और सर्वगुण सम्पन्न होने से जरा भी कम है तो ये दुनिया उसकी नहीं है । वह हाशिये पर ही रहेगा । उसकी माता जी की आस का कुछ नहीं होगा !


(खैर आज दसवीं कक्षा के छात्रों की माता –पिता के साथ हम शिक्षकों की मुलाक़ात थी । उस लड़के की माँ रो रही थी वह भी रो रहा था । मेरे पास सांत्वना के दो शब्द थे वो कह दिए पर रोजगार का संकट तो ऐसा है कि सरकार के सुलझाए ही सुलझे। )

2 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद जमीनी अनुभव साझा करने के लिए। शिक्षाविदों का ध्यान इस पहलू की ओर खीचने की जरुरत है।

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    1. हाँ ... वे जरूरत से ज्यादा मिडिल क्लास को फोकस कर के नीतियाँ बनाने लगे हैं .... जरूरी है कि कभी उल्टी दिशा में भी वे कोई सलाह दें ... सरकार को जिम्मेदार करें ... !

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