दिसंबर 14, 2014

सचमुच का गुड मॉर्निंग

इस तस्वीर में जो चिड़िया है उसे मेरी माँ गोइठी कहती है ... इसे मैंने अपने कैमरे में कुछ यूं उड़ान भरते पकड़ा 

सुबह और वह भी रविवार की ! इतनी प्यारी तो कोई चीज नही । हम आवासी विद्यालय के मास्टरों के लिए यही एक सुबह होती है जिसे वे अपने माफ़िक इस्तेमाल कर सकते हैं बशर्ते उनकी कोई ड्यूटी न हो तो । मेरी ड्यूटी नही थी इसलिए देर रात तक यू-ट्यूब पर हंसराज हंस , नुसरत फतेह अली और मुनव्वर राणा के वीडियो देखता रहा । सोचा था रविवार की सुबह तो अपनी है वैसे ही जैसे रात तो अपनी है कहकर विश्वविद्यालय के दिनों में या उसके बाद भी हम रात रात भर विश्वविद्यालय में बैठे रहते थे । लेकिन सुबह को अपनी ही न रहने दिया जाये तो ।
एक मुकम्मल सुबह जिसमें आसमान भी साफ हो बारिश के कोई निशान न हों तो वह सुबह जल्दी शुरू हो ही जाती है । 
ऊपर से आजकल क्रिसमस का मौसम है तो आसपास के चर्च पता नहीं कब से जग गए थे । उनके घंटे , बेसुरी आवाज़ में लाउडस्पीकर पर चल रहा उनका समवेत गान सब तो थे ही थे साथ में था पक्षियों का कलरव । हालाँकि पक्षी रोज बोलते हैं पर रोज मैं चाह कर भी देर तक नहीं सो सकता । उनकी ही तरह मुझे भी उजाले के साथ उठना होता है । उनकी तरह आवाज़ तो नहीं ही निकाल सकता लेकिन उठने और स्कूल जाने के बीच के कार्यों की लय उनकी आवाज़ों की तरह ही होती है । इन सब के बीच में सोना तो दूभर ही जाता है ।

किसी तरह आँख दबाकर पड़ा रहा कि नींद ही जिद्दी हो । वह इन आवाज़ों की परवाह किए बिना अपना काम कर जाये । वह कर भी रही थी । मैं सोने और जागने के बीच ही कहीं घूम रहा था । कुछ ऐसा सा जहां दोनों ही बातें महसूस की जा सकें उसी दौरान दरवाजे की घंटी बजी । उस समय उठने में जो कष्ट हो रहा था वह तो सब समझ सकते हैं । कभी न कभी तो ऐसा अनुभव हुआ ही होगा । हो सकता है रविवार को न हुआ हो । दरवाजे पर गया तो पाया कि दो छात्र खड़े थे । चर्च जाने के लिए परमिसन(आज्ञा लिखने वाला था पर उसमें मजा नहीं आया) मांगने आए थे ।

पक्षियों , चर्चों और के अलावा मेरे ये छात्र तीसरे समूह हैं जो रविवार की सुबह पूरे अधिकार के साथ खराब कर सकते हैं । अवसीय विद्यालय में अध्यापक का काम केवल अध्यापक का ही नहीं रह जाता है । ऊपर से यदि विद्यालय सरकारी हो तो वार्डन का अतिरिक्त काम भी हमारे ही जिम्मे है क्योंकि सरकार की प्राथमिकता होती है कम से कम खर्चे में विद्यालय को चलाते रहना । पहले से ही शिक्षक सबसे पालतू कर्मचारी माने जाते रहे हैं तो उन्हें लद्दू बना देना इतनी स्वाभाविकता से हुआ होगा कि किसी को न तो इसका पता चला और न ही किसी ने इसका विरोध किया । मैं भी एक ‘हाउस’ का वार्डन हूँ जिसे यहाँ की तकनीकी भाषा में ‘हाउस मास्टर’ कहते हैं । और वे बच्चे कुछ भी करें उसकी ज़िम्मेदारी मेरी है । कई बार वे कुछ भी कर जाते हैं । शुक्र है किसी ने अत्महत्या नहीं की है वरना मेरे ही साथ के लगे हुए एक मास्टर के हाउस मास्टर बनते ही एक बच्चे ने अपने को पेड़ से टांग लिया था पिछले साल । खैर इस हाउस मास्टरी की भड़ास ज्यादा ही है यहाँ थोड़े में काम चलेगा नहीं और वही लिख दूँ तो जो लिखने बैठा था वह लिख नहीं पाऊँगा ।

हालाँकि मैंने छात्रों को स्पष्ट रूप से कह रखा है कि रविवार को मेरे दरवाजे पर नहीं आना है जबतक कि कोई इमरजेंसी न हो । वह भी मेडिकल वाली । पर छात्र मान जाएँ तो सूरज पश्चिम के बजाय पूरब में न डूबने लगे , कुर्सी-टेबल न सुधर कर परीक्षाएँ पास करने लगें । जब मैं छोटा था तब मेरी माँ ये दोनों फिकरे मेरे ऊपर इस्तेमाल करती थी । इस पर किसी दिन अलग से बात करने का मन है ।

बारहवीं कक्षा के दो छात्रों को विद्यालय की ही एक अध्यापिका के साथ चर्च जाना था तो मुझे कोई आपत्ति नहीं थी हाँ गुस्सा जरूर था कि नींद तोड़ दी । उनके जाने के बाद फिर से ‘अंठा’ कर बिस्तर पर पड़ गया । ये अंठाना ऐसा है जैसे बहाना बनाना लेकिन हमारी मैथिली में ।  नींद फिर से जमने लगी थी । यह सोचकर मोबाइल भी ऑफ कर दिया कि कोई तंग न करे ।

