फ़रवरी 19, 2013

अपनी तरह का नहीं पर ...


हर जगह का अपना स्वाद होता है यह उसकी हवा और वहाँ के खाने तक में पता चलता है । जाहीर है ये सब उसके वातावरण और उपलब्ध संसाधन पर ही आधारित होगा । फल ज्यादा पैदा होते हों तो खाने में फल की प्रधानता और यदि सूखे अन्न ज्यादा हुए तो उसके विभिन्न रूप मिल जाते हैं । यही हाल कुछ अनाजों की कमी को लेकर भी है जैसे राजस्थान में धन की न्यूनतम उपलब्धता के कारण वहाँ छठे-छमासे चावल खाया जाता है । मेरे कम से कम दो दोस्त हैं जो जो मेरी रसोई में चावल खाने से पहले दो बार कह चुके हैं कि उनके यहाँ चावल तीज-त्योहारों पर ही खाया जाता है ।और वह भी इस तरह नहीं कि पनि में उबाल कर भात बना लिया बल्कि कायदे से दूध चीनी डालकर चावल को पकाया जाता है ।
            पिछले कुछ दिनों से केरल में हूँ । जब दिल्ली में था तो नितांत उत्तर भारतीय खाना और अब हबकी यहाँ हूँ तो विशुद्ध दक्षिण भारतीय व्यवस्था । यहाँ चावल ज्यादा है , नारियल ज्यादा है साथ ही मसाले ज्यादा हैं । जो काली मिर्च देश के उत्तर में इतनी विशिष्ट है उसकी लता यहाँ किसी भी पेड़ के तने पर चतरी मिलेगी यही हाल लोंग और इलायची का भी है । हाँ तेजपत्ते के पेड़ तो बिहार में भी देखे हैं । यहाँ रहते हुए अभी महीना भी नहीं लगा है सो खाने –पीने में एक समंजस्य बनाने जैसा पहला और महत्वपूर्ण काम निरंतर चल रहा है । पहला इसलिए कि हवाई अड्डे से जब टॅक्सी ली थी तभी अंदाज़ा हो गया था कि खाने के समय तक पहुंच ही जाऊंगा और हुआ भी ऐसा ही । इस संस्था के भीतर आकर जो पहला काम किया वह था भोजन । उबले मोटे चावल की भात (चौर ), सोयाबीन जैसे किसी अनाज की मसालेदार घूघनी , केले की भुजीया और सांभर । दिल्ली की बात छोड़ दें तो बिहार में हम अधिकतर ऐसा ही चावल प्रयोग में लाते हैं जिसे उसना चावल कहा जाता है । उसना इस लिए क्योंकि धान को उसनने (उबालने) के बाद सूखाकर चावल निकाला जाता है । सांभर का मसला वैसा ही है जैसा उत्तर भारत की कोई बहुत रस वाली तरकारी हो । जो सांभर यहाँ मिलते हैं उनमे दाल नहीं होती है सब्जी और मसालों से ही ये तैयार होती है । सो चावल और सांभर से लगभग परिचय था ही । सामने थी दो बिलकुल नयी चीजें – सोयाबीन के आकार वाले किसी अनाज की घूघनी और केले की भुजीया । भुजिया भी ऐसी कि केले का छिलका उतारे बिना ही उसे काट दिया गया था । उस अजीब स्वाद वाली घूघनी और भुजिया को किसी भांति भीतर ठूँसा पर चौर और सांभर नाद तक चांप दिया । अब बारी थी पीने के पानी की । गरम पानी मिला पीने को वह भी हल्की लालिमा के साथ । स्वाद में कोई अंतर नहीं था पर गरम और हल्का लाल पानी ? पुछने पर पता चला कि पानी को एक पेड़ पदीमुखम की छाल के साथ उबाला जाता है जिससे उसमें मौजूद अशुद्धियाँ समाप्त हो जाती हैं उस पेड़ की छाल के कारण ही इसका रंग लाल हो जाता है । यह पूरी प्रक्रिया एक आयुर्वेदिक प्रक्रिया है ।
 अगले दिन सुबह के नाश्ते पर मैस पहुंचा तो तसले में सफ़ेद सा पाउडर और केले के गुच्छे रखे थे । वह सफ़ेद चूर्ण पुट्ट कहलाता है । पुट्ट को चावल से तैयार किया जाता है । चावल और कच्चे नारियल को दरदरा पीस कर बांस की पाइप में भरकर भाप से पकाया जाता है । एक सहकर्मी ने बताया कि , इसे फिश करी या किसी भी नॉन-वेज करी के साथ खाया जाए तो बहुत मजा आता है । बहरहाल वहाँ केले को पुट्ट में मथ के खा लिया स्वाद ठीक ही था । आगे दोपहर के खाने में पुनः सांभर चावल साथ में नारियल की भुजिया ।  चावल के अलावा हरेक व्यंजन में करी पत्ता । रात के खाने में भी चावल सांभर । बस भुजिया और सुखी सब्जी बदलती रही ।
