मार्च 01, 2013

तो आप जीत नहीं सकते


आपको डर नहीं लगता ?
ये उन बहुत से सवालों में से एक है जो मुझसे कई बार पूछा गया । बचपन का समय होता तो शायद क्या पक्के तौर पर कह देता हाँ मुझे डर लगता है । डरपोक बच्चे के के तमाम गुण थे उस समय । मैं रात को एक कमरे से दूसरे कमरे में नहीं जा सकता था , अंधेरा होते ही न पता नहीं क्या हो जाता था ऐसा लगता था कि कोई पीछा कर रहा हो और मौका मिलते ही वह मुझ पर हावी हो जाएगा और न जाने क्या क्या । उन्हीं दिनों रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बचपन के बारे में पढ़ा यह उन्होने खुद ही लिखा था और कोर्स में लगे होने की वजह से पढ़ना ही था अन्यथा न तो मैं स्वयं इतना ज़हीन था कि कोर्स के अलावा भी  किताबें पढ़ने की कोशिश करता और न ही हमारे माता – पिता का इस ओर ध्यान था कि वो ये देखें कि हमारा बच्चा क्या पढ़ रहा है । अपने देश में सामान्य तौर पर माँ-बाप अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति उदासीन ही होते हैं और मेरे माँ-बाप अनोखे हों ऐसा भी नहीं है । खैर , विश्वकवि का किस्सा बीच में ही छुट गया ... उन्होने जो लिखा था उसे आज लगभग बीस साल बाद उसी तरह बताना तो संभव नहीं पर मजमून याद है ... शाम होने के बाद जब अपने कवि एक बड़े कमरे के पास से गुजरते हो उन्हें लगता कि उनके पीछे कोई है और इसी खयाल से उनकी पीठ सनसन करने लगती । पढ़ते ही मुझे लगा कि चलो मैं अकेला नहीं हूँ डर तो टैगोर को भी होता था । आगे जब कोई बड़ा मेरे डर का मज़ाक उड़ाता तो मैं कह देता कि टैगोर को भी डर होता था पर पता नहीं क्यों लोग इस पर और हंस पड़ते थे । एक बार गाँव से मेरे चाचा आए रात के खाने के बाद ऐसे ही बातें हो रही थी और कहीं से मेरे डर की बात छिड़ गयी । चाचा ने मेरे लिए एक रख दी , यदि मैं अपने घर से एक कीलोमीटर दूर स्टेट हाइवे पर चला जाऊन तो वो मुझे एक जींस की दो पैंट देंगे ... । पैंट का लोभ तो बहुत हुआ पर हिम्मत नहीं पड़ी । मैं हिला तक नहीं और ऊपर से डर पर इतनी बातें हो चुकी थी कि और डर लगने लगा ।
ऐसे ही एक दूर के रिश्तेदार हमारे घर आए वे अपने को ओझा कहते फिरते थे । घर में जगह कम होने की वजह से उन्हे मेरे बिस्तर पर ही जगह दी गयी । उस रात उन्होने जो अजीबोगरीब किस्से भूतों के, डायनों के सुनाये कि मत पूछिए । अगले कई महीनों तक वो विभिन्न चरित्र कहीं किसी अकेली जगह में , रात के अंधेरे में मेरे मन में आ जाते और ऐसा लगता कि ये अभी बाहर आ जाएंगे । हालात ये हो गए थे कि मैं रात को बिस्तर ने नही हिलने के कारण बिस्तर गीला करने लगा था ।
फिर पता नहीं कब वो दौर आया जब ये समझ में आ गया कि ये सब हमारे वहम हैं , हमारी कल्पनाएं हैं । फिर मैं अंधेरे में कहीं भी जाने लगा था । मुझे नहीं पता कि सबके साथ इसी तरह होता है या नहीं । ऐसा होता होगा नहीं तो मान लीजिये किसी व्यक्ति के बच्चे को भय हो रहा हो और वह व्यक्ति उसका डर भागने के बजाय खुद ही भयभीत होकर खड़ा रहे तो कितनी हास्यास्पद दशा हो जाएगी । ऐसा होता भी है पर उस समय कारण दूसरे होते हैं । मुझे लगता है कि ये भूत , डायन आदि के भय उम्र बढ्ने के साथ धीरे धीरे खत्म हो जाते हैं ।
अभी तीन साल पहले मध्य प्रदेश के भीमबेटका गया हुआ था । बिना किसी तैयारी और सुविधाओं के गया था और वहाँ सुविधाएं हैं भी नहीं । गुफाओं तक जाने के लिए के लिए यदि आपकी अपनी सवारी है तो ठीक नहीं तो ऊपर के 3 – 4 किलोमीटर पैदल ही जाने पड़ते हैं । मई महीने की चिलचिलाती धूप में पहाड़ी पर पैदल ! आज सोचता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं ! दूर दूर तक कोई नहीं था पत्ते इस कदर सूख गए थे कि जरा सी हवा के चलने से वो खड़खड़ाने लगते , यहाँ तक कि मक्खी की भिनभिनाहट भी बहुत तेज सुनाई देती थी ! पर पता नहीं मन ने ऐसा क्यों ठान रखा था कि आज तो उन पाषाण युगीन गुफा चित्रों को देखना ही है । मैं चलता रहा । तभी मोबाइल पर एक दोस्त का फोन आया । उसके बजने की आवाज़ उस वीराने में इतनी तेज़ थी कि मैं डर के मारे चौंक पड़ा । पर उन एक दो मिनटों के बाद सारा भय जाता रहा । आज सोचता हूँ तो एक अलग सी अनुभूति होती है कि एक दिन मैंने उन पाषाण युग के चित्रों को अकेले देखा दूर – दूर तक कोई नहीं था । उस दोपहरी के एक एक क्षण याद हैं । वहाँ से भोपाल तक आने के लिए भी ठीकठाक जद्दोजहद करनी पड़ी थी ।
