मई 30, 2013

दिल्ली वाया लिमिटेड बस !


बस में बैठने के बाद भी वही सब नजर आ रहा था ... दो चार बसों और कुछ तिपहियों को छोडकर करें ही कारें थी । आपको जहां जाना हो और आप जहां खड़े हों उसके लिए सीधी बस मिल जाए तो कितनी खुशी होगी इसका अंदाजा यह सोचते हुए लगाइए कि इस रूट कोई अन्य बस सेवा उपलब्ध नहीं है सिवाय इस अचानक आ गए लिमिटेड बस के । कुछ गजब के भाग्यशाली मन से बस में बैठ गया और साथ बैठी सवारी को ये जता भी दिया । पर वो तो बस के जाम से निकालने का इंतजार कर रही थी । अगले 15 मिनट तक गाड़ी वहीं खड़ी रही थी । आगे भी बढ़ी हो पर उसके आगे बढ्ने का अंदाज कुछ यूं था कि पता ही न चला दूसरे वह वातावरण भी तो बना ही हुआ था । कारें और कारें , कारों के पीछे के शीशे से झाँकते और कभी कभी असली से लगते कुत्ते के प्रारूप और पीछे दूर तक कारों की कतारें सब तो बने ही हुए थे । अब हर कदम पर जाम खतम करने के लिए फ्लाईओवर तो नहीं बनाया जा सकता न ! आखिर उसकी भी तो लिमिट है ।

हमारी बस आगे बढ़ी तो पड़ोसी सवारी को तसल्ली कुछ फैलने की कोशिश में वो हिली कि मेरे अपना अधिकार छिनता दिखा । फट से एक एक जिरह जो मेरे आस पास ही बनी रहती है हमारे बीच आकर बैठ गयी । कान में फोन की लीड ठूँसते हुए मैंने जिरह को धकिया दिया । वो गिरी होगी उधर !  दायीं ओर के बस स्टॉप पर दिल्ली सरकार की बड़ी बड़ी आत्म प्रशंसाएं चमक रही थी । कुछ ही सालों में प्रति व्यक्ति आय कई गुना बढ़ गयी , यहाँ विकास दिखता है वगैरह ! पर भैया दक्षिणी दिल्ली में विकास दिख ही जाता है तो कौन सी नयी बात है आखिर हर शहर में कुछ तो ऐसे कोने होते ही हैं जो चमकते रहते हैं । कभी ये बातें बाहरी दिल्ली या कि जमना पार में जा के कहो फिर बताना कि कितने होर्डिंग बचे हैं इन बातों को चमकाने के । जमना पार से याद आया अब के दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के चुनावों का तो नहीं पता पर एक समय में जमना पार के बारे में कहा जाता था –आर पार , आर पार / सारी गंदगी जमना पार । आज भी हालत तो नहीं बदले हैं जा के देखना कभी पुरानी सीमापुरी या शाहदरा सीलमपुर के इलाकों में फिर कहना यहाँ विकास दिखता है ।

धौलकुआं के पास का अजीब सा सौंदर्यबोध किसका है ये समझ नहीं आता । धातु के गोल गोल सिर किसी झाड़ी की डंडी पर टिके से हैं । पर भला हो उस व्यक्ति का जिसने उन धातु के सिरों के नीचे घास की एक चादर बिछाने का हुक्म दिया ! कम से कम उनके लिए जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में जगह नहीं पा पाते हैं या जगह पाने की उम्मीद में आते हैं ये जगह बड़ा आश्रय है । नहीं तो हाथ में पेशाब की थैली टाँगे मेट्रो के गेट सामने बैठे लोगों को सीआरपीएफ वाले तो भागते ही रहते हैं । कितना बड़ा नाम है न इस अस्पताल का ! इन बड़े बड़े नामों से यह संदेश दिया जाता है कि यह अपनी प्रकृति में भी विशाल और व्यापक होगा जहां सब बड़ी आसानी और सहूलियत से जगह पा जाते होंगे । पर किसी का अनुभव ऐसा क्यों नहीं होता कि इन बड़े नाम वाले अस्पतालों का बड़प्पन झलके । हाँ यहाँ ये बहाना नहीं चल सकता कि बहुत से लोग आते हैं और सुविधाएं कम हैं । हमने कभी व्यवस्था और सुविधाओं को बढ़ाने की कोशिश नहीं की है बस बड़ी आबादी के बहाने बनाए हैं । एक तो वैसे ही बहुत कम अस्पताल हैं और जो हैं वो अलग ही व्यवस्था में चल रहे हैं जहां कु-व्यवस्था ही व्यवस्था बनी हुई है । जो बीमारी अफोर्ड कर सकते हैं वे तो कभी सरकारी अस्पतालों की बात करते ही नहीं और यदि पास से गुजरना हुआ तो हाऊ डिस्गस्टिंग कह कर निकल जाते हैं । उनको दोष दिया भी नहीं जा सकता क्योंकि ये मासूमियत उन पर फबती है और हम इसे फबने देते हैं ।

बहरहाल बस सफदरजंग हवाईपट्टी के पास से गुजर रही थी । फ्लाईओवर के ऊपर से बायीं ओर लग रहा था कि सूरज अपनी लैंडिंग के लिए सिग्नल का इंतजार कर रहा हो । कितना अच्छा विकसित इलाकों में गर्मी की शाम का सूरज देखना विकास के एक और नमूने सा लगता है । मन करे तो शास्त्री पार्क की झुग्गी के ऊपर से कभी सूरज देखिए या फिर जहांगीरपुरी की जे जे कालोनी से इतना अजीब लगेगा कि बहुत दिनों तक सूरज से उबकाई आएगी । चमकता सूरज चमकती सड़क और बढ़िया बढ़िया घरों में बने सरकारी कार्यालय क्या मजेदार जगहें होती होंगी ! मैं एक बार भी मजा लेने की कोशिश करूँ तो हजार तरह के सवाल होंगे और फिर भी दरवाजे से ही टरका दिया जाऊंगा । अब मखमल में टाट का पैबंद तो फिट नहीं हो सकता न ।

अरे वाह ! बस सफदरजंग मकबरे के पास से भी गुजरी ! ये मकबरा तो स्वर्ग है ऐसे प्रेमी युगलों का जिनके पास प्यार है पर चूमा-चाटी की जगह नहीं । फिर और मन डोला तो आगे बढ़ लो लोधी गार्डेन । एक बार मैं और मेरा एक दोस्त दोनों देखने गए कि आखिर ये जो इतनी प्रशंसा चहुं ओर इसकी होती है वो कितनी सच है । उस अनुभव के बाद कह सकता हूँ कि भैया हजार फ़ीसदी सच है ये कहावतें । कोई झाड़-झाँखर नहीं तो कोई शर्म भी नहीं । एक जोड़े के पीछे ही दूसरा जोड़ा होठों से होंठ चिपकाए । जहां कहीं कोई आगे बढ़े कि गार्ड की सीटी बजी फिर भी लोग न माने तो गार्ड पास आ कर सीटी बाजा दें । गार्ड से ज्यादा तो आप बेशर्म हो ही नहीं सकते न । हाँ लोधी गार्डेन में थोड़ी आजादी दिखी वहाँ कोई गार्ड सीटी नहीं बजता अलबत्ता मैं और मेरे दोस्त जैसे ताक झांक के महारथी लोग इधर उधर से प्रकट हो जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं । जब तक कुछ दिल्ली के मध्यवर्गीय लोगों से दोस्ती नहीं हुई थी तब मैं इसे ही प्रेम का उन्मुक्त प्रदर्शन मानता था । फिर उनसे जब बातें हुई तो इन दोनों जगहों के बारे में एक ही बात सुनने में मिली –वहाँ बहुत डाउन-मार्केट क्राउड आता है । बाद में उत्तर आधुनिकता पढ़ते हुए डाउन मार्केट टर्म को समझ पाया ।

