मई 15, 2014

हमें साथ रहना नहीं आता !


आज मेट्रो में चलते हुए मेरे भाई राजीव ने पूछा कि उत्तर पूर्व के लोग फिल्मों में क्यों नहीं आ पाते ... सवाल बड़ा सही था पर उसका सबसे चलताऊ उत्तर ये हो सकता है जो कि मैंने दिया भी कि चूँकि फिल्मों से हमारा मतलब ज्यादातर हिंदी फिल्मों से होता है और उन्हें हिंदी नहीं आती और आती भी है तो उनके उच्चारण की हिंदी इसीलिए वो इधर स्वीकार्य नहीं है ... पर क्या सच बात यही है ? 

सोचिये तो लगता है कि हम उत्तर भारतीय अपना स्थान और सम्मान तो चाहते हैं पर पूर्वोत्तर और दक्षिण के लोगों के लिए जरा सी स्पेस छोड़ने के लिए राजी नहीं हैं . 
दक्षिण को तो भूल भी जाइये क्योंकि वहां विकास अपने तरीके से ही हुआ पर उत्तर से बढ़िया हुआ है लेकिन पूर्वोत्तर ? 

पूर्वोत्तर के लिए हमारे पास कोई प्लान नहीं है ... जो थोड़े बहुत हैं भी वे वहां के लोगों पर  दोषारोपण के अलावा कुछ नहीं करते ! वहां की ख़बरें मुख्यधारा की मीडिया में नहीं आती , और आ गयी तो पूरी नहीं आती . इसका एक उदाहरण हमारी दोस्त गायत्री ने दिया कि मनोरमा इयर बुक में असम की राजधानी गुआहाटी दी हुई है ! इस बाबत मैंने अपने एक दोस्त से यूँ ही पूछ लिया कि असम की राजधानी कहाँ हैं तो उसका जवाब था गुआहाटी ! मनोरमा इयर बुक से बहुत से प्रश्न सभी प्रतियोगिता परीक्षाओं में पूछे जाते हैं ! जहाँ राजधानी के नाम में इतनी बड़ी गड़बड़ी हो सकती हो वहां दूसरे आंकड़ों को संदेह से देखना स्वाभाविक है . इस तरह की जानकारी वाले लोग यदि सरकारी सेवा में जाते हैं तो उत्तरपूर्व के प्रति क्या नजरिया रखेंगे या रखते हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन नहीं है ! 

सरकारी सेवा में, खेल में, मनोरंजन में पूर्वोत्तर की भागीदारी नगण्य है . एक दो नाम गिनाये जा सकते हैं . पर क्या यह उसी तरह है जिस तरह कि उत्तर भारतीय इन क्षेत्रों में भरे पड़े हैं ... ? 
पूर्वोत्तर का सिनेमा हमारे भोजपुरी सिनेमा से उत्कृष्ट फिल्में दे चुका है और उधर का रंगमंच भी यहाँ से कहीं बेहतर है फिर भी उनकी भागीदारी मुख्यधारा में बहुत कम है . बिहार-यू पी के लोगों का मजाक उड़ाकर बहुत सारी फिल्में बन जाएँगी पर पूर्वोत्तर का जिक्र हमारी फिल्मों में मजाक के रूप में भी नहीं आता है ! अभिनेता-अभिनेत्री बनाने की बात तो बहुत दूर है ! 

एक खेल है हमारे यहाँ क्रिकेट ! सारा भारत उसके साथ उगता डूबता है पर प्रतिनिधित्व के नाम पर यहाँ भी उत्तरपूर्व खाली हाथ है . जबकि निजी स्वामित्व वाले विद्यालयों को छोड़ भी दें तो नवोदय और केन्द्रीय विद्यालयों जैसे सरकारी पैसे से चलने वाले विद्यालयों से हर बार ख़बरें मिलती हैं कि उत्तर पूर्व रीजन के फलां ने इतनी बढ़िया बैटिंग या बोलिंग की है कि उसका चयन कम से कम अंडर -19  में होना ही चाहिए ! पर न तो वहां होता है और न ही उससे आगे ! यहाँ यह कहा जा सकता है कि पूर्वोत्तर के लोग फ़ुटबाल के मुरीद हैं पर यह आधा सच है . बंगाल से सौरव गांगुली के चयन के बाद पूर्वोत्तर में क्रिकेट खूब लोकप्रिय हुआ था लेकिन उचित प्रोत्साहन के आभाव में बात आगे नहीं बढ़ पायी . क्रिकेट की बीसीसीआई की टीम को छोड़ भी दें तो आई पी एल तक में बेंच पर बैठा उत्तरपूर्व कोई नहीं दीखता है . 

अब बात क्रिकेट की चल पड़ी है तो दक्षिण अफ्रीका का  उदाहरण याद आया है . वहां अश्वेत लोगों को मुख्यधारा में लाने के लिए क्रिकेट से लेकर बहुत से खेलों में उनके लिए स्थान आरक्षित कर दिया है . यह उदाहरण भारत में भी अपनाया जा सकता था . तब शायद उत्तरपूर्व हमसे जुड़ा हुआ महसूस करता ! 

हम चुनावी फायदे के लिए आरक्षण की बात तो करते हैं पर देश के सुदूरवर्ती लोगों को जोड़ने के लिए आरक्षण की बात नहीं करते हैं . हाँ घुमा-फिरा कर वही नौकरियों वाले आरक्षण की बात लोग जरुर करते हैं . पर यहाँ यह सोचना जरुरी है कि सरकारी नौकरियां इतनी नहीं हैं कि बहुत बड़ा आकर्षण पैदा कर सके . पर फ़िल्मों और क्रिकेट में उनकी भागीदारी को यदि पक्का किया जाये तो बात बदल भी सकती है . 

पर मुझे नहीं लगता है कि कभी ऐसा हो पायेगा ... होगा बस यही कि चीन दोनों ओर से एक दूसरे के प्रति अविश्वास होगा आरोप प्रत्यारोप होंगे और लगातार तनाव बना रहेगा ! 

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