आगे यह बताते चलें कि उधर सहरसा जेल में बंद आनंद मोहन भी कवितायेँ लिखता है । फांसी की सजा पाया वह व्यक्ति कल को जेल से रिहा होकर किसी नामवर या कि किसी अन्य सिंह से अपनी किताब का विमोचन करवा लेता है तो क्या हम उसे मार्क्वेज़ बना दें ? लोग इस बात को लेकर उठबैठ रहे हैं कि पप्पू ने अपनी किताब में खुलासे किए है । मेरे लिए यह जानना जरुरी है कि क्या उसने ऐसे खुलासे किए हैं कि उसने कितने निर्दोष को मारा या उसके अन्याय किया । क्या वह अपने को एक अपराधी स्वीकार करता है ? इनका उत्तर नहीं में ही होगा । बस ये है कि पैसे के गणित को राजनीति की कॉपी पर बनाने का समय है तो सब साहित्यकार हो जाएँ और आपलोग जिसको चाहें स्थापित कर दें ।
नवंबर 29, 2013
खलनायकों का साहित्य में स्वागत
आगे यह बताते चलें कि उधर सहरसा जेल में बंद आनंद मोहन भी कवितायेँ लिखता है । फांसी की सजा पाया वह व्यक्ति कल को जेल से रिहा होकर किसी नामवर या कि किसी अन्य सिंह से अपनी किताब का विमोचन करवा लेता है तो क्या हम उसे मार्क्वेज़ बना दें ? लोग इस बात को लेकर उठबैठ रहे हैं कि पप्पू ने अपनी किताब में खुलासे किए है । मेरे लिए यह जानना जरुरी है कि क्या उसने ऐसे खुलासे किए हैं कि उसने कितने निर्दोष को मारा या उसके अन्याय किया । क्या वह अपने को एक अपराधी स्वीकार करता है ? इनका उत्तर नहीं में ही होगा । बस ये है कि पैसे के गणित को राजनीति की कॉपी पर बनाने का समय है तो सब साहित्यकार हो जाएँ और आपलोग जिसको चाहें स्थापित कर दें ।
नवंबर 24, 2013
सौंवी पोस्ट
नवंबर 17, 2013
बतौर साज़िश
न ही बोलचाल
वह मुलाकात थी -
सौ साज़िशों का परिणाम
कह दूँ कि पानी पर सैर ,
वास्कोडि गामा की कब्र उनमें से एक थी
लोग बदल जाते हैं पर
प्रेम नहीं .....
हैरानी थी इसी बात की
कि
हमारा नाटक हमें नाटक नहीं लगा ।
हमारे हाथों का स्पर्श
और उनका हंसकर दूर हो जाना
तीसरा लाख चाहकर भी
प्रेम न देख पाए पर
हवा में तैरता मोह तो
परखता ही होगा ...
कौन जाने !
इस मुलाकात ने उन्माद नहीं दिया
बस पास होने ,
साथ चलने की
सुडौल ख़ुशी थी ।
जिस प्रेम ने कुछ बरस
बिता लिए
उसका दूसरे शहर में भी चलना
अपने शहर जैसा लगता है
जैसे रोज़ अपनी खिड़की से झांकना
अलग होना न हो
साजिशों पर निगरानियाँ तो
जीत ही जाती हैं
पर
यूँ खिड़की पर खड़ा होना
यूँ अफ़सोस में भी
हँसते हुए बाहर आना
ऐसे जैसे
फटे दूध की चाय
शहर जैसे शहरों में ही प्रेम
ऐसे जाता है
जैसे रूखी रोटी और नमक ।
न मिलने की तरह
होकर भी न होने की तरह
छूकर भी न छूने की तरह
हवा का लहज़ा उतना ही नर्म
जानेवालों को जाने की उतनी ही जल्दी
कि भूल गए हों -
जल्दी को भी समय तो चाहिए ही
पर प्रेम तो
वहीँ रुका था तुम्हारे पास
हर बार
कुछ न कुछ तो छूटना रहता ही है ।
इस तरह
और साजिशें करते हैं ।
नवंबर 14, 2013
एक कविता को समझते हुए