यूपीएससी की इमारत न दिखो भई । अपने चयनित न होने की बात तो जाने दो किसी ऐसे करीबी का भी चयन न हो पाया न जिस के दम से इतराया जा सके कहीं भी धौंस जमाई जा सके । जो पास के लोग चयनित हुए उनसे अपने संबंध कुछ महीने पहले से ही खराब हो गए ।  काश कि कभी परिणाम पर मेरा भी नाम चिपकता , काश कि साक्षात्कार में मैं भी कह के आता के मैं देश सेवा के लिए इस सेवा में जाना चाहता हूँ , काश कि इस सेवा के माध्यम से भयंकर मात्रा में पैसा बनाने की बात मेरे किसी भी जवाब से वे सूंघ न पाते । कोचिंग वालों की दी हुई कार घर भेज देता , और एक बार किसी पत्रिका का नाम लेने के लिए उससे कितने रूपय लेता कई लाख और मोटे टायर वाली गाड़ी दुल्हन ही दहेज है के साथ पाता ... कई बार ऐसा सोचने से हो थोड़े ही जाता है । बेटा मेहनत तो सभी करते हैं तुमने भी की होगी । सब कुत्ते काशी जायेंगे तो गाँव में पत्तल कौन चाटेगा भई !

इंडिया गेट राष्ट्रीय पिकनिक सह-सुस्ताने सह-ऑफिस में काम करने के बदले बाहर टाइम काटने की जगह है वहाँ से गुजरते हुए भी सुस्ती आती है । माहौल ही सुस्त होता है वहाँ का ।
इधर आईटीओ आया तो मेरे बगल की सवारी उतर गयी । तिलक ब्रिज स्टेशन के लिए दौड़ते हुए उसे देखना एक अलग अनुभव रहा वह बुजुर्ग इस उम्र में भी इतनी दूर काम करके वापस लौट जाने की हिम्मत कर लेता है । इधर आईटीओ बहुत बदल गया है । बल्कि बदल  रहा है । गाड़ियों के रास्ते बदले गए हैं , दिल्ली गेट की ओर जाने वाली सड़क कभी साँय साँय गुजरती गाड़ियों के लिए जानी जाती थी वो अब एक पार्किंग की शक्ल ले चुकी है । एक होता है विकास का स्टीरियोटाइप । आईटीओ के चौराहे की मस्जिद को भी विकसित दिल्ली की शक्ल दी जा रही है । ये वही शक्ल ले रही है जो दिल्ली के विज्ञापनों पर पुरानी दिल्ली के लिए छपी रहती है । धर्म पर विकास की छाप ।

इधर फिरोज़शाह कोटला और अंबेडकर स्टेडियम बड़ी जल्दी गुजरे । कोशिश की अनुमान लगाने की कि कहाँ बैठा था उस दिन मैच देखते हुए । बस अनुमान ही कर पाया । क्रिकेट अपना एक कतरा भी मुफ्त में देखने नहीं दे सकता । अंबेडकर स्टेडियम बस अड्डे के पास एक मुस्लिम जोड़ा खड़ा था बार-बार फोन मिलाता परेशान सा । देर हो रही होगी शायद लाहौर से आ रहे यात्री को और विदेश में मोबाइल चल भी नहीं रहा होगा उसमें भी भारत जैसे देश में जो एक दुश्मन देश की हर खूबी रखता है ।

राजघाट पर चहल पहल बढ़ी हुई मालूम हुई । सूरज बाबू जा चुके थे अब मखमली घास पर शाम को पापड़ कुतरने का आनंद कौन छोड़ दे ... ऊपर से यहाँ इंडिया गेट वाली भीड़ भी तो नहीं रहती । कई बार लगता है कि एक आदमी जो बहुत कम कपड़ा केवल इसलिए पहनता था कि देश के लोगों के पास वो भी पहनने को नहीं था फिर उसी आदमी की समाधि के लिए इतना बड़ा जमीन का टुकड़ा उसके विचारों के साथ अन्याय है । उस जगह पर कई विद्यालय खोले जा सकते थे । क्या सही कहा है निदा फाजली ने अपने इस दोहे में –

                                बच्चा बोला देख कर मस्जिद आलीशान
                                 अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान !

इधर निगमबोध घाट की हवा में लाशों के जलने की गंध नाक में आ रही थी । उसके साथ ही मुझे अपनी उस बीमारी का खयाल आया जिसमे किसी शमशान घाट से गुजरते हुए लगता है कि लाशों की राख उड़ रही है और मेरी देह पर परत दर परत जमती जा रही है । मेंने होठों पर जीभ फिरायी जीभ के साथ को धूल के कण मुंह में गए उनमें लाश जैसा कुछ लगा ।
बस अड्डे तक आते आते एक फोन आ गया । बातों ही बातों में मैंने बता दिया कि एक बड़ी सी गाड़ी में एक वयस्क जोड़े के साथ कम से कम 6 बच्चे जा रहे हैं । दूसरी ओर से छूटते ही जवाब आया – मुस्लिम फॅमिली होगी । रूढ़ियाँ बहुत गहरी हैं सप्रयास ही बच रहे हैं लोग इनसे । अनायास तो वही निकलता है जो मन में गहरे बैठा है ।


मजनू टीला पार करते ही सड़कों पर भीड़ दिखने लगी और वजीराबाद का पुल पार करने के बाद तो गाडियाँ कम और साइकिल , पैदल ज्यादा दिखने लगे रोज की तरह । बिना किसी शिकवे शिकयात के चली जा रही ये बड़ी आबादी न जाने कितनी दूर से काम खत्म कर वापस लौट रही है । इनमें से बहुतों के काम करने की जगह पर ओवरटाइम नहीं लगता होगा और यदि लगता होगा तो ठेकेदार के चहेतों के हिस्से में आया होगा । इधर बस-स्टॉप पर कोई बड़ी बड़ी बात नहीं लिखी कोई बड़ा दावा नहीं किया गया है । बल्कि जो बस-स्टॉप सरकारी दावों की गवाही बनते वे ही विकास की पोल खोल रहे हैं मनुष्यों की बात तो जाने दें । इस मामले में उनका यह दावा स्वीकार कर लेने का मन करता है कि सबके लिए अच्छी व्यवस्था नहीं की जा सकती । वो तो कुछ खास दिल्ली को ही मिलेगी । इधर तो किसी चौराहे पर साइकिल से भी जाम लग सकता है । 

मई 29, 2013

विषय चयन से जुड़े अहम मुद्दे

     


साल के ये कुछ महीने ऐसे हैं जब घरों में लगभग एक-सी बात सुनाई देती है – मेडिकल या इंजीनियरिंग और गलती से कहीं और कुछ सुन लिया तो वो है बिजनेस स्कूल्स के थोड़े से चर्चे ! मार्च में जब परीक्षाएँ खत्म हो जाती हैं और बच्चे के आगे के भविष्य पर विचार शुरू होता है तो जबतक बच्चा कोई ठिकाना न पा ले तबतक के ये कुछ महीने इन्हीं चर्चाओं में बीतते हैं । और सुई मेडिकल और इंजीनियरिंग के बीच ही झूलती रहती है । इसी दौरान अपनी-अपनी क्षेत्रीयता के हिसाब से स्थानीय स्तर पर उपलब्ध अखबार आस-पास की कोचिंग संस्थानों के विज्ञापनों और विज्ञापन-नुमा समाचारों से भर जाते हैं । ये कैसे और क्यों किए जाते हैं इस पर ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं है बल्कि यह देखना है कि जिसके लिए यह सब किया जा रहा है वह इसमें कहाँ पर खड़ा है और उसकी अपने आगामी कोर्स के चयन में क्या भूमिका है !

