नवंबर 10, 2013

दिल्ली हवाई अड्डे की उस सुबह के बहाने

दोस्त जब छोड़ कर गए तब भी सुबह नहीं हुई थी । बाहर अँधेरा था और जिस तरह लोगों की चहल पहल जारी थी उसको देखकर तो लग रहा था कि यहाँ कभी उजाला आएगा ही नही । ऐसा सोच इसलिए रहा था क्योंकि दिल्ली हवाई अड्डे पर सुबह के चार बजे भी लोग इतने तरोताजा और अँधेरे से मुतमईन लग रहे थे कि अँधेरे या कि उजाले के बारे में  सोचना भी एक शर्म ही देता । कहाँ मैं जब से इतनी सुबह का टिकट बनवाया तब से हैरान और परेशान था कि कैसे पकड़ पाउँगा सुबह की फ्लाईट और उस सुबह के आने से पहले तक कितने ही लोगों को अपनी परेशानी में साझीदार बना कर परेशां किया  और कहाँ ये सारे लोग ऐसे दिख रहे थे जैसे बस अभी नहा कर निकले हों । इतनी सुबह या कमोबेश रात ही कहिये फ्लाईट पकड़ने आये तो इतने सहज कि सर घूम जाये । शायद यही तरीका है हवाई यात्रा का क्योंकि वहां सहजता इतनी है कि कुछ भी उलझा अस्वाभाविक लगता ही नहीं है । जितनी बार सोचा उतनी बार मुझे यह सहजता ही अस्वाभाविक लगी है। लोगों को अपनी परेशानियाँ छिपाते देखा क्योंकि किसी और को न पता चल जाये कि वह परेशान है और लोग उसे हीन समझ लें इससे भी बड़ा डर ये कि लोग ये न मान बैठें कि यह उसकी पहली हवाई यात्रा है । पहली यात्रा है मतलब वह अभी उस क्लास के लिए नया है जो सबसे ऊपर है । हवाई जहाज में यात्रा करना मतलब सबसे श्रेष्ट होने का सामंती भाव जो बना हुआ है उसके भीतर असहजता ऐसे दुम दबाकर बैठती है कि ढूंढने से भी न मिले । लोग अपनी असुविधा छिपाते हैं कि पकडे न जाएँ । रात के चार बजे के अन्धकार में अपने अपने घरों से अपनी और अपने स्वजनों की नींद तोड़कर उन्हें असहज कर आये लोग कितने ही स्वाभाविक से चेहरे के साथ घूम रहे थे । घोर कृत्रिम वातावरण था महराज !

हवाई जहाज का होना और उससे किसी भी तरह से जुड़ना ही बहुत बड़ी बात मान ली जाती है जिससे कोई अपना समय बचाने के लिए या कि अन्य आवश्यकता और मजबूरी में भी यात्रा करे तो वह यात्रा नहीं बल्कि सुविधा को भोगने की श्रेणी में डाल दिया जाता है । इससे न सिर्फ यात्री का व्यवहार बदलता है बल्कि उसके आसपास के लोगों का व्यवहार भी उसके प्रति बदलता है । मैं जब भी दिल्ली से यहाँ स्कूल आता हूँ तब जो भी पहली बार मिलता है यह कहना नहीं भूलता है कि मैं अभी इसलिए हवाई यात्रा करता हूँ क्योंकि मुझ पर अभी कोई बोझ नहीं है । कई बार जब मैं पैसे की तंगी की बात करता हूँ तो लोग तपाक से कह डालते हैं कि साहब आप तो हवाई जहाज से यात्रा करते हैं आपके हाथ कहाँ से तंग होने लगे । अरे भैया वह तो यात्रा का एक माध्यम है उसका पैसे की कमी से वह स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है जो आप बनाये दे रहे हैं ।

मैं यह सब लिखना तो चाह रहा था पर कई बार लगा कि इस सम्बन्ध में लिखे हुए को भी उसी नजर से देख कर आगे बढ़ जाने बात होगी जिससे की हम हवाई जहाज को देखते हैं । इसके साथ यदि सामान्य बातें करें तो लोगों को वह नकली सा लगेगा । नकलीपन का ठप्पा लग जाना इस दशा में उतना ही सरल है जितना कि एक गिलास पानी पी जाना । 

पर एक बात तो है ही कि हवाई जहाज से जुड़ा हर पहलू नकली तो लगता ही है फिर चाहे सुबह के पाँच बजे  सजीधजी जहाज में  खड़ी एयर होस्टेस हो या बहार चेक इन करने वाले लोग । सबके 'वेलकम '  कहने से लेकर मुस्कराहट तक में लगातार की गयी ट्रेनिंग साफ दिख जाती है । तब यदि मैं या कि कोई और अपना सामान्य व्यवहार करे तो वह वहां असामान्य सा प्रतीत होता है । इसलिए वहां तो दिखावटी व्यवहार करना और उसी में रम जाना ही मुख्या हो जाता है । अभी पिछले जुलाई की बात है किसी कम से दिल्ली जाना और आना हुआ था और इस जाने और आने का अन्तराल था बस दो दिन का । जाते हुए एयरक्राफ्ट के समय पर न पहुँच पाने के कारण थोड़ी देरी हो गयी थी और वहां बोर्डिंग काउंटर पर खड़ी लड़की से थोड़ी देर बात करने का मौका मिल गया । कई बार लगा कि वह बातचीत में रूचि ले रही है । फिर जहाज आया और मैं दिल्ली । दो दिन बाद वापस आया तो लाउंज में वह लड़की फिर से दिखी पर उस समय उसने मेरे अभिवादन का उत्तर तक नहीं दिया क्योंकि अभी यह उसका काम नहीं था । जब विलम्ब हो रहा हो तब यात्रियों को इंगेज करना उसका काम है ताकि कोई अघट न घट जाये पर उसके बाद किसी को पहचानना उसकी ड्यूटी में नहीं है ।

दिल्ली हवाई अड्डे पर भी वही कृत्रिमता छायी हुई थी । उसमे कोई आश्चर्य नहीं बल्कि अब तो मै इसका आदी सा भी हो गया हूँ लेकिन यह उम्मीद नहीं थी कि लोग उतनी सुबह भी कृत्रिमता ओढ़कर आये होंगे दिल्ली में बढती ठण्ड में चादर की तरह । लोग आसपास बैठ कर इन्तजार कर तो रहे थे लेकिन किसी से कोई बात नहीं कर रहा था । बीच में कोई बच्चा यदि अपने बाप या माँ के स्मार्टफोन पर गेम खेलने की जिद करता दिख जाये तो दिख जाये सुनाई तो वह भी नहीं देता था । हाँ एयर इंडिया लाउंज के फ्लोर मैनेजरों में से दो बंगालीओं के गालियों से भरे आपसी संवाद को यदि हटा दिया जाये तो पूरा वातावरण स्वरहीन ही था । बीच बीच में की जा रही उद्घोषणा ऐसी लग रही थी जैसे बाप से छिपकर कोई रेडियो सुन रहा हो । मैं तो कुछ घंटों को छोड़ दें तो रात भर जगा ही था इसलिए जहाज पर पहुँचते ही नींद के झोंके लेने लगा । जागता भी तो क्या होता सुबह की कृत्रिमता में होते इज़ाफे को ही समेटता रहता ।

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