अभी उस दिन फिर एक छात्र  ने पूछ दिया कि मुझे डर लगता है या नहीं । मुझे पता भी चला कब बड़ी सहजता से उत्तर निकल गया – नहीं । तो उसने कहा कि फिर आप जीत नहीं सकते । मैंने पूछा मैं क्यों नहीं जीत सकता तो जवाब मिला कि डर के आगे जीत है और चूंकि आप डरते नहीं इसलिए आपके जीतने पर संदेह है । उसके हिसाब से यदि जीतना है तो डर होना जरूरी है । ड्यू के विज्ञापन की इस पंक्ति ने उसकी बिक्री पर क्या प्रभाव डाला नहीं पता पर छोटी उम्र के लोगों को एक मुहावरा तो दे ही दिया । जहां कहीं डर की बात आई कि चिपका मारा – डर के आगे जीत है ! यहाँ तक तो फिर भी ठीक है लेकिन ये छात्र तो उससे भी एक कदम आगे पहुँच गया है । अब यदि डर नहीं है तो जीतना कठिन है । यदि डर के आगे जीत है वाले मुहावरे को सही माना जाए तो ये तर्क भी पूरी तरह वैध नजर आता है । पर क्या डर इतनी सहज अन्विति है भी ?
मेरे अपने अनुभव जो हैं उस आधार पर मैं यदि देखूँ तो डर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते हैं । वे तमाम किस्से – कहानियाँ हमें आज भी वहीं के वहीं जमे हुए हैं । यदि भूत –प्रेत शाश्वत होते हैं तो आज कल के तकनीक-दक्ष भूतों के किस्से क्यों नहीं मिलते ? जबकि अकालमृत्यु की मात्रा और प्रतिशत दोनों बीते हुए समय की तुलना में आजकल काफी ज्यादा हैं । इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये उस समय की संकल्पना है और किस्से हैं जब आबादी बहुत कम थी या लोगों के बीच उतना संपर्क नहीं था । फिर एक किस्सा अपनी आगे वाली पीढ़ी में निविष्ट कर पिछली पीढ़ी चली गयी और ये क्रम बहुत हाल तक बना रहा । जब संयुक्त परिवार टूटे तो किस्से कहानियों की परंपरा को भी झटका लगा और वर्तमान समय में देखें तो यह बिलकुल गौण ही मालूम पड़ती है ।
जब मैं अपने नानी के यहाँ रहता था उस दौरान उस गाँव के एक बुजुर्ग थे गुणानंद । उनका अपना आम का बगीचा था और इत्तिफाक़ से हमारे नाना के आम के पेड़ भी वहीं पास में थे । गर्मियों में जब आम बड़े होने लगते तो उनकी रखवाली जरूरी हो जाती फिर घर के बुजुर्ग और बच्चे ही उनकी रखवाली करते थे । गरम होकर पिघलते हुए उन दिनों में गुणानंद हम बच्चों को बहुत से किस्से सुनाते । उसी तरह डोमि ठाकुर जिन्हें हम ठाकुर बाबा कहते थे फिर मेरे नाना की माँ वो बुढ़िया भी गज़ब किस्सागो थी । इनलोगों ने जो किस्से सुनाये उनमें भूत –प्रेत भी थे और डायन भी । निश्चित तौर पर मेरे मन में दर ने उन्हीं दिनों आकार लिया होगा । आज ये तीनों नहीं हैं और उस गाँव में बुजुर्ग आज भी हैं साथ ही बच्चे भी पर किस्से कहानियों का सिलसिला जाता रहा । अलबत्ता हर साल गर्मियों में आम जरूर आते हैं । अब बच्चों के माँ – बाप के मन में भूत-प्रेत की जो छवि बनी है वे उसी से काम चलाते हैं । हाँ निकट के समय में किसी की मृत्यु हुई हो तो उसका डर बच्चों पर स्वाभाविक रूप से हावी हो जाता है ।
परंपरा से चले आ रहे किस्सों को सहारा बना कर और उसमें अपनी आवश्यकता के अनुरूप परिवर्तन कर माँ – बाप और आस पास के लोग ही बच्चों में डर भरते हैं । अपने देश में पालन-पोषण का सबसे सामान्य अर्थ लिया जाता है – किसी तरह बच्चे का पेट भरना चाहिए और किसी तरह बच्चा सामान्य कार्यकलाप में व्यवधान न उत्पन्न करे , यह भी कि कोई जिद भी न करे । इन सभी स्थितियों से निबटने के लिए माता-पिता भय का ही सहारा लेते हैं । बचपन की शुरुआत में ही भय कभी कभी इतना गहरे से मन में जम जाता है कि बड़ी उम्र तक नहीं निकलता । मैं अपनी एक रिश्ते की नानी को जनता हूँ जिनका पुलिस का डर आज तक नहीं गया ।
माता पिता किसी तरह से बच्चे को बड़ा तो कर देते हैं पर वह बहुत दिनों भय से नहीं निकल पाता । फिर वह बड़ों से भी डरने लगता है , बहुत से ऐसे लोग देखे जो तरह तरह की डर के शिकार हो जाते हैं यहाँ तक कि डर के मारे कक्षा में प्रश्न तक नहीं पूछ पाते ।
मैं अपनी बात करूँ तो कभी कभी आज भी डर जाता हूँ ... पर यह डर निश्चित रूप से भूत प्रेत या डायन का नहीं होता है ।     

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