   समान्यतया माँ-बाप और शिक्षक भी बच्चों को विशेष व्यक्तित्व के बदले उत्पाद समझते हैं जिनकी अपनी योग्यताएँ , झुकाव और जीवन-दर्शन हो सकते हैं जिनके आधार पर उनके करियर चयन की नींव बनती है । अतः भविष्य के बारे में उनके अपने विचार , दृष्टिकोण व रुचियाँ महत्वपूर्ण हो जाते हैं । उन्हें जरूरत है तो बस सलाह और समर्थन की न कि , बाहर से थोपे गए निर्णयों की । माता - पिता के इस प्रकार के व्यवहार की बहुत सी समाज-आर्थिक व्याख्याएँ हो सकती हैं लेकिन इन व्याख्याओं में उलझने के बदले बच्चों की स्थिति  को समझने की जरूरत है । करियर के विकल्प के शैक्षिक - सामाजिक पहलू ज़्यादातर मामलों में बच्चों के लिए विकल्प की स्थिति नहीं रहने देते जिससे उन पर दबाव बढ़ता है जो उनके व्यक्तित्व को विकसित होने से रोकता है । इसे विद्यालयों, खेल के मैदानों , सार्वजनिक  और पारिवारिक समारोहों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है । विद्यालयों में ज़्यादातर वे छात्र मुखर पाये जाते हैं जो दसवीं के बाद गणित या जीवविज्ञान नहीं चुनते हैं । समारोहों चाहे वे पारिवारिक हों या सार्वजनिक गणित और जीव विज्ञान समूह के छात्र या तो दिखते नहीं या दिखते भी हैं तो बहुत कम देर के लिए । यही हाल खेल के मैदानों का है । हमारी आदत हो गयी है कि बिना शोध के किसी विषय को समझने के प्रति हम उदासीन ही रहते हैं  जबकि बहुत सी बातें प्रतिदिन के जनजीवन के माध्यम समझी जा सकती हैं । दसवीं के बाद के दो साल गणित व जीव-विज्ञान के छात्रों के लिए तैयारी के साल हैं जो उन्हें अपने भविष्य के लिए तैयार करते हैं । तैयारी करना बुरा नहीं है पर तैयारी के बदले ये बच्चे जीवन के बहुत सारे अनुभवों से अछूते रह जाते हैं । ये अनुभव उन्हें भावी जीवन के लिए तैयार करते पर वह समय उन कठिन तैयारियों में चला जाता है ।

इतनी तैयारी के बाद इन संस्थानों में सभी छात्रों का चयन हो जाए ऐसा भी नहीं होता । बहुत कम छात्र श्रेष्ठ संस्थानों में दाखिला पाते हैं और जो बच जाते हैं वे क्रमशः गुणात्मक रूप से निम्न होती जाती संस्थाओं में दाखिला पाते हैं । इंजीनियरिंग और मेडिकल के क्षेत्र में निजी पूंजी से चलने वाले संस्थानों की बाढ़ आ जाने से इन अनुशासनों में छात्रों की योग्यता  से ध्यान हटकर पूंजी पर केन्द्रित हो गया है । हाल के वर्षों में भारी मात्रा में छात्र इन अनुशासनों में दाखिला ले रहे हैं और उत्तीर्ण होकर भी आ रहे हैं । इसके साथ एक पहलू यह भी है कि जितनी संख्या में छात्र दाखिला ले रहे हैं उतनी संख्या उत्तीर्ण होने के मामले में नहीं है । एक संस्था मेरिट ट्रेक के अनुसार हमारे विभिन्न विश्वविद्यालयों से उत्तीर्ण होने वाले बीटेक के मात्र 21 प्रतिशत स्नातकों में पेशागत योग्यताएँ हैं । यह हमारे संस्थानों की समूची कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाता है । इसी संस्था के अनुसार मात्र 40 प्रतिशत छात्र ही अंततः कोर्स उत्तीर्ण कर पाते हैं ।
दाखिले की प्रक्रिया में पूंजी का खेल बहुत गहरे रूप में जुड़ा है । पूंजी के लिए न्यूनतम अर्हताओं में बहुत ज्यादा ढील देते पाया गया है । कई बार प्रवेश-परीक्षा की बाध्यता भी हटा दी जाती है ।
इसके बाद मामला रोजगार पर आ कर टिकता है । जितनी बड़ी संख्या में छात्र में उत्तीर्ण होकर आते हैं उतनी बड़ी संख्या में न तो सरकारी क्षेत्र और न ही निजी क्षेत्र रोजगार उपलब्ध करवा पा रहे हैं । हर साल बड़ी संख्या में छात्र या तो बेरोजगारों की श्रेणी दाखिल होते हैं या नहीं तो अन्य क्षेत्रों की ओर रुख करते हैं । मेडिकल के क्षेत्र में थोड़ी बहुत गुंजाइश अभी भी बची है क्योंकि देश में अभी भी प्रति-व्यक्ति डॉक्टरों की संख्या बहुत कम है और इसमें स्वतंत्र रूप से काम कर पाने की भी संभावना बनी रहती है । हजारों की संख्या में इंजीनियरिंग स्नातक बहुत कम वेतन पर काम कर रहे हैं ।

आर्थिक मोर्चे पर इतनी बड़ी अनिश्चितता के बावजूद माता पिता का झुकाव इस ओर बना ही हुआ है जो यह बताता है कि विषय के चयन में निश्चित रूप से केवल आर्थिक कारण जिम्मेदार नहीं है । ज़ाहिरा तौर पर समस्या की जड़ कहीं और है । इसके पीछे बीटेक के कोर्स की तथाकथित श्रेष्ठता और विज्ञान एवं मानविकी विषयों के परंपरागत कोर्स की चमकहीनता कारण हो सकती है । आम तौर पर ऐसी धारणा बन गयी है कि बीटेक तेज-तर्रार एवं कुशाग्र-बुद्धि छात्रों के लिए बना है  और बाकी कोर्स आलसी , लिद्दर और भोंदू छात्रों के लिए बने हैं । छात्रों को बहुत आरंभ में ही श्रेणीबद्ध कर देने की यह प्रवृत्ति विद्यालयों में बहुत आसानी से देखा जा सकता है । इंजीनियरिंग से तेज-तर्रार छात्र होने का भाव इस कदर जुड़ गया है कि इसने इंजीनियरिंग के अलावा किसी भी अनुशासन की जन-स्वीकार्यता को खारिज कर दिया है ।
कोर्स के प्रति यह दृष्टिकोण आज का बना हो ऐसा नहीं है । आरंभ में भारत में सेवाओं को भोगने की आदत और उसकी लालसा ने इनजीनियरिंग आदि सेवाओं के प्रति आकर्षण पैदा  किया । उससे आगे बढ़ते हुए धीरे धीरे इसने इतना जटिल रूप ग्रहण किया । इस तरह कहीं न कहीं यह गलत अवधारणा घर कर गयी है कि इतिहास , साहित्य , कानून आदि विषय करियर के दृष्टिकोण से बुद्धिमत्तापूर्ण चयन नहीं हैं । इसलिए ये विषय समूचे परिदृश्य से बाहर होते जा रहे हैं और जहां भी बरकरार हैं वहाँ छात्रों की किसी न किसी तरह की मजबूरी जरूर उपस्थित है । इस तरह से संवेदनशीलता , मानवीयता और लोकतान्त्रिक गुणों के विकास संबंधी शिक्षा की मुख्य भूमिका ही धीरे धीरे सीमित होती जा रही है ; बहुधा इन्हें अप्रासंगिक माने जाने के उदाहरण भी मिलते रहे हैं ।