लेकिन साहब मैं फिर से नींद और उससे बाहर होने के बीच में था कि फिर से कानों में ज़ोर ज़ोर की आवाज़ें पड़ी । उस अवस्था में कुछ देर तो यह अंदाजा लगाने में ही लग गया कि यह आवाज क्या है और कहाँ से आ रही है । आँखें खुली और थोड़ा सहज हुआ तो देखा बिस्तर के सामने वाली खिड़की पर दो मैना इधर उधर तेजी से चल रही हैं और तेज तेज स्वरों में कुछ कुछ बोल रही हैं । उनका बोलना तो समझ में नहीं आया पर कान के इतने करीब जब इस तरह से शोर हो तो नींद सबसे पहले उड़ गयी ।

दोनों पक्षी कुछ मुआयना जैसा कर रहे थे । मुझे लगा शायद वे अपना घोंसला बनाने की जगह तलाश रहे हों । यह सोचते ही मेरी स्थिति ठीक उस दुकानदार की तरह हो गयी जिसकी दुकान में बहुत दिनों के बाद गाहक आया हो । पर ये गाहक तो थे नहीं कि दुकानदार उठकर उनकी सेवा को चला जाये । मैं उठता और ये फुर्र हो जाते । अपने को काठ करके उसी तरह लेटा रहा । वे इधर उधर देखते रहे । उनमे से एक उड़ गया और उसी क्षण वापस भी आ गया । पता नहीं वही था या कोई और । इस बार उसके मुंह में सूखी घास का टुकड़ा भी था ।

मैं बहुत खुश हूँ कि मेरी खिड़की में चिड़िया अपना घोंसला बना रही है । बचपन से इस तरह की इच्छा कि मैं चिड़ियों की इतने पास रहूँ । पक्षी हर जगह थे लेकिन पहले जहां भी रहा वे जगहें इस कदर मेरी नहीं थी । इन दोनों मैनों को भी यहाँ रहने की जरूरत नहीं पड़ती । एक तो केरल जहां पहले ही पहाड़ों, नदी के कछारों पर इतने पेड़ हैं ऊपर से हमारे विद्यालय का बड़ा सा कैंपस जहां खेलने के मैदान के अलावा पेड़ ही पेड़ हैं । ऐसे में कौन सी चिड़िया घर की मुंडेर , खिड़की की खोह और रोशनदान के पास घर बनाती । लेकिन हाल में हमारे विद्यालय में करीब दसेक बड़े बड़े पेड़ों की छंटाई कर दी गयी । अब उन पेड़ों की बस ठूंठ है जिनसे महीने भर बाद अब जाकर कुछ हरियाली फूट रही है । इस छंटाइ से बहुत सी चिड़ियों का घोंसला उजड़ गया । जिस दिन पेड़ काटे जा रहे थे उस दिन शिक्षक आवास की ओर के आसमान में बहुत सी चिड़िया आ गयी थी । ये वे पक्षी थे जो उन पेड़ों पर रहते थे । तब अचानक से बशीर बद्र की वह पंक्ति याद आ गयी थी – आसमां भर गया परिंदों से , पेड़ कोई हरा गिरा होगा

जब इनका घर बन जाएगा तब से ये परिंदे मेरे सोने वाले कमरे के बाहर की खिड़की पर ठीक मेरे बिस्तर से चार-पाँच फुट की दूरी पर रहेंगे । इस बात को लेकर मुझे अपने दो दोस्तों मुकेश और शरद से जलन होती थी । इनके सरकारी क्वाटर में चिड़ियों ने घोंसले बनाए और इन्होंने तस्वीरें भी भेजी । एक मैं ही था जिसके आसपास इतनी चिड़िया होते हुए भी घर की मुंडेर या खिड़की की जाली के बाहर कोई घोंसला नहीं था ।यह सब खालिस बचपना लगता है पर तीस की उम्र में बचपन के एहसास के भर जाने को मैं बड़ी बात मानता हूँ । 

बचपन ठीक वह दुनिया थी जहां मनुष्य, प्रकृति, जानवर और परिंदे-चरिंदे सब साथ थे । सबका अस्तित्व था और सब अपनी भूमिका में थे । कौवा हाथ में से कुछ छीनकर भाग जाता था , गरुड़ और गिद्ध को दिखा दिखाकर ‘सेवा’ बाबा डराया करते थे । गरुड़ को वे कहते थे लोलवाली । लोल मतलब चोंच ! बकरी के मेमने वैसे ही प्यारे लगते हैं पर जब वे उछलकूद करते थे तो पूछिए ही मत उन पर बड़ा लाड़ आता था । यही स्थिति गायोंके बछड़ों और भैंस पठरुओं की थी । नए जन्मे ये पठरू या बछड़े जब नौसिखुवा अंदाज में बाँ- बाँ करते हुए चौकड़ी भरते तो उन्हें देखने व पकड़ने में बहुत मजा आता था ।


तब यह हालत थी कि मैं अपने को भी उन पशु-पक्षियों की तरह ही समझता था । उसके बाद तो पशु-पक्षी कभी इतने साथ रहे ही नहीं । यहाँ हमारे स्कूल में बहुतेरे पक्षी हैं । कई रंगों और डिजायन के । उनकी आवाजों से वातावरण हमेशा खुशनुमा बना रहता है लेकिन खिड़की के ऊपर मैनों की इस जोड़ी का बसना सुबह से मन को गनगनाए हुए है । देखने की बात है कि ये यहाँ टिकते हैं या नहीं ! 

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