जून 19, 2013

खाली जेब और गरीब मानने का चलन



ये दिन ऐसे हैं कि कह सकता हूँ कि गरीबी में काट रहा हूँ  क्योंकि आज तक जो सीखा है उसके भीतर गरीबी की समझ केवल पैसे के न होने से ही बनती है । जेब में पैसे न हो तो गरीब और हों तो जो कह लीजिये पर अभी तक दूसरी स्थिति आई नहीं है । वो दशा बनते बनते रह जाती है और मन  यह महसूस करते करते कि गरीबी के इतर भी कोई भाव हो सकता है । नौकरी सरकारी लेकिन नयी है । सो सरकार को अब तक  विश्वास नहीं हुआ है कि मैं उसी के साथ रहूँगा इसलिए छुट्टियों के दो महीने का वेतन अपने पास ही रख लिया है और वह तभी जारी करेगी जब उसे विश्वास हो जाएगा कि मैं भागने वाला नौकर नहीं हूँ । यह अवधि साल भर की भी हो सकती है और छह महीने की भी । आपसदारी की बात तो ये है कि मैं भी सरकार पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ ! मेरा अविश्वास कुछ और बातों को लेकर है । दूसरे, सरकार को यह समझना चाहिए कि आज के भारत में कोई भी उसकी चाकरी छोडने से पहले हजार बार सोचता होगा ।  खैर , जब जेब खाली है तो गरीब मानता हूँ खुद को क्योंकि ऐसा ही मानने का चलन है । ये ऐसी स्थिति है कि कुछ ही पानी बचा हो आपके पास और प्यास तेज हो जाए ! जब केरल पहुंचा था तब अंटी में कुछ खास रह नहीं गया था । पिताजी के हवाले से जो प्राप्त हुआ था वो जहाज के किराए से टैक्सी तक के किराए में चला गया और अपनी कुल संपत्ति सैकड़ों में पहुँच गयी ।


नवोदय की व्यवस्था है सो रहने - खाने चिंता नहीं है और इसी ने एक बेफिक्री भी दे रखी है कि चलो जी कुछ सौ रूपय भी हों तो जीवन चल सकता है खाने और रहने के अलावा चाहिए ही क्या ! और वह मिल ही रहा है । लेकिन बचपन में एक कहानी पढ़ी थी संस्कृत की किताब में उसमें एक चूहे ने अपने बिल में बहुत सारा धन जमा कर रखा था ।  वह अनायास अपनी बाहें फड़का कर चलता था । उसे लगता था वह सबसे धनी है । जंगल में चोरों को इसकी भनक लग लग गयी फिर एक दिन चूहे के बाहर निकलते ही चोर सारा धन लेकर चंपत हो गए । धन के चोरी हो जाने के बाद चूहा बहुत दिनों तक घर से बाहर ही नहीं निकला और जब निकला तो उसकी चाल की सारी अकड़ गायब थी । संस्कृत में पढे ज्ञे पाठ से संस्कृत में केवल एक टर्म याद आ रहा है - धनीनंबल्ल्वांलोके । इसका अर्थ जो भी हो पर इस कहानी से यह समझ आया था कि पैसे की कमी हो जाने से व्यक्ति की अकड़ खत्म हो जाती है - उस चूहे की तरह । 