ऐसा नहीं है कि इंजीनियरिंग या मेडिकल के प्रति यह झुकाव केवल मानवीकी विषयों की कीमत पर हो बल्कि उच्च शिक्षा में विज्ञान विषयों की भी वही गाथा है । विज्ञान विषयों के परंपरागत कोर्स बहुत तेजी से आलोकप्रिय हो रहे हैं । उच्च शिक्षा पर फिक्की की साल 2009 की एक रिपोर्ट के मुताबिक हाल के वर्षों में इंजीनियरिंग विकल्प छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय होकर उभरा है ।  सत्र 2003-04 के दौरान इसने कुल नामांकन का सत्तर फीसदी भार ग्रहण किया । यह रिपोर्ट एक और खुलासा करती है कि उसी सत्र में मात्र 10 प्रतिशत छात्रों ने अन्य विषयों में नामांकन कराया । शेष 20 फीसदी छात्रों ने मेडिकल चुना । विषयों के चयन की दृष्टि से ये आंकड़े बहुत जरूरी सूचना देते हैं । अन्य के अंतर्गत मानविकी और विज्ञान और वाणिज्य विषयों के परंपरागत पाठ्यक्रम आते हैं ।
ऐसा नहीं है कि बड़ी मात्रा में इंजीनियरिंग में छात्रों के जाने से आ जाने से विज्ञान विषयक शोध में मात्रात्मक या गुणात्मक वृद्धि हुई हो । इस संबंध में नेशनल युनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन (न्यूपा) दिल्ली द्वारा आयोजित एक व्याख्यान में वरिष्ठ वैज्ञानिक, सी एन आर राव ने भारत में विज्ञान आधारित शोधों पर चिंता जताते हुए कहते हैं कि समग्र रूप से विज्ञान के शोध में हम पिछड़े हुए हैं ही उनमें से रसायन और इंजीनियरिंग की हालत और खराब है । वैश्विक शोध पत्रिकाओं में जमा कराये गए और छपने के लिए चयनित शोध के आंकड़ों को रखते हुए उन्होने भारत की वैज्ञानिक स्थिति को कुछ इस तरह व्यक्त किया यदि भारत से 40 वैज्ञानिक निकाल लिए जाएँ तो इसका वैज्ञानिक प्रदर्शन शून्य रह जाएगा । यह स्थिति तो है उस विज्ञान की जिसके छात्रों को आम तौर पर तेज कुशाग्र बुद्धि का और क्रीम की संज्ञा तक दी जाती है । राव के अनुसार इंजीनियरिंग के शोध की दशा दयनीय है । वे इसकी जड़ आर्थिक बताते हैं बहुत छोटी उम्र में लोग मोटी रकम पाने लगते हैं इसने भारत में शिक्षा के प्रयोजनों को ध्वस्त कर दिया है
 यह विषयों के रोजगार से जुड़ जाने की ओर संकेत करता है । ऐसा होना गलत नहीं है परंतु इन क्षेत्रों में छात्रों की इतनी आमद और सरकारी एवं निजी क्षेत्र में रोजगार की सीमित उपलब्धता ने नए तरह का संकट खड़ा कर दिया है । इंजीनियरिंग पूरी कर के भारी मात्रा में छात्र रोजगार के लिए जूझ रहे हैं । इसके बावजूद फिक्की जैसी संस्थाएं इस क्षेत्र को शिक्षा उद्योग के विकास के तौर पर देख रही है । उसका मानना है कि ये हालात तब हैं जब बहुत से राज्यों में निजी पूंजी से संचालित संस्थानों की शुरुआत भी नहीं हुई है इसमें अभी बहुत प्रगति की गुंजाइश है ।
शिक्षा के इस व्यवसायिकरण ने कुछ विषयों के लिए खतरा पैदा कर दिया है । केंद्र सरकार के मॉडल विद्यालयों में 10 वीं के बाद बहुत से विद्यालयों में मानविकी के विषय कुछ जैसे इतिहास ,भूगोल, राजनीतिशास्त्र आदि हैं ही नहीं । इसके प्रमाण के रूप में केंद्रीय व नवोदय विद्यालयों में राजनीतिशास्त्र में पीजीटी स्तर के शिक्षकों की व्यवस्था ही नहीं होने को देखा जा सकता है । जो छात्र विज्ञान विषयों के लायक नहीं रह जाते उन्हें वाणिज्य की कक्षा में डाल दिया जाता है । विषयों से संबन्धित मानसिकता को विद्यालय स्तर पर ही बहुत गहरे रूप में समझा जा सकता है जहां विज्ञान विषय के छात्र न सिर्फ स्वयं बल्कि विद्यालय प्रशासन द्वारा भी मुख्य संसाधन मान लिए जाते हैं । इसके इतर विषय के छात्रों को उनके विषय के आधार पर स्वाभाविक रूप से कम महत्वपूर्ण मान लिया जाता है । हेय मानने की यह स्थिति यहीं नहीं रुकती बल्कि समाज और परिवार में भी उसी रूप में चली आती है । यहाँ यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि निजी पूंजी से संचालित विद्यालयों में  दशा इससे इतर नहीं है । 

विषय चयन में लिंग और लिंग आधारित जोखिम की भूमिका चिंता के स्तर तक है । दिल्ली में दसवीं कक्षा के छात्रों पर किए गए सर्वेक्षण में यह बात उभर कर आयी कि 80% छात्रों ने भविष्य के लिए इंजीनियरिंग का विकल्प चुना । वहीं लड़कियों 95% लड़कियों ने मेडिकल का क्षेत्र चुना । यह लिंग आधारित चयन समाज की उस मान्यता के अनुरूप ही है जिसमें लड़कियों के लिए रोजगार के विभिन्न क्षेत्र न सिर्फ असुरक्षित बल्कि त्याज्य माने जाते रहे हैं । इसके बहुत से संकेत हैं , जरूरत उन्हें पहचानकर निम्न स्तर से काम करने की है ।
इन सब में यदि किसी का पक्ष छूट रहा है तो वह है ऐसे छात्र जो वंचित वर्गों से आते हैं । भारत में इनकी संख्या सबसे ज्यादा है । इन छात्रों के लिए विषय चयन जैसा विकल्प रह ही नहीं जाता । प्रतिभाशाली होने और तथाकथित क्रीम से बेहतर या बराबर होने पर भी निरंतर मंहगी होती जा रही शिक्षा के कारण बिना कुछ विचार किए परंपरागत कोर्स की ओर रुख कर लेते हैं । इनमें से कुछ अद्वितीय योग्यता वाले ही सरकारी या गैर सरकारी सहायता और उपकारों के सहारे मेडिकल या इंजीनियरिंग में दाखिला ले पाते हैं ।


