मार्च 09, 2013

सी वन दो सौ तिरेपन यमुना विहार


किसी ने पूछा नहीं कि मुंह से अपने आप निकल जाता है सी वन दो सौ तिरेपन यमुना विहार । यह एक तरह से स्थायी पता सा हो गया है । दोस्त लोग जहां दिल्ली में अपने रहने की जगह को रूम या कमरा कह देते वहीं मैं हमेशा घर ही कहता । वो दो कमरे की संरचना मेरे लिए बस रहने का स्थान हो ऐसा नहीं । एक मुकम्मल पहचान और मेरे दिल्ली में होने की स्थायी जगह जहां कितनी भी रात को चले जाओ अपना बिस्तर जरूर इंतजार करता मिलेगा । पिछले 6 साल से मेरी तमाम बातों में , यारबाजी में वो घर बराबर महत्वपूर्ण भूमिका में रहा है । किसी रात जब सबको या बहुत से लोगों को रुकना हो तो भी उसने कभी खुद को पीछे नहीं किया उसकी विस्तृत छाती पर बिस्तर को फैला कर सो जाते और मिलते सुबह के बीत जाने के बाद ।  
    मैं दिल्ली छोड़ चुका हूँ इसके बावजूद मेरी पहचान बनकर बहुत से जगहों मसलन बैंक में , बीएसएनएल के दफ्तर में दर्ज है । यहाँ भी मैं उस घर के पते से जाना जाता हूँ बावजूद इसके कि वह घर किराए का है । यारों का चलन है कि वो किराए के घर को घर नहीं बल्कि कमरा या रूम मानते हैं या फिर घर वो है जो हम सब के पिता ने अपननी अपनी जगहों पर बना रखे हैं । पर यह तो बड़ी ज्यादती है उन दीवारों से जिनहोने बिना किसी उज्र के अपने साये में रखा या रखते आ रहे हैं । मैं उस घर में आया , रहने लगा और लगातार बना ही रहा फिर एक वो भी सुबह हुई जिस सुबह मैंने दिल्ली छोड़ दी । पर उस सुबह भी इस बात को लेकर निश्चिंत था कि वापस तो इसी घर में आऊँगा कम से कम तब तक जब तक छोटा भाई दिल्ली नहीं छोडता है । सो उन दीवारों से बिना अंतिम विदा लिए चला आया । अभी कल भाई से बातें हो रही थी और बातों बातों में ही उसने बताया कि कि वह इस घर को छोड़कर लक्षमी नगर शिफ्ट हो जाएगा । तब से एक उदासी बराबर बनी है । उदासी केवल इतनी भर नहीं है कि वह घर जिसके पते से तमाम चिट्ठियाँ आती थी हाल के सारे पहचानपत्रों पर उसी का पता है और बहुत सी परीक्षा के प्रवेश पत्रों पर भी वही घर अंकित है वह एक ही झटके में अर्थहीन हो जाएंगे बल्कि उस घर ने मुझे एक पहचान दी मैं उसका शुक्रिया किए बिना चला आया । 31 जनवरी की रात उस घर में बिताई मेरी आखिरी रात थी । उस वक्त इसका गुमान भी नहीं था का कि मैं वापस इस घर में नहीं लौट पाऊँगा ।
दिल्ली में बहुत से घरों में देखा ही कि किरायेदार बदलते ही घर की पूरी दशा ही बदल जाती है फिर आप की कोई पहचान वहाँ रह नहीं जाती । एक बार हिम्मत कर के चला भी जाऊँ तो कहीं से यह नहीं पता चल पाएगा कि सेट टॉप बॉक्स के आने से पहले मैंने कितने ही महीने चोरी से केबल जोड़ के टी वी  चलायी थी । और यही घर था जहां दो दो महीने घर चले जाने के बावजूद अखबार वाले को मना नहीं किया जाता था क्योंकि मना करते ही वह अपने बकाया रूपय मांग लेता । और जब बिहार से लौटता तो गैलरी में अखबारों का जखीरा पड़ा होता । फिर इसी घर के गेट पर जब अखबार वाले दुबे जी पैसा मांगने आते और मैं अगले महीने आने की बात कह देता तो वे कहते कि दो –चार ट्यूशन क्यों नहीं कर लेते न हो तो मैं ही ढूंढ दूँ ...। पर यही घर था जिसमे घुसते ही सारी बाते भूल के हम फिर से शेर हो जाते थे ।
    यही वो घर था जिस पर लिखी एक लघुकथा ने पुरस्कार जीता था और मेरी अब तक की छपी हुई रचनाओं में इसका ही पता है । यूं तो अब फेसबुक पर ही लोग मिल जाते हैं पर वहाँ भी आज तक पते में यही घर दर्ज है । यही वो घर है जहां माँ इलाज कराने आई थी और यहीं हम दोनों भाइयों में छोटी-मोटी मुठभेड़े होती थी और शायद यही घर है जिसने मुझे बदलते हुए देखा ...