कुछ तो यहाँ काम के घंटे  इस तरह के हैं और दूसरा यह भी कि प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो ही जाती है सो बाहर बाजार की ओर रुख बहुत सोच विचार के पहले नहीं होता । पर जब बाजार की ओर जाना होता है तो बाजार बहुत आकर्षक नहीं लगता । जो जरूरत की सामाग्री है वही लेकर आना हो तो इधर उधर देख कर भी एक अपरिग्रह सा बना रहता है क्योंकि  मन अनावश्यक भटकता ही नहीं । मन को पता है कि बाहर जेब में उतने ही पैसे हैं जितने में आवश्यक सामाग्री आ जाए । सो मन बहुत सारी चीजों को प्राप्त कर लेने की दृष्टि से देखता ही नहीं । मुझे पता है कि यह मेरे मन की स्थायी स्थिति है जो बहुत हद तक परिस्थितियों के दबाव में बनी है पर ऐसी स्थिति यदि लगातार बनी रहे तो मन बहुत नियंत्रित हो सकता है । मन पर इस तरह का नियंत्रण एक तरह से सब इच्छाओं के निरोध की स्थिति है । पर क्या सभी इच्छाओं का दमन हो सकता है ? यदि ऐसा है तो वह बाहर से तो बहुत अच्छी स्थिति होगी पर आंतरिक रूप से बड़ी जटिल दशा होगी । मन को पता होगा कि यह बाहर के लिए बनाया गया झूठ है ।  ठीक उसी तरह जैसे आँख बंद कर लेने से भी  दृश्य दिखते रहते हैं बाजार का लोभ भीतर बना ही रहता है । हठ से किए जा रहे योग कि तरह !


 ऊपर ही स्पष्ट कर दिया है कि यह चेतन पर जड़ की विजय की तरह से केवल क्षणिक बाह्य बदलाव है फिर भी इसने बाजार को देखने की एक दृष्टि तो दी ही है । मन पूर्ण है तो बाजार मेरे लिए निरर्थक है । मतलब यदि यह पहले से ही तय है कि क्या और कहाँ से खरीदना है तो बाजार की पूरी रौनक और उसके रंग और उसका आकर्षण मेरे लिए निरर्थक है । जरूरत का समान खरीदते ही पूरा बाजार आसानी से मेरे लिए नहीं के बराबर हो जाता है । चला आता हूँ चुपचाप एक अनावश्यक हाय-तौबा से बचते हुए । यह स्थिति मजबूर करती है उन दिनों को याद करने के लिए जब जरूरत न होने पर भी व्यर्थ में कुछ भी खरीदने के लिए बाज़ारों में यहाँ-वहाँ भटकता था । दो तीन साल पहले हम कुछ दोस्त चाँदनी चौक से सदर बाजार और फिर नयी सड़क यूं ही भटकते रहते थे और कितनी ही बार बेकार और अनावश्यक समान खरीद लाते थे । ऐसे ही मैंने एक साग काटने की मशीन खरीदी जो बिना एक भी दिन प्रयोग में आए हुए छज्जे पर पड़ी है वहाँ बिहार में ।


पर्चेजिंग पावर एक गर्व देता है जिसकी हीनता मैं पहले भी महसूस किया करता था क्योंकि बेरोजगारी थी और आमदनी कुछ थी नहीं । वहीं दोस्तों में इसको लेकर एक उन्मुक्तता थी जिसे वे लगातार ज़ाहिर भी करते चलते थे । उन क्षणों में अपने को मैं बहुत स्पष्टवादी पाता रहा हूँ जो सीधे स्वीकार करता था कि उसकी जेब में पचास रूपय हैं । ये रूपय किस मूल्य के हैं ये तो हम सभी जानते हैं पर इसके होने भर से के आत्मविश्वास होता था  कि कुछ तो है पास में ! कम पैसों में काम चलाने का ढंग सीखने की जरूरत नहीं थी ।  मेरे बचपन  के बिहार सरकार के किसी कर्मचारी के बच्चों के लिए यह अनुभव आधारित ज्ञान था जो वे सहज ही सीख लेते थे । हमारे घर स्थिति अभी भी कमोबेश वैसी ही है पर बाकी घरों का अब कह नहीं सकता क्योंकि वह सब बहुत दूर हो गया । बहरहाल एडजस्ट करना सीखने की जरूरत नहीं थी । अपने दोस्त सभी यू जी सी की फ़ेलोशिप पाने लगे थे सो उनका अंदाज तो अलग रहता ही था क्योंकि उनके पास एक क्रय शक्ति थी और उसी के अधीन उनहोंने मुझ पर भी थोड़े बहुत खर्च करने की नैतिक ज़िम्मेदारी ले ही ली थी । पर यह एक हीनता का भाव देती थी जिसे मित्रों पर ज़ाहिर तो नहीं ही होने दी अलबत्ता मैं यारबाशियों में कम शामिल होता था । लगातार तो कभी नहीं । अपने दोस्तों की फ़ेलोशिप से बने उनके पर्चेजिंग पावर का अनुभव है और फिर कुछ आए दिन के अनुभव तो हैं ही जो ये बताते हैं कि बाजार के पास व्यंग्य की शक्ति है ।