 अब प्रश्न ये उठता है कि इसके बाद क्या विकल्प रहता है । विषय-चयन का ये मामला जितना व्यक्तिगत समझ आता है उतना है नहीं । यह अपने पीछे एक पूरी परंपरा लेकर आ रहा है जो लगातार प्रयोग में आते-आते लगभग रूढ होने के कगार पर है । अब जरूरत इस परंपरा के भीतर कुछ प्रश्न उठाने की है जिसे निश्चित तौर पर समूहिक रूप से समझना होगा । मुद्दा यह है कि क्या हमें केवल इंजीनियरों या डॉक्टरों की आवश्यकता है ? देश में इन पेशेवरों की तरह ही बहुत से अन्य पेशेवरों की भी आवश्यकता है । ये पेशेवर वकील , शिक्षक, पत्रकार , किसान , व्यवसायी , इंटरप्रेनयोर हो सकते हैं । यहाँ एक बात जो  रेखांकित करनी जरूरी है वह यह कि व्यवसाय के  प्रति हमारे दृष्टिकोण में बलाव । भारत में बहुत से व्यवसायों को उचित नजरों से देखने की जरूरत है । श्रम के प्रति सम्मान के अभाव ने बहुत से व्यवसायों को ध्यान देने लायक भी नहीं रहने दिया है । इसके बाद देश को कवि , लेखक ,समीक्षक , चित्रकार , छायाचित्रकार, गायक , वक्ता, फिल्म निर्देशक , राजनेता आदि की आवश्यकता है । अब उस परंपरागत सोच के बीच नए विचारों को उठाने का समय है । जिसमें माता-पिता, और सरकार को अपनी तरफ से पहल करने की जरूरत है । सरकार द्वारा विद्यालयों और उससे ऊपर के स्तर पर छात्रों में अन्य सेवाओं और कलाओं की ओर रुझान बढ़ाने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता है । साथ ही वह इन क्षेत्रों में रोजगार सृजित करने का प्रयास करे । कृषि के क्षेत्र में विकास की संभावनाओं को देखते हुए इसमें उच्च शिक्षा और शोध को प्रत्साहित किया जाना चाहिए । फिर इंजीनियरिंग के सरकारी व निजी सभी तरह के संस्थानों को सहकारिता आधारित उद्योगों से जोड़ कर इस क्षेत्र में पैदा हुए रोजगार संकट को कम किया जा सकता है । 

मई 25, 2013

लॉकर गोदरेज के


बड़ी तसल्ली से हम अब प्रचार देखते हैं और ये तसल्ली आँखों पर चित्र तो बनने देती है पर उसे भीतर नहीं गिरने देती ।

 कई बार मैं क्षुब्ध हो जाता हूँ और वह क्षोभ जब जाहिर होता है तो कोई न कोई कह ही देता है कि मुझे ही इतनी समस्याएँ दिखती हैं । अपनी तरह का मैं अपने पास एक दो ढूंढ लूँ तो बहुत बड़ी बात है । बाहर जो लोग हैं उन्हें मैं व्यर्थ का शोर मचाता जीव नजर आता हूँ । अपने मित्रों को भी ।

अभी बहुत दिन नहीं बीते राष्ट्रमंडल खेलों के । उदघाटन हो रहा था उन खेलों का । एक मित्र ने तभी तभी अपने फेसबुक की दीवार पर उन खेलों के विरोध में कुछ लिखा था ... नीचे कथन पे कथन आने लगे थे जिनमें प्रशंसकों के ज्यादा थे , बस मैं और स्टेटस लिखने वाला दोस्त खेलों के विरोध में थे । बाकी लोगों ने उस दिन हम दोनों की बहुत मज़म्मत की थी । उनकी भाषा तक स्तरहीन नहीं रह गयी थी । जैसे हमने राष्ट्र की संप्रभुता पर केवल यह कह कर सवाल उठा दिया हो कि उन खेलों पर खर्च की गयी रकम को यदि देश की गरीबी दूर करने में किया गया होता तो बढ़िया होता साथ ही यह भी कि उसमें कुछ भ्रष्टाचार को भी देखने का प्रयास किया था । बहुत खतरनाक तरह से डांटा था हमें लोगों ने । फिर जैसे दृश्य बदला हो या फिर उनके लिए एंटी क्लाइमेक्स जैसा हुआ हो , एक साथ कितने ही लोग उन खेलों के दौरान गड़बड़ी के आरोपों में जेल गए । बड़े से बड़े तक । हाल ही में मित्र के उस स्टेटस पर मैंने यूं ही कुछ खुराफात वश उन कथनवीरों को ललकारा था । अपेक्षित रूप से ही कोई नहीं आया ।

श्रीसंत को उसके एट्टीट्यूड के लिए मैं बहुत पसंद करता था । उसका आँख में आँख डालकर जवाब देने का अंदाज गांगुली युग की अंतिम पहचान जैसा लगता था । हाल में वो जेल गया । हालांकि जिस मामले में वह जेल गया उसके कर्ता-धर्ता कोई और ही लोग हैं और कितने ही और जेल जाने की योग्यता रखते हैं लेकिन इससे श्रीसंत का अपराध कम नहीं हो जाता । जितना दुख उसके बीसीसीआई की टीम में शामिल नहीं होने पर होता था उससे ज्यादा उसके द्वारा की जाने वाली सट्टेबाजी से हो रहा है । जबकि यह भी एक तथ्य है कि सट्टेबाजी केवल इन्हीं कुछ लोगों के द्वारा नहीं किया गया बल्कि कई कई मगरमच्छ हैं । पर इससे श्री का काम कम नहीं हो जाता । उसने अपनी ही उस छवि को तोड़ा जो आन्द्रे नेल की गेंद पर छक्का लगा कर बैट लहरा कर बनाई थी ।

आमिर खान आज कल गोदरेज का एक एड कर रहे हैं । वे और गोदरेज मिल कर बहुत सा समान बेच रहे हैं । फिलहाल तो वे एक लॉकर बेच रहे हैं । जरा सेट-अप देखिये । एक तिजोरी है एक तरफ आमिर खान धनाढ्य युवा बने हुए हैं पास ही खड़ा है एक गार्ड । यहाँ आमिर आदरणीय हैं और गार्ड ताड़नीय । आमिर दबाव डालकर उस गार्ड से लॉकर खुलवाने की कोशिश करते हैं । प्रयास होते ही धनाढ्य युवा बने आमिर के मोबाइल पर संदेश आ जाता है । अब आमिर गार्ड को पुलिस के पास ले जाने की बात करते हैं । सच्चाई को कितनी सहजता से दिखा दिया है आमिर और उनकी टीम ने । साथ ही दृश्य में वह पूर्णता भी नजर आती है जिसके लिए वे जाने जाते हैं । धन और उसे धारण करने वाला \ ऐसे किसी को भी जिसके पास धन नही है उसे चोरी के आरोप में पुलिस के पास ले जा सकता है । कितना मौलिक सोचते हैं आमिर खान !  क्या जरूरत है आमिर को गार्ड के बदले किसी अपने जैसे किसी और को चोरी की नकल करवाने की जब काम समाज में व्याप्त रूढ़ियों से चल जाता है ! तो क्या हुआ कि यह प्रचार गार्ड जैसे गरीब को चोर के रूप में प्रस्तुत कर्ता है !
चलिये इस पर भी लोग बहुत सारा कहेंगे । क्योंकि आमिर को पसंद करने वाले उनके खिलाफ कुछ भीं नहीं सुनते न । यह भी नहीं कि तारे जमीन पर मूलतः अमोल गुप्ते का था ! आखिर पैसे देने का भी कुछ मतलब है । 

मई 20, 2013

पूर्वोत्तर के बारीक रेशे ब-रास्ता 'यह भी कोई देश है महराज'