    चावल सांभर यहाँ मेरा प्रधान आहार है कभी कभी कढ़ी मिल जाती है पर यहाँ की कढ़ी अपनी प्रकृति में पतली है और स्वाद में खट्टी । सारी बातों का निचोड़ इस बात में कि मुख्य भोजन को लेकर कोई विशेष परेशानी नहीं हो रही बस लगातार चावल खाने की एक नयी व्यवस्था में ढलने की प्रक्रिया जारी है ।
         ये बात ठीक है कि यहाँ का खाना मेरी जीभ पर चढ़े स्वाद के अनुरूप नहीं है पर खाना खिलाते हुए लोगों के चेहरे पर जो भाव देखता हूँ वह मेरी रुचि और बढ़ा देता  है फिर कोई स्वाद न भी जंच रहा हो तो चेहरे से ज़ाहिर नहीं होने देता । यहाँ लोगों को लगता है कि मुझे यहाँ का खाना रास नहीं आ रहा होगा । उनके चेहरों को देखकर लगता है कि जब तक मैं खाता हूँ तब तक वे इस अपराधबोध में रहते हैं कि मुझे उत्तर भारतीय प्रकार का खाना उपलब्ध नहीं पा रहे हैं । दिन भर में मुझे खाने को लेकर 4-5 बार तो पूछा जाता ही है और हर बार पूछने वाले एक प्रकार की निरीहता होती है पूछने वाले के चेहरे पर । जबकि मैं कई बार बता चुका हूँ कि मुझे उत्तर भारतीय खाना मिलता तो वह बढ़िया बात होती पर मैं इन व्यंजनों से भी अपरिचित नहीं हूँ और इनमें भी स्वाद है । और ये मेरी जरूरत है कि मैं अपनी स्वाद इंद्रीयों को इनके लिए तैयार करूँ ।
  यहाँ जब खाने के बारे में कई बार पूछा जाता है तो मुझे उत्तर भारत याद आता है जहां हम किसी दक्षिण भारत या पूर्वोत्तर से आए लोगों से यह पूछने तक की जहमत नहीं उठाते कि उन्हें वहाँ का खाना कैसा लग रहा है । मेरे कई मित्र हैं जो उत्तर भारत के नहीं हैं दिल्ली में रहते हुए मैंने उनसे कभी इस तरह के सवाल नहीं किए ऊपर से राजस्थान के जिन दो मित्रों का जिक्र ऊपर किया है उनसे , उनकी खाने संबंधी भिन्नता को जानते हुए भी कई बार चावल खाने का दबाव बनाया क्योंकि वह पकाने में आसान होता है ।
  खान पान को लेकर हम उत्तर भारत में कितनी तसल्ली में जीते हैं कि खाना ही तो है पसंद आएगा ही । हो सकता है कि मैं इस तरह से एक सरलीकरण की जल्दबाज़ी कर रहा हूँ पर पिछले दस सालों से दिल्ली में रहते हुए अपने किसी गैर उत्तर भारतीय की खान – पान संबंधी सुविधा का ख्याल नहीं किया और न ही अपने आस पास के लोगों को करता पाया । ऐसी संभावना है कि , कुछ लोग इस बात का ख्याल रखते भी होंगे पर दस साल के दौरान का आसपास भी एक विस्तृत आसपास होता है वह भी दिल्ली जैसे महानगर में जिसमें ऐसे लोग नही टकराए ।
बहरहाल यहाँ जो मछली मैस में खाने को मिली उसे खाकर तो मछली से विरक्ति हो जाए और कम से कम यह बात तो टी हो गयी कि मैं मैस की मछली नहीं खाऊँगा । अब तक जो मछली खाई थी वह झोर में डालने से पहले तली जाती थी पर यहाँ तो बिना तले ही किसी सब्जी की तरह पका दी गयी ढेर सारे साबुत मसलों के साथ ।
यहाँ के खाने में चावल , नारियल आदि की ही तरह विभिन्न मसले ठीकठाक मात्रा में प्रयोग किए जाते हैं । मसालों की इतनी मात्रा का प्रयोग यदि अन्यत्र किया जाए तो बीमार होने की तैयारी मानी जाएगी । पर राहत की बात ये है कि ये मसाले साबुत प्रयोग किए जाते हैं ताकि उसके गुण व्यंजन में और बाकी पदार्थ आप निकाल सकें -सार सार को गही रही , थोथा देत उड़ाय
सप्ताह में एक बार रोटी जैसी चीज भी मिलती है । रोटी जैसी इसलिए कि वह तेल या घी के साथ पकाई जाती है दूसरे उसके फूलने जैसा कुछ पता नहीं चलता । यहाँ ताज़ी, रसीली और कुरकुरी जलेबी नहीं मिलती । पता करते करते पाया कि फ्रिज में पैकेट में बंद इमरती मिल रही है जिसके भीतर के रस ने चीनी के दानों की शक्ल ले ली है । 

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही शानदार लिखा है भाई। मुझे आपकी शैली बहुत ही भांती है। इस लेख में तो कितनी जानकारियां भी है बिखरी हुई...! बधाइयाँ...! धीरे-धीरे आप वहाँ सामंजस्य बिठा ही लेंगे...!

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