
देश
भर में बाल दिवस मनाया जा रहा था । इन्टरनेट के विस्तार ने सभी अन्य विशिष्ट दिनों
की तरह ही उस दिन के लिए भी इतनी सामाग्री उपलब्ध करा दी थी कि कुछ आरंभिक कंटेंट
के बाद रुचि के साथ देखने का धैर्य जाता रहा ।
इस
बार का बाल दिवस अपनी भावना से नहीं बल्कि राजनीतिक कलाबाजियों से सनसनीखेज किस्म
की सुर्खियां लंबे समय से बटोर रहा था । लिहाज़ा समाचारों ,
तसवीरों और विचारों की खेपें 12 बजे रात के पहले से ही सोशल मीडिया पर उतरने लगी
थी । ट्रेन में था और यात्रा दो बजे रात के आसपास समाप्त होए वाली थी इसलिए अपने
को जगाने के तमाम विधानों में बार बार सोशल मीडिया पर जाना शामिल कर लिया था ।
इस
तरह अनजाने या जाने में बाल दिवस से लगभग तौबा करा देने की हद तक सामाग्री ग्रहण
कर जब विद्यालय की प्रातःकालीन सभा में पहुंचा तो वहाँ स्टेज पर बाल दिवस की
शुभकामनाओं का बैनर लगा था । और उसे भव्य तरीके से मनाने की तैयारी दिखी । छोटी
कक्षाओं के ढेर सारे छात्र स्टेज पर चढ़े हुए थे । समान्यतया छोटी कक्षाओं के
छात्रों की असेंबली में भागीदारी ‘आज का नया शब्द’ बोलने तक ही सीमित रहती
है ।
प्रार्थना
के बाद बच्चे कुछ बोलते उससे पहले ही एक वरिष्ठ अध्यापक मंच पर आ गए । अपनी नफ़ीस
अंग्रेजी में उन्होने आज की प्रातःकालीन सभा की पूरी रूपरेखा रख दी । साथ ही कुछ
ऐसा भी बोला जिसे सुनकर बच्चे खिलखिलाने लगे । अध्यापक महोदय अपने जीवन में फिर से
बच्चा बन जाना चाहते थे ।
असेंबली
से निकलते हुए मन में एक ही बात थी कि अचानक से छोटी कक्षाओं के बच्चे ही सारी
गतिविधियों को अंजाम देने क्यों पहुँच गए । इस पर छात्र ही बेहतर बता सकते थे
क्योंकि मुझे कई बार लगा है कि अध्यापक विद्यालय प्रबंधन की ही भाषा बोलते हैं ।
छात्रों के साथ इस बात की संभावना भी थी कि वे किसी उत्तर पर पहुँचने से पहले ही
खुद उलझ जाएँ , मुझे उलझा दें या नए प्रश्न खड़े कर दें । इन तीनों
ही स्थितियों में मैं खुश होता क्योंकि कक्षाई वातावरण जिस तरह से बदल रहे हैं
उसमें किसी बात पर विचार करना , उसमें उलझकर दूसरों को उलझा देना या नए प्रश्न
पैदा कर देना जैसी क्रियाएँ विलुप्त होती जा रही हैं । अच्छे से अच्छा अध्यापक
उत्तर देने को ही अपना और छात्रों का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन मानने लगे हैं ।
सबसे
पहले मेरे सामने दसवीं कक्षा थी जहां छात्र-छात्राओं में मैं सबसे ज्यादा शारीरिक
भिन्नता देखता हूँ । कुछ बच्चे इतने विकसित हो गए हैं कि उन्हे वयस्क कहना ही उचित
है और कुछ ऐसे जो बच्चों की श्रेणी में ही रह सकते हैं । कई बार इन दोनों तरह के
बच्चे एक साथ दिखते हैं तो अजीब लगता है ।
बाल
दिवस की शुभकामनाओं के आदान-प्रदान व विद्यालय से मेरे बाहर रहने की वजह बताने के
बाद मैंने उनसे छोटी कक्षाओं के बच्चों द्वारा असेंबली चलाने के बारे में जानना
चाहा । यहाँ – वहाँ से आवाज़ें आने लगी । उनके आत्मविश्वास बता रहे थे कि उत्तर
उनके पास है । बारी बारी से उत्तर आने लगे । एक , दो ,
तीन , पाँच , दस तक सभी उत्तर एक ही – प्रिंसिपल मैडम ने कल कहा
कि केवल छठी और सातवीं कक्षा के छात्र ही बच्चे हैं बाकी बड़े हो गए इसलिए वे ही ‘असेंबली
एक्टिविटी प्रेजेंट’ करेंगे ।
मैं
इस तरह की बात का अंदाजा भी कर पाया था कि स्कूल की तरफ से मान लिया गया है कि कौन
से छात्र बच्चे हैं और कौन से बड़े हो गए । अब अलग ही स्थिति थी और ऐसे में एक नया प्रश्न उभर कर आया –
दसवीं कक्षा के ये छात्र अपने को क्या मानते हैं बड़ा या बच्चा ?