लिखने से पहले कई तरह से सोच रहा था कि पूर्वोत्तर और शेष भारत के रिश्ते के लिए किस प्रकार के प्रतीक का प्रयोग किया जाए । एनजेपी के 21 किलोमीटर चौड़े मुर्गे की गरदन जैसे गलियारे के उस पार को किस प्रकार से हम अपना कहने की जुगत भिड़ाते रहते हैं जबकि इस गरदन के ऊपरी हिस्से को एक अलग दुनिया मानने की मनोदशा दोनों ओर ही विद्यमान है । इसमें प्रतीक ही होते हैं जो हमारी मदद कर सकते हैं जैसे कि पूर्वोत्तर हमारे मन का वह हिस्सा है जिसमें झांकना या उतरना कष्टसाध्य और इस कष्ट में न उतारने के अभ्यास में हम इतने माहिर हो चुके हैं कि हम यह मानकर भी नहीं चलते कि यह देश में ही है । इसके देश में होने की बात तब पता चलती है जब चीन का जिक्र आता है । यह तो है विश्व कूटनीति का मनोदशा पर पड़ने वाला प्रभाव । इसके लिए अगला प्रतीक जो सोच रहा था वह यह था कि पूर्वोत्तर समूचे भारत के लिए एक हाथ से निकल चुके बेटे की तरह है जिससे बाप अपने निरीह बुढ़ापे से पार नही पा सकता । प्रतीक खोजने या कि भारत के साथ उसके संबंध जोड़ने की यह कवायद तभी तक एक आकर्षक काम लगता है जबतक कि हम उस इलाके को एक ही इकाई मानकर चलते हैं । यह इकाई मानने की प्रक्रिया बड़ी सहज है जिसने अफसरों की रपटों , सरकारी दस्तावेजों और नीतियों और क्रियान्वयन के मध्य आकार लिया होगा और यहाँ तक आते आते इस तरह हो गया कि मंगोलाइड मूल का कोई भी दिख गया तो साधारणतया उसे मणिपुरी मान लिया जाता है । एक प्रवृत्ति नेपाली मानने की भी थी ।

हाल के एक दो सालों में भारतीय समाज के प्रति मेरी रुचि बढ़ी है लिहाजा इसके बारे में जानने के विभिन्न पुस्तकीय स्रोतों का सहारा ले रहा हूँ । समाजशास्त्र की बाइबिल कही जाने वाली किताबें भी भारत के उस भाग पर चंद सरलीकरणों और एक-दो अनूठी बातों को बताने के अतिरिक्त कोई विशेष कार्य नहीं करती । परिणामस्वरूप गंभीर समाजशास्त्रीय बहसों और कक्षीय परिदृश्यों में भारतीय समाज की बात करने पर पूर्वोत्तर का कोई जिक्र नहीं आता । हाँ राजनीति शास्त्र के मित्रों को पूर्वोत्तर से जरूर साबका पड़ता होगा क्योंकि देश की एक सीमा उस ओर भी है और सीमा पर बात करना जरूरी भी है । संभव है बहुत सी किताबें होंगी पर विशुद्ध राजनीतिशास्त्रीय बहस के अलावा कोई गुंजाइश की संभावना प्रतीत नहीं होती ।

अभी एक किताब हाथ लगी वह भी कोई देश है महाराज लेखक हैं अनिल यादव । अंतिका प्रकाशन से छपी इस किताब के कवर पर कुछ आदिवासी लोगों और उनके भाले के चित्र बने हैं और ये आदिवासी गोरे हैं । तीसरी कक्षा खत्म होते-होते सामाजिक विज्ञान की पुस्तक  बिहार गौरव शृंखला की तीसरी पुस्तक खत्म हो जाने पर चौथी कक्षा में मिली हमार भारत पुस्तक में ठीक वैसे ही भालों के चित्र थे जो इस पुस्तक के कवर पर है । सो सहज ही अनुमान किया कि ये पूर्वोत्तर से जुड़ी किताब है । थोड़ी सी अलट-पलट ने पता दिया कि प्रकाशक ने इसे यात्रा वृत्तान्त की श्रेणी में रखकर छापा है । यात्रा – वृत्तान्त हिन्दी में एक विधा के रूप में तो स्वीकृत है पर इसे साहित्य मानने का चलन हिन्दी में तो नहीं है । इस लिहाज से ये विधा एक उपेक्षित सी है जो अब पत्र-पत्रिकाओं में भी न के बराबर स्थान मिलने के कारण मौत की राह देख रहे बीमार जैसी हो गयी है । बहरहाल , वह पुस्तक जो एक यात्रावृत्तान्त है बड़े ही नाटकीय ढंग से अपने में उतारती है और नयी दिल्ली स्टेशन से  ले चलती रहस्यमय इलाके की ओर जिसे हम पूर्वोत्तर के रूप में मानते और जानते आए हैं ।
दो ऐसे बेरोजगार दोस्तों की यात्रा की कमेंटरी जो मानते हैं कि इससे उनके पत्रकारिता के  करियर को किक मिलेगी । इनमें से एक तो अनिल स्वयं हैं दूसरा कभी-कभी संदर्भित शाश्वत । अनिल ने जितना शाश्वत को बाहर आने दिया उतने में वह एक गौण पात्र ही था ।  शुरू ही के कुछ पन्ने इस बात के संकेत दे देते हैं कि लेखक की यह यात्रा उसी तरह की नहीं है ट्रेन में चढ़े और कहीं निकल लिए और जब मन किया वापस आ गए बिना चोट-ओ-खरोंच के ।

मैं बिहार का हूँ और दिल्ली से उस ओर जानेवाली अधिकांश रेलगाडियाँ पूर्वोत्तर के लिए ही हैं और उनमें यात्रा करते हुए उस क्षेत्र के लोगों के बारे में जो किस्से सुनता रहा हूँ उन्हें एक पंक्ति में समेटूँ तो यह कि उधर के लोग खतरनाक होते हैं बात बे-बात खुकरी निकाल कर कचरम-वध करने वाले ।  इस यात्रा वृत्तान्त की शुरुआत भी उसी तरह की कहानियों, चिंताओं और बहुत सी सलाहों से होती है । जिससे पूर्वोत्तर एक खौफ की तरह किताब के आरंभ में आ कर जाम जाता है और अंत तक इस मामले में निराश नहीं करता । ये खौफ जिनका है और जहां इसकी जड़ है उनका एक चरित्र भले ही न हो पर लाभ और राजनीति पर बनी संरचना सबके पनपने में एक सी मदद करती है । चालाकी से इसे संस्कृति से जोड़कर अपने लिए मानव संसाधन और सामाजिक मान्यता जुटाई जाती है । बाहरी लोगों का प्रवेश किसी भी स्थानिक समुदाय के लिए वांछनीय नहीं है लेकिन इसके नाम पर जो लाभ चंद लोग उठाते हैं वह भी तो एक नए प्रकार का संकट है ।
लेखक कभी दावा नही करता कि वे इस इलाके को समझने के लिए गया है और एक बहुत दूर की कौरी हाथ लाएगा । पर उसकी पूर्वोत्तर के सभी राज्यों की यात्रा जिस तरह एक एक परत को हटाती चलती है वह इन अलग अलग नाम वाले स्थानों की बहुत सी बारीकियों से परिचित कराता चलता है । यदि हिंसा बंगाल के पूरब के इलाके की पहचान है तो वहीं वहाँ का प्रकृतिक सौन्दर्य एक स्थायी भाव । बारिश , काली होती गहन हरियाली , दाँत किटकिटाती ठंढ और पहाड़ों से निकलते सूरज की शुरुआती किरणों का पीली नारंगियों पर पड़ना अपने अपने तरह से सम्मोहित करती है । लेकिन यह सम्मोहन वहाँ किसी भी इलाके में बहुत देर नहीं टिकता । हवा में तैरता अपराध और हिंसा इतने सामान्य हैं कि कुछ लोगों के मारे जाने पर भी न सड़क जाम होती , न बाजार बंद होते और न ही कहीं कोई प्रतिक्रिया होती है । लगता है वे भी जीवन का हिस्सा हों । ऊपरी तौर पर यह सामान्य रहने की दशा मन को उद्वेलित करती है पर लेखक की गहरी पैठ जल्द ही इसके कारण को समझा देती है । पूर्वोत्तर की हिंसाओं में ज़्यादातर बाहरी मारे जाते हैं । क्यों इसके पीछे बहुत बड़ी अकादमिक बहस करने की जरूरत यह किताब नहीं रहने देती । यह सारा मामला सीमित संसाधनों के कब्जे से जुड़ा हुआ है । स्थानीय लोग बहुत ज्यादा श्रम में विश्वास नहीं करते सो बहुत से बिहारी और मैनमनसिंघिया मुसलमान मजदूरों के रूप में आए । उनहोंने मेहनत कर के अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली अतः सीमित संसाधनों पर दबाव बढ़ा और इसी ने बाहर के लोगों के प्रति द्वेष की नींव डाली । यह पूर्वोत्तर में चल रही हिंसा की एक सर्वमान्य और सरल व्याख्या है पर यह किताब इस सर्वमान्यता को तोड़ते हुए आगे बढ़ती है । अलग अलग स्थानों पर हिंसा के कारण अलग हैं ।