विश्वविद्यालय के बस स्टॉप पर बहुत देर तक खड़े रहने के बाद भी कोई बस नहीं मिलती थी तो सड़क पर दौड़ती चमकती गाड़ियों को देख कर कोसने को जी चाहता था । वह एक कठिन व्यंग्य जैसा ही होता था अपने लिए । जैसे किसी ने आँखों में उंगली डालकर दिखाया हो कि देखो उसका नाम गाड़ी है जिससे तुम वंचित हो यदि वह तुम्हारे पास होती तो तुम अब तक घर पहुँच गए होते । शायद यही मेरे उस मित्र ने भी महसूस किया हो जब कोई उसे कहता है कि तुम्हारे पास वैसा फोन क्यों नहीं है जिसमें सारी सुविधाएं रहती हैं और ऐसा ही मेरे भाई ने जब उसे लोग कहते हैं कि उसको अब तो एक गाड़ी ले ही लेनी चाहिए । पर यहाँ रुकना पड़ेगा । बाजार का मुझ पर किया गया व्यंग्य मेरे दोस्त और मेरे भाई से अलग तो नहीं पर सापेक्षिक अंतर लिए तो जरूर है । जैसे जिसके पास बस में देने के पैसे नहीं है उसके लिए बस एक व्यंग्य हो सकता है । मेरे नानीगाँव से कई बार यह कोशिश हुई कि गाँव से स्टेशन तक की सीधी यातायात सेवा हो जाए । कई जीप वालों ने तिपहिया वालों ने ज़ोर लगाया ।  कुछ दिनों तक गाडियाँ चलायी भी लेकिन कुछ दिनों के बाद बंद कर देनी पड़ी । इसका कारण था सवारी की कमी । लोग उन गाड़ियों के सामने से पैदल ही निकल जाते थे क्योंकि गाड़ी में बैठकर स्टेशन जाना उनके लिए एक सुविधा थी जिसका उपभोग करने के लिए उनके पास 10 रूपय नहीं थे । तब मैं बहुत छोटा था फिर भी उन वाहन मालिकों का व्यंग्य समझ ही सकता था । व्यंग्य की यह शक्ति बाजार के चरित्र में निहित है और इसी ने बाजार को जरूरतों को पूरा करने वाली व्यवस्था के बदले आज का चरित्र प्रदान किया है ।


अभी गरीबी को केवल इसी तरह समझा है जिस तरह समझाया गया । लेकिन इधर के दिनों में इसे दूसरी तरह से समझने के लिए भले ही बाध्य हुआ हूँ लेकिन समझ में बदलाव की खुशी है । रामकृष्ण परमहंस का अपरिग्रह या कि कबीर का साईं इतना दीजिये आदि भोग कर पहली बार समझ पाया । जेब खाली होने पर अब बेचैनी नहीं होती । आवश्यकता को जेब से तय होते देख रहा हूँ । मन बाजार में यूं ही फिरने को भी नहीं करता । अब जो हालात हैं उसमें मैं पैसे नहीं होने को एक स्थिति मानने लगा हूँ । लेकिन यहाँ भी एक पल ठहर कर तय कर लेना होगा कि यह जो स्थिति है वह केवल तब है जब मेरे खाने रहने की कोई चिंता नहीं है उस तरफ से बेफिक्री है । उस दशा की केवल कल्पना ही की जा सकती है जब जेब भी खाली होती और रहने खाने का भी कोई इंतजाम नहीं होता । पर एक बात यह भी है कि अब यदि वह दशा भी आएगी तो मन में उसके प्रति घबराहट कम ही होगी ।

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