इस
प्रश्न के उत्तर में सभी हाथ बड़े के पक्ष में खड़े हुए थे । छोटा सा महेश तंगच्चन
भी जो अपने को बड़ा मानता है ।
दसवीं
कक्षा आते आते बच्चा अपने को बड़ा मानने की जल्दी में है (क्या पता नवीं से ही न
अपने को बड़ा मानता आया हो) । प्रिंसिपल उन्हें बड़ा मानती है । देश भर में माता पिता से लेकर अध्यापक तक छोटी
उम्र में बड़ा कारनामा करने वालों के नाम बताकर उन्हें खींचकर बड़ा बनाने में लगे
रहते हैं । बच्चे बड़े हो जाएंगे , ज़िम्मेदारी लेने लगेंगे तो धीरे धीरे अपनी
ज़िम्मेदारी उनपर डालकर उन्हें जिम्मेदार तक ठहराया जाने लगेगा । अपनी जिम्मेदारियों
से भागने का इससे बेहतर विकल्प तो हो ही नहीं सकता ।
मेरी
नानी के गाँव में एक व्यक्ति हैं ‘कामरेट’ । यह शब्द कॉमरेड से बिगड़कर बना होगा ऐसा अब लगता
है और ऐसा भी कि उस व्यक्ति की मार्क्सवादी राजनीति में कोई भागीदारी रही होगी या
नहीं तो उसके माता – पिता को यह नाम अच्छा लगा होगा । यह सब आज सोचता हूँ बचपन में
तो कामरेट बस एक नाम था जो परचून की अपनी छोटी सी दुकान चलाता था । बहरहाल ,
कामरेट के चार बेटे हैं उनमे से एक ने बिहार पुलिस की नौकरी की बाकी घर पर ही रहे –बिना
किसी काम धंधे के निठल्ले । एक दिन कामरेट ने अपने सबसे बड़े बेटे से कहा कि उसे
कोई काम धंधा करना चाहिए कुछ नहीं तो दिल्ली-पंजाब ही चला जाये । इस पर उसके बेटे
नीलानन्द ने कहा – इतने दिन तक आपने खिलाया, कुछ दिन और खिला दीजिये फिर मेरे बच्चे
दिल्ली-पंजाब जाने लायक हो जाएंगे और वे खिलाने लगेंगे ।
अपनी
ज़िम्मेदारी बच्चों पर हस्तांतरित कर उन्हें बड़ा कर देने की जल्दी विद्यालयों से
लेकर माता-पिता तक सभी कर रहे हैं । इससे बाहर वे बच्चे जो रोटी तक के लिए जूझते
परिवारों से आते हैं वे तो पहले से ही उस ज़िम्मेदारी को निभा रहे हैं जो उनके लिए
किसी ने नहीं निभाई । हालांकि एक बात यह भी है कि उनके लिए बोलने वाले बहुत से लोग
हो हैं इस बार का नोबल पुरस्कार बताता है कि साधनहीन बच्चों की तरफ से बात करने
वाले तो कम से कम हैं ही । लेकिन बात केवल उनकी ही नहीं है । बचपन तो सबका बचना
चाहिए । उनका भी जिनके माँ – बाप उनके परीक्षा के अंकों और ग्रेड के पीछे पड़े रहते
हैं ।
हम
बच्चों को अपने बनाए हुए साँचों में ढाल रहे हैं । यह ढलाव उनके लिए महंगा पड़ रहा
है । हमारे स्कूल में पार्कों में जिस तरह के बेंच लगाए जाते हैं ठीक वैसे ही लगाए
गए हैं लेकिन उन पर बैठना तो दूर उनके पास तक फटकने का समय उनके पास नहीं है ।
स्कूल जो केवल छठी सातवीं तक के छात्रों को ही बच्चा मानता है उसी में साधारणतया
हिन्दी और तमिल फिल्में दिखाने पर प्रतिबंध है बस देशभक्ति और बच्चों की फिल्में
ही दिखाई जा सकती हैं ।
बाहर
बचपन को बचाने का बहुत शोर है लेकिन विद्यालयों के भीतर घरों में उसी बचपन को
खदेड़ा जा रहा है । किसी भी विद्यालय में चले जाइए चारों तरफ बड़े बड़े लोगों की
उक्तियाँ लिखी हुई मिल जाती हैं , पाठ और सहायक पुस्तकें ऐसे उदाहरणों से अटे पड़े कि
कैसे कोई छोटी उम्र में ही महान बन गया । कुछ दिनों पहले कात्यायनी की एक कविता
पढ़ी थी जिसमें छात्र अपनी मुश्किलों का जिक्र कर रहे थे और उनके लिए सबसे बड़े दुश्मन शिक्षक थे । पर उनका बचपन छीनने में
जितनी भूमिका उनके माता-पिता निभाते हैं उतनी शायद ही कोई निभाता होगा ।
हमारा
विद्यालय आवासीय विद्यालय है । आए दिन देखने को मिलता है कि माता - पिता उन बच्चों
को छोडने आते हैं । छोटे बच्चे तो बहुत रोते हैं फिर भी माँ-बाप उनको छोड़ कर चले
जाते हैं । कई बच्चों के माता-पिता उनके ग्रेड नहीं आने से परेशान हैं । बच्चे खुद
को अपने माँ-बाप की उम्मीदों के साथ चलता हुआ न पाकर लंबे अवसाद में जा रहे हैं ।
मैं नया नया ही आया था जब दसवीं कक्षा की एक लड़की ने सभी विषयों में 90%अंक न
मिलने के कारण छत से छलांग लगा दी थी । इन सबके बावजूद हम बच्चों को खींचकर बड़ा
बनाएँगे । केवल बाल दिवस पर बच्ची-बच्ची बातें करेंगे उसके बीतते ही बड़ा बनाने की
कवायद फिर शुरू ।
आखिर
में अपने एक गुरु के लिए जो छात्रों को बच्चा कहने के सख़्त विरोधी हैं । गुरु जी,
बच्चे को समय से पहले बड़ा मत करें । अभी अभी अमेरिका की एक अध्यापिका ने अपने
स्कूल की कक्षाओं में बच्चों की तरह दो दिन बिताए । उसकी डायरी पढ़िये आप भी मान
लेंगे कि बच्चे का आत्मविश्वास बढ़ाने के चक्कर उसे किन चीजों से हम दूर कर दे रहे
हैं ।