कुछ स्थानों पर छोटे समूहों का विरोध इसलिए शुरू हुआ क्योंकि उन पर बंगालीकरण नहीं तो आसामियाकरण थोपा गया । विरोधियों का अपहरण , सरकारी कर्मचारियों व व्यापारियों से वफादारी टैक्स की वसूली मुखबीरों की हत्याएँ रूटीन हैं जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता । जिन आदिवासियों की आबादी कम है वे नए जातीय गठबंधन बना कर अपनी भाषाओं के लिए मान्यता और अपने स्वायत्त क्षेत्र की मांग कर रहे हैं । रणनीति वही है –बिना हथियार उतहये माँ बच्चे को दूध नहीं पिलाएगी ।

स्थानीयता के प्रति किसी भी समुदाय का आग्रह अपने तरीके का होता है । भारत के मैदानी इलाके में जहां आपसी आवाजही के कारण आपस में बहुत विभाजन नहीं है वहाँ इस बात को समझ पाना कठिन नहीं रह जाता है लेकिन पूर्वोत्तर में जहां कदम कदम पर विभाजन है वहाँ यह जटिलता का सूत्रपात करती है । अकेले नागालैंड में नागा के बहुत से कबीले हैं जो एक दूसरे की भाषा भी नही समझ पाते । यह तो एक उदाहरण है अंदर मामला और जटिल है । इसके बावजूद उनके प्रति हमारी समझ बहुत एकरेखीय ही बनी हुई है । भारत सरकार और उसके अमले हर चीज को एक ही तरीके से डील करने के आदि हैं और यदि इसने काम न किया तो इनका परम विश्वास धन पर है । उनका विश्वास है कि जब सुवधाभोगी हो जाएंगे तो बंदूक उठाकर जंगल में भटकना बंद कर देंगे । कुछ इलाकों में लगभग सभी को कोई न कोई तय रकम सरकारी तौर पर मिलती है । इस ईजी मनी ने भ्रष्टाचार और नशेबाजी , महानगरों जैसी रेव पार्टी को बढ़ावा दिया है ।

इस किताब में ब्योरे बहुत हैं , लेखक ने घूम घूम कर जो भी देखा महसूस किया उसे दर्ज किया है  । चाहे माजुली के सिकुड़ने की बात हो या नगा लोगों द्वारा कुछ भी मारकर खा लेने की बात या फिर बर्मा सीमा में सस्ती वेश्याओं की बात लेखक ने उसने जो भी देखा लिख दिया है । इस हिसाब से यह किताब अनुभवों के समृद्ध भंडार के रूप में सामने आती है जो पूर्वोत्तर संबंधी हमारी बहुत सी मान्यताओं को तोड़ते हैं । हम जींस पहनने वाले और खेती करने वाले बौद्ध संतों की कल्पना तक नहीं कर सकते और महायान बौद्ध के उपासकों का शराब के बदले कोल्ड ड्रिंक अर्पित करने की बात पर हम सहजता से विश्वास नहीं कर सकते । इसके अलावा मुख्य समस्या वहाँ की हिंसा के किसी भी क्षण घट जाने दृश्य । यह किताब एक फिल्म की तरह सबकुछ दिखाती चलती है । हालांकि पूर्वोत्तर पर इस तरह की किताब अँग्रेजी में भी न के बराबर है ऐसे में इसका हिन्दी में होना एक सुखद आश्चर्य है । इससे भारतीय समाज के एक हमेशा से अलग पड़ गए या कर दिए गए क्षेत्र को समझने का मौका मिलता है । इस लिहाज से यह एक जरूरी किताब बनती है । भले ही इसे साहित्य की ही एक विधा में लिखा गया हो पर हिन्दी साहित्य में ऐसी पुस्तकों पर चर्चा करने का चलन नहीं रहा है क्योंकि यह उसकी सामान्य आरामतलबी को तोड़ता है । जानने-समझने के बदले आनंद लेने की प्रवृत्ति ने हिन्दी साहित्य से बहुत सी चीजों को बाहर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है ।

एक अंतिम बात -शिक्षा , स्मजशास्त्र , इतिहास ,राजनीति विज्ञान , मानव भूगोल और साहित्य के अध्ययन में यह पुस्तक एक रिसोर्स बुक हो सकती है और इस तरह के और अध्ययन हों तो हमारी बहुत सी सामान्य मान्यता और शैक्षिक प्रयासों को बदलने की आवश्यकता निश्चित रूप से आएगी । 

मई 15, 2013

विद्यापति को इतना गाते क्यों हो ?


एक व्यक्ति हुए हैं विद्यापति हमारी मैथिली में ! वे अपने कविकाल में जितना प्रसिद्ध हुए होंगे उससे ज्यादा उन्हें हम मैथिल बार बार याद करके प्रसिद्ध करते रहते हैं । इसके पीछे सामने वाले को यह समझाना रहता है  कि हमारा अतीत बहुत समृद्ध रहा है इसलिए हमसे यदि संवाद हो तो इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए । मैं  इसे एक प्रकार का अहंकार कहता हूँ और लगातार इसका विरोध करता आ रहा हूँ इस तर्क के साथ कि हमारे पास जो था वह था पर अभी हम किस स्तर पर हैं इसे निश्चित तौर पर उस विरासत के साथ नही जोड़ा जा सकता । क्योंकि आज जो स्थिति है वह उस विरासत को संभाल सकने लायक भी नहीं है आगे बढ़ाने की बात तो जाने ही दें । इसके बावजूद कुछ स्थितियों में मैं भी उन पुरानी बातों को अपने गर्व के लिए प्रयोग करता हूँ हालांकि इस प्रयोग में विद्यापति का नाम कुछेक नामों के बाद आता है ।