एक कविता पढाता हूँ उषा । कविता शमशेर की है और लगी है कक्षा 12वीं में । यूँ तो इसका आकर और कथ्य बहुत छोटा है पर इसके भीतर के सन्दर्भ बहुत महत्वपूर्ण हैं । हाल के दिनों में इस कविता से एकाधिक बार जूझना पड़ा और वह इसलिए नहीं कि कविता जटिल है बल्कि इसलिए कि कविता इतनी छूट दे देती है कि अपनी और से व्याख्या की जा सके ।
जब इसे मैं अपने छात्रों को पढ़ा रहा था तो स्वाभाविक है कि यह सरल कार्य नहीं रहा होगा क्योंकि जिस वातावरण को कविता में रखा गया है वह इस कदर स्थानीय है कि उसे खींच खांचकर अधिकतम उत्तर भारत तक ही फैला सकते हैं और उसमें आई वस्तुएं तो यूँ कि दिल्ली तक में समझाने के लिए ऑडियो-विजुअल का सहारा लेना पड़ जाए । बहुत मुश्किल से समझा पाया कि चौका क्या होता है और उसको राख से लीपना । ऊपर से यह समझाना तो और कठिन था कि चौके को राख़ से ही लीपने की बात क्यों की गयी है । और नीला शंख । भैया नीला शंख कहाँ होता है ।
कमोबेश यह उन पाठों में से था जिसे पढ़ाने में खासी मशक्कत लगी थी । इसके लिए हम कवि को तो जिम्मेदार नही ही ठहरा सकते पर एक छात्र के लिए और अध्यापक के लिए कवि का ऐसे क्षणों में गले का घेघ बन जाना ही लगता है । तब लगता है कि स्थानीय स्तर पर पाठ विकसित किए जाते तो बहुत बेहतर होता । क्योंकि छात्रों को पाठ में अपना परिवेश मिलता और वे सहज रूप में उसके सन्दर्भों को समझ पाते । एन सी ई आर टी अपने को विकेन्द्रित तो कर रही है साथ ही पुस्तकों के निर्माण में बहुलता को भी स्थान देने का प्रयत्न कर रही है पर स्थानीयता को कम से कम हिंदी में ले पाना उसके लिए अभी भी संभव नहीं हो पाया है । शायद वहां बैठे लोग स्थानीय के बदले हिंदी की केन्द्रीयता को बहुत मानते हैं और चूँकि वह दिल्ली से संचालित होती है तो दिल्ली सुलभ अहंकार का आ जाना कोई अनोखी बात भी तो नहीं है । बहरहाल कविता और उससे जुड़े कुछ और सन्दर्भ ।
अपने यहाँ यह 'उषा' कविता पढाकर मैं ट्रेनिंग के लिए गया था । वहां देश भर में काम कर रहे नए नियुक्त हुए शिक्षक पहुंचे थे अपनी अपनी विशेषताओं और विद्वता के साथ । थोड़े ही दिनों बाद कहा गया कि हम सबको अपन मन से कोई एक पाठ वहां डेमो क्लास के रूप में पढाना है । हममें से एक ने यह कविता चुनी पढ़ाने को । उसने कैसे पढाई और क्या इस पर न जाते हुए यह जानना जरुरी है कि उस दौरान हुआ क्या । वहां छात्र के रूप में हम सब ही बैठे थे इसलिए जो पढ़ा रहा होता था उसके लिए यह जरुरी हो जाता था कि पंक्तियों की व्याख्या में बहुत सावधानी बरते अन्यथा फीडबैक देते समय बखिया उधेड़े जाने की पूरी सम्भावना रहती थी । कविता की पहली पंक्ति पर हइ जबरदस्त विवाद पैदा हो गया । पंक्ति थी - प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे । सारा विवाद इस नीला को लेकर शुरू हुआ । शंख तक तो ठीक है पर नीला शंख ? और यदि आसमान नीला है तो शंख कहने का मतलब ? शंख एक बिंम्ब हैं और उसमें नीला रंग कवि का प्रयोग है आखिर शमशेर भी तो प्रयोगवादी हैं । नहीं जी यहाँ आसमान नीला है और यह शंख पवित्रता का प्रतीक है । अच्छा जी पवित्रता का क्या मतलब है यह तो वाहियात बात हुई । तो क्या यह मामूली कविता नहीं है शमशेर ने लिखी है । इसीलिए कहता हूँ कि शमशेर की कविता को समझ जाना इतना सरल नहीं है । और यदि वहां के समन्वयक बीचबचाव न करते तो आगे बढ़कर यह विवाद कोई भी रूप ले सकता था । और जो सज्जन पढ़ा रहे थे उन्होंने भले ही कितना घटिया पढाया हो इसी बात में खुश थे कि कुछ हो न हो मैंने अपने पढ़ाने के माध्यम से विवाद तो पैदा किया । रे पगले तूने कहाँ विवाद पैदा किया वह तो शमशेर की कविता की उस पंक्ति में अंतर्निहित ही है कि उसकी अलग व्याख्या हो सकती है । हमारी मैथिलि में एक कहावत है कुकुर माँड़ ले तिरपित( तृप्त ) ।
अब देखने की बात यह है कि जिस कविता में स्वयं इतनी अस्पष्टता हो उसे विद्यालय के छात्रों के लिए रखने का क्या तात्पर्य है । ठीक है कि अध्यापक उसे अपने सन्दर्भों से जोड़कर समझाता है और उसे बच्चा ग्रहण भी कर लेता है पर इस नीले की व्याख्या तो जांचने वाले के मन में ऐसी है कि उससे जरा भी अलग हुए तो नंबर गए । हाँ अब यहाँ यह तर्क भी दिया जा सकता है कि कविता अंक प्राप्ति के लिए नही बल्कि समझ बढाने के लिए पढाई जाती है । तो उसका उत्तर ये है कि साहेब कितना भी कर लो अब अंक आधारित पढाई ही हो रही है क्योंकि बाहर की दुनिया उसी की मांग कर रही है । ऐसी दशा में यह कविता नितांत व्यक्तिनिष्ठ अर्थ निकालने की स्वतंत्रता देती है ।
आगे छायावादोत्तर काव्य पर बात करने के लिए बाहर से सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के प्रपौत्र - क्रांतिबोध जी आये । बेचारे घर से यह सोचकर चले थे कि शिक्षकों के बीच में जा रहे हैं जो कम से कम हिंदी साहित्य में एम् ए तो हैं ही । अपना पेपर जो उन्होंने रात भर जागकर तैयार किया होगा और कुछ किताबें ताकि कहाँ सन्दर्भ की जरुरत पड़ जाये । सब धरी की धरी रह गयी । उन्होंने भूमिका ही बांधी थी और अपने विषय पर आने ही वाले कि प्रशिक्षुओं में से एक जो पता नहीं क्यों उस उषा कविता को लेकर अपनी पवित्रता वाली बात मनवाना चाह रहे थे खड़े हुए और क्रांतिबोध से आग्रह कर बैठे कि उषा कविता पढ़ा दें । व्याख्या करने भी नहीं बल्कि पढ़ाने का आग्रह । क्रन्तिबोध ने सर पीट लिया । और उन्होंने उसे ज़ाहिर भी कर दिया । उनकी सब तैयारी धरी की धरी रह गयी और बेचारे कुछ और कवियों की वे कवितायेँ पढा कर गए जो 12वीं के पाठ्यक्रम में लगी हैं । यह सीधे सीधे उस पंक्ति के 'नीला' शब्द की अंतिम परिणति थी ।