 इस घर के साथ कभी लगा ही नहीं कि हम उसके मकान मालिक न हों । और न ही आंटी ने ऐसा कभी महसूस होने दिया । हाँ जब भी कोई आता तो अपना दरवाजा खोल के झाँकती जरूर पर वह बस इस तसदीक के लिए कि कोई चोर तो नहीं आ गया । कितनी ही बार तो उनहोनने आर्थिक मदद की वह भी इस आश्वासन के साथ कि और चाहिए तो और ले लो । दिल्ली में और भी बहुत से मकान मालिक देखे पर ऐसा कहीं नहीं था कि हमने यदि सफाई नहीं की तो आंटी खुद ही हमारा बाथरूम तक साफ कर दे । ये सब केवल यह नहीं है कि हमे बहुत आराम था उस घर में बल्कि ये सकारात्मक सोच की बात है जो निश्चित तौर पर मुझे या मेरे भाई को आगे सफाई के लिए प्रेरित करता था । आंटी ने अपने पति के गुजर जाने के बाद जिस तरह से मध्य प्रदेश से दिल्ली आकार अपना रोजगार किया , भैया को पढ़ा लिखा के बड़ा किया और घर खरीदकर दिया वह प्रेरक है पर इस तरह के लोगों से प्रेरणा लेने का चलन कभी नहीं रहा है न अपने यहाँ । आंटी आज भी भैया और भाभी के काम पर जाने के बाद उनके दोनों बच्चों की देखभाल करती हैं और बिला नागा सर्दी हो या गर्मी 2.30 बजे छत से सूखे कपड़े लाने जाती है । इधर तो कई बार देखा कि उनकी सांस फूलने लगती थी । फिर मन में सोचता कि ऐसे ही किसी दिन आंटी मर न जाए । मैं उनके मरने पर उनके पास रहना चाहता हूँ पर अब तो यह भी नहीं सोच सकता कि मैं नहीं मेरा भाई तो है वहाँ । अब तो ये एक खबर ही होगी वह भी गलती से किसी को पता चल जाए तब ।
बहुत सारी भावुकताओं के बीच ये घर ही था जो सबसे जोड़े खड़ा था जहां बिजली चले जाने के बाद एक सघन पड़ोस का अहसास होता था । बार बार गैलरी में आ गए बच्चों की
  चिड़ी देने की झुंझलाहट आज बेकार जान पड़ती है ।
  यह कुछ कुछ उस घर की मातमपुर्शी सा आभास दे रहा है । ऐसा लग रहा  है कि वह घर न रहा । पर भैया तुम सलामत रहो । तुम रहे तो फिर से कोई रहने आएगा । एक नयी शुरुआत होगी । कुछ नए रिश्ते बनेंगे तुम्हारे साथ । हम भी यूं ही कभी भटकते हुए आ जाएंगे गर्मी की किसी शाम को 6 बजे के बाद सप्लाय के ठंडे पानी से नाहने । पर इतना दुख तो जरूर रहेगा कि अब वो नाहना केवल मन में होगा ! 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही भावुक कर गया मुझे यह छोटा सा आलेख क्योकि मै खुद दो बार तुम्हारे साथ और एक बार तुम्हारी अनुपस्थिति में इस घर वो सब महसूस कर चुका हूँ जो सिर्फ "घर' में ही किया जा सकता है अपनापन, रिश्ते, भावनाएं और मिठास. मकान मालकिन से हम तब और प्रभावित हुए जब अभी हम लोग गिरते पानी में सुबह सुबह पहुंचे थे और उन्होंने हम सबके लिए गर्मागर्म चाय और बिस्किट भिजवा दिए और आते समय बोले जब भी दिल्ली आओ यहाँ जरुर आना और मिलकर जाना...........घर छोड़कर जाने का दुःख अपना ही होता है और उन यादों को बातों को कोई समझ नहीं सकता. मैंने खुद ने पिछले पन्द्रह बरसों में चार शहर बदले है और चार घरों में रहा हूँ तो अपनी दुनिया बसाने और रूम या कमरे को "घर" बनाने की प्रसव पीड़ा से मै वाकिफ हूँ और रिश्ते हर उस दरों दीवार से बनाए है जिन्हें सींचने में पानी नहीं खून लगा था आलोक ..........

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    1. Dada ... rishte kewal manushyon se nhi bante .... aur us par jab manushy bhi aapka apna hi vistaar ho to kya kahna fir ....par ye sab itna asthayi kyun hota hai ye samajh nhi aata ....

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  2. sach yaar ... c1/253....hamesha humlogo ko yaad rahega....apne strugle k din....lekin shanti thi...aaj sub kuch thik hai fir bhee wo samay yaad aata hai....na jane kitni baar humne waha baith kar gokalpuri ki jalebia khai thi...dost aaj wo mithash kaha mil pata hai

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स्वागत ...

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