मैं विद्यापति को एक प्रतीक मानता हूँ जिसके माध्यम से मैथिल अपनी पहचान निर्धारित करने की कोशिश करते हैं । यह उनके लिए सरल है । उनके पद्य आसानी से समझ में आ जाते हैं साथ ही उनकी गेयता असंदिग्ध है । ये सब मिलकर उनके पद्यों को लोकप्रिय बनाते हैं । इसके प्रमाण मैथिलों के ज्यादातर गीतों में भनही विद्यापति की उपस्थिती के रूप में प्राती से लेकर सांझ तक में मिलते हैं । एक बात यहाँ समझने में भूल हो सकती है कि ये मिथिला की आम प्रवृत्ति है । जबकि स्थिति इसके अलग है । विद्यापति आम तौर पर शिक्षित मैथिल में ही गाये-पढे जाते हैं । शिक्षा में अभी भी सवर्णों का ही बोलबाला है उसमें भी इसे ब्राह्मण आधिपत्य के साथ जोड़ा जाए तो गलत नहीं होगा । शिक्षा के सिलसिले इधर आम तौर कायस्थ को  ब्राह्मणों के बराबर ही माना जाता है । लेकिन कुछ चुने हुए लोगों को छोड़कर आम स्थिति में यह जाति भी शिक्षा के स्तर बहुत पिछड़ी है । इस तरह से यह समझना कठिन नहीं रह जाता कि विद्यापति एक ब्राह्मण प्रतीक हैं । उन्हें सवर्ण प्रतीक भी कहा जा सकता है । हालांकि फणीश्वरनाथ रेणु के मैला आँचल और उनकी कहानी रसप्रिया के प्रसंगों के अनुसार विद्यापति के गीत (विदापत नाच) सवर्णों के अलावा जातीय श्रेणीक्रम में नीचे रख दी गयी जातियों में भी लोकप्रिय प्रतीत होते हैं ।  लेकिन अंततः यह सवर्णों और समर्थों के मनोरंजन के लिए ही था । विद्यापति एक सवर्ण प्रतीक हैं लेकिन ये एक लोकप्रिय प्रतीक भी हैं इसलिए इसके माध्यम से मैथिल संगठन बनाना आसान है । सवर्णों के अलावा लोगों से संबंध जोड़ने में विद्यापति उनके लिए इतने बड़े कर दिए जाते हैं कि उन्हें हीनभावना होने लगती है कि उन्होने विद्यापति को भी नहीं पढ़ा । यही अपराधबोध उन्हें संगठन के लिए कुछ करने की भावना से जोड़ता है । अंततः यह भी सवर्ण नफे का ही काम हो जाता है । इसके बावजूद विद्यापति के नाम पर संगठन से लेकर कार्यक्रमों तक की भरमार लगी रहती है । इनमें से एक है विद्यापति पर्व समारोह जिसे मैथिलों द्वारा मनाया जाता है ।


इस साल महीने भर के अंदर ही दो विद्यापति पर्व समारोह को जानने का  मौका मिला । पहला रांची का । रांची में मैं सशरीर तो नही था पर मेरा भाई उसमें एक कलाकार की हैसियत से शामिल हुआ था । सो बहुत सी बातें उसी के आधार पर जानी और बाद में इसे रांची के रहने वाले एक मित्र ने भी सही ठहराया वह स्वयं भी उस कार्यक्रम में एक दर्शक के तौर पर उपस्थित था । दूसरा यहाँ सहरसा में अभी कल रात ही आयोजित हुआ जिसमे मैं था ही ।

इन दोनों आयोजनों में कुछ समान बातें रेखांकित की जा सकती हैं । नाम भले ही विद्यापति का हो और संगठन भले ही दावा करें कि वे कला-संस्कृति और साहित्य के लिए काम कर रहे हैं और इस आयोजन को उन सब की वार्षिकी के तौर देखा जाए पर यहाँ मंच और उसके नीचे केवल और केवल राजनीति है । कविता , गीत-संगीत , नाटक आदि पर राजनीति की चादर डाल दी जाती है । मंच पर नेताओं को ही बुलाया जाता है । इन दोनों आयोजनों में से किसी में भी मंच पर कोई कलाकार नही था । सहरसा के आयोजन के आमंत्रण पत्र पर तो सिवाय नेताओं के किसी का नाम भी नहीं था और जिन कलाकारों को रात भर जागकर कार्यक्रम करना था उनका तक जिक्र नहीं था । रांची में यह स्थिति नही थी । नेताओं के भाषण में देरी के कारण रांची से लेकर यहाँ तक कलाकारों को बहुत विलंब से मंच मिला । रांची में क्रिकेट के स्टेडियम बनाने वाले पर मंच से बातें होती रही , यहाँ राज्यपाल कॉंग्रेस का और बाकी दल वाले अपने अपने दलों का गुणगान करते रहे ।


अजीब स्थितियां हैं .. जब नेता मंच से उतरते हैं तो दर्शकों को अश्लील गाने चाहिए , जो लड़की कम कपड़े में नृत्य और गीत गाने आए उसी को बार बार बुलाने की फरमाइश । नाटक यदि हो तो उसका कोई मतलब नही है , ज़ोरों की हूटिंग  की जाती है एक दल यदि बेशर्म होकर नाटक कर भी दे तो बाद के दलों को भगा दिया जाता है ... आयोजक शराब पीकर कोने में पड़े रहते हैं ... पुलिस नेताओं के पीछे पीछे चल देती है ।
विद्यापति के नाम पर भावनात्मक ब्लेककमेलिंग से लोगों को तो जोड़ना तो आसान हो सकता है पर जिन उद्देश्यों को लेकर ये संगठन बनाए जाते हैं वे उद्देश्य कभी पटल पर आ ही नहीं पाते । 

मई 06, 2013

कोयल की आवाज



घर के पास ही कोई जगह है जहां किसी पेड़ पर बैठी कोयल जब बोलती है तो उसकी आवाज़ एक अलग ट्विस्ट के साथ पहुँचती है । कोयल मेरे आँगन के पेड़ पर भी बोलती है मेरे दक्षिण पूरब वाले घर के पेड़ से भी लेकिन उस कोयल की आवाज में एक अलग ही अंदाज है । सुबह में तो आस पास के सभी पेड़ों जहां भी कोयल का घोंसला है वहाँ से वे बोलती हैं जैसे आपस में होड़ कर रही हों । पहले धीमे से कू फिर तेज और तेज जैसे सबसे आगे निकालना हो । लेकिन दोपहर में जब शायद ये थक जाती होंगी तब कम ही आवाज सुनाई देती है उस समय उस कोयल की विशेष ट्विस्ट वाली आवाज अलग ही आनंद देती है ।

ऐसा तो आपने भी किया होगा जब कोयल बोल रही हो तो उसके साथ अपनी आवाज में कू करने का । जब हम छोटे थे तो सीता मौसी कहती थी कि कोयल इससे चिढ़ जाती है और तेज तेज आवाज निकालने लगती है । फिर क्या जहां आवाज सुनी वहीं कू कू करने लगते थे और कई बार तो ऐसे लगता था कि वह सचमुच चिढ़ कर जवाब दे रही है । उस समय रिहायशी क्षेत्र में कोयलें बहुत कम थी दिन में दस बार आवाज सुन ली तो बहुत है । हाँ आम के बागों में ढेर सारी जरूर थी । हम सर्दी में कमी होने के साथ ही इंतजार करने लगते थे कि अब कोयल बोलेगी । जैसे सर्दियों से पहले खंजन चिड़ैया का इंतजार करते और एक भूरी सी चिड़िया का भी जिसे हम पहाड़ी मैना कहते थे । खंजन यहाँ से वहाँ फुदकने वाली चिड़ियों में हल्की भरी सी होती है । माँ ने एक बार कहा  कि जब वे छोटी थी तो लोग कहा करते थे कि यदि खंजन को ये पुछो कि खंजन चिड़ैया खंजन चिड़ैया कहिया लबान (खंजन चिड़िया खंजन चिडिया कब है नवान्न ) तो खंजन अपनी चुचकार में जवाब देती है आय नय काइल नय , परसू लबान (आज आज नहीं कल नहीं परसों है नवान्न ) । उसके बाद हम भी कई बार ऐसा ही करते लेकिन खंजन की चुचकार में से नवान्न वाला अर्थ नहीं निकाल पाते । वसंत पंचमी के आस पास से हम बाग में जाना शुरू कर देते थे क्योंकि तब तक कटहल में मोंछी (कली) आनी शुरू हो जाती थी । उसके बाद बागों में चहल पहल होने लगती