उस दिन दिल्ली से यहाँ केरल आने के लिए सुबह वाली उडान ली थी । हालाँकि वह सुबह कम और रात का मामला ज्यादा रहा। खिड़की के पास की सीट थी तो रात को दिन में बदलते देखने का अवसर मिला और वह भी खुले आकाश में । जितनी दूर तक आसमान दिख रहा था वह नीला नीला था और जब उसके आकर की बात करें तो कुछ कुछ शंख जैसा परवलित । फिर जल्दी ही नीला हल्का सलेटी होने लगा जैसे किसी छोटे बच्चे की स्लेट हो और उसके नीचे से उठ रही सूरज की लालिमा जैसे उसी बच्चे ने उस स्लेट पर लाल खड़िया घिस दी हो । हवाई जहाज जितनी तेजी से जा रहा था उतनी ही तेजी से वहाँ बदल रहे थइ दृश्य । लाल से सूरज का एक हिस्सा बाहर आया और जल्दी ही पूरा सूरज । हलके सलेटी आसमान पर बड़ी सी लाल गेंद सा सूरज । और अगले ही पल जैसे उषा का तिलिस्म टूटा हो सूरज पीला होता गया और दुसह भी । फिर नींद ने भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था । पर सच कहूँ तो शमशेर की पंक्तियों का अर्थ वहां आसमान में सूरज को उगते देख कर समझा ।जैसे मैं सूरज को जगाने उसके घर गया हूँ ।
नवंबर 10, 2013
दो साहित्यकारों की मृत्यु और फेसबुक : भाग दो
दो साहित्यकारों की मृत्यु और फेसबुक : पहला भाग
वह लेखक जो मरने पहले तक एक दुर्जय गुंडा था मरने के बाद अचानक से देवता में तब्दील हो गया । उसकी यह तबदीली उसके व्यक्तित्व के बदले हमारे व्यक्तित्व के कुछ कमजोर पक्षों की ओर इशारा करती है । यदि कोई गलत है तो वह जिये या मरे लेकिन गलत है ।
दिल्ली हवाई अड्डे की उस सुबह के बहाने
दोस्त जब छोड़ कर गए तब भी सुबह नहीं हुई थी । बाहर अँधेरा था और जिस तरह लोगों की चहल पहल जारी थी उसको देखकर तो लग रहा था कि यहाँ कभी उजाला आएगा ही नही । ऐसा सोच इसलिए रहा था क्योंकि दिल्ली हवाई अड्डे पर सुबह के चार बजे भी लोग इतने तरोताजा और अँधेरे से मुतमईन लग रहे थे कि अँधेरे या कि उजाले के बारे में सोचना भी एक शर्म ही देता । कहाँ मैं जब से इतनी सुबह का टिकट बनवाया तब से हैरान और परेशान था कि कैसे पकड़ पाउँगा सुबह की फ्लाईट और उस सुबह के आने से पहले तक कितने ही लोगों को अपनी परेशानी में साझीदार बना कर परेशां किया और कहाँ ये सारे लोग ऐसे दिख रहे थे जैसे बस अभी नहा कर निकले हों । इतनी सुबह या कमोबेश रात ही कहिये फ्लाईट पकड़ने आये तो इतने सहज कि सर घूम जाये । शायद यही तरीका है हवाई यात्रा का क्योंकि वहां सहजता इतनी है कि कुछ भी उलझा अस्वाभाविक लगता ही नहीं है । जितनी बार सोचा उतनी बार मुझे यह सहजता ही अस्वाभाविक लगी है। लोगों को अपनी परेशानियाँ छिपाते देखा क्योंकि किसी और को न पता चल जाये कि वह परेशान है और लोग उसे हीन समझ लें इससे भी बड़ा डर ये कि लोग ये न मान बैठें कि यह उसकी पहली हवाई यात्रा है । पहली यात्रा है मतलब वह अभी उस क्लास के लिए नया है जो सबसे ऊपर है । हवाई जहाज में यात्रा करना मतलब सबसे श्रेष्ट होने का सामंती भाव जो बना हुआ है उसके भीतर असहजता ऐसे दुम दबाकर बैठती है कि ढूंढने से भी न मिले । लोग अपनी असुविधा छिपाते हैं कि पकडे न जाएँ । रात के चार बजे के अन्धकार में अपने अपने घरों से अपनी और अपने स्वजनों की नींद तोड़कर उन्हें असहज कर आये लोग कितने ही स्वाभाविक से चेहरे के साथ घूम रहे थे । घोर कृत्रिम वातावरण था महराज !
हवाई जहाज का होना और उससे किसी भी तरह से जुड़ना ही बहुत बड़ी बात मान ली जाती है जिससे कोई अपना समय बचाने के लिए या कि अन्य आवश्यकता और मजबूरी में भी यात्रा करे तो वह यात्रा नहीं बल्कि सुविधा को भोगने की श्रेणी में डाल दिया जाता है । इससे न सिर्फ यात्री का व्यवहार बदलता है बल्कि उसके आसपास के लोगों का व्यवहार भी उसके प्रति बदलता है । मैं जब भी दिल्ली से यहाँ स्कूल आता हूँ तब जो भी पहली बार मिलता है यह कहना नहीं भूलता है कि मैं अभी इसलिए हवाई यात्रा करता हूँ क्योंकि मुझ पर अभी कोई बोझ नहीं है । कई बार जब मैं पैसे की तंगी की बात करता हूँ तो लोग तपाक से कह डालते हैं कि साहब आप तो हवाई जहाज से यात्रा करते हैं आपके हाथ कहाँ से तंग होने लगे । अरे भैया वह तो यात्रा का एक माध्यम है उसका पैसे की कमी से वह स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है जो आप बनाये दे रहे हैं ।
मैं यह सब लिखना तो चाह रहा था पर कई बार लगा कि इस सम्बन्ध में लिखे हुए को भी उसी नजर से देख कर आगे बढ़ जाने बात होगी जिससे की हम हवाई जहाज को देखते हैं । इसके साथ यदि सामान्य बातें करें तो लोगों को वह नकली सा लगेगा । नकलीपन का ठप्पा लग जाना इस दशा में उतना ही सरल है जितना कि एक गिलास पानी पी जाना ।
पर एक बात तो है ही कि हवाई जहाज से जुड़ा हर पहलू नकली तो लगता ही है फिर चाहे सुबह के पाँच बजे सजीधजी जहाज में खड़ी एयर होस्टेस हो या बहार चेक इन करने वाले लोग । सबके 'वेलकम ' कहने से लेकर मुस्कराहट तक में लगातार की गयी ट्रेनिंग साफ दिख जाती है । तब यदि मैं या कि कोई और अपना सामान्य व्यवहार करे तो वह वहां असामान्य सा प्रतीत होता है । इसलिए वहां तो दिखावटी व्यवहार करना और उसी में रम जाना ही मुख्या हो जाता है । अभी पिछले जुलाई की बात है किसी कम से दिल्ली जाना और आना हुआ था और इस जाने और आने का अन्तराल था बस दो दिन का । जाते हुए एयरक्राफ्ट के समय पर न पहुँच पाने के कारण थोड़ी देरी हो गयी थी और वहां बोर्डिंग काउंटर पर खड़ी लड़की से थोड़ी देर बात करने का मौका मिल गया । कई बार लगा कि वह बातचीत में रूचि ले रही है । फिर जहाज आया और मैं दिल्ली । दो दिन बाद वापस आया तो लाउंज में वह लड़की फिर से दिखी पर उस समय उसने मेरे अभिवादन का उत्तर तक नहीं दिया क्योंकि अभी यह उसका काम नहीं था । जब विलम्ब हो रहा हो तब यात्रियों को इंगेज करना उसका काम है ताकि कोई अघट न घट जाये पर उसके बाद किसी को पहचानना उसकी ड्यूटी में नहीं है ।
दिल्ली हवाई अड्डे पर भी वही कृत्रिमता छायी हुई थी । उसमे कोई आश्चर्य नहीं बल्कि अब तो मै इसका आदी सा भी हो गया हूँ लेकिन यह उम्मीद नहीं थी कि लोग उतनी सुबह भी कृत्रिमता ओढ़कर आये होंगे दिल्ली में बढती ठण्ड में चादर की तरह । लोग आसपास बैठ कर इन्तजार कर तो रहे थे लेकिन किसी से कोई बात नहीं कर रहा था । बीच में कोई बच्चा यदि अपने बाप या माँ के स्मार्टफोन पर गेम खेलने की जिद करता दिख जाये तो दिख जाये सुनाई तो वह भी नहीं देता था । हाँ एयर इंडिया लाउंज के फ्लोर मैनेजरों में से दो बंगालीओं के गालियों से भरे आपसी संवाद को यदि हटा दिया जाये तो पूरा वातावरण स्वरहीन ही था । बीच बीच में की जा रही उद्घोषणा ऐसी लग रही थी जैसे बाप से छिपकर कोई रेडियो सुन रहा हो । मैं तो कुछ घंटों को छोड़ दें तो रात भर जगा ही था इसलिए जहाज पर पहुँचते ही नींद के झोंके लेने लगा । जागता भी तो क्या होता सुबह की कृत्रिमता में होते इज़ाफे को ही समेटता रहता ।
नवंबर 03, 2013
मूल्यों की चूँ-चूँ
हिंदी हिंदी के शोर में
हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...

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घर के पास ही कोई जगह है जहां किसी पेड़ पर बैठी कोयल जब बोलती है तो उसकी आवाज़ एक अलग ट्विस्ट के साथ पहुँचती है । कोयल मेरे आँगन के पे...
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फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी है 'रसप्रिया' एक बहुश्रुत रचनाकार की बहुत कम चर्चित कहानी । इस कहानी का सबसे बड़ा घाटा यही है कि यह रेण...
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बचपन से ही कौवों को देखता आ रहा हूँ । हाँ , सभी देखते हैं क्योंकि वे हैं ही इतनी बड़ी मात्रा में । वही कौवे जो कभी रोटी का टुकड़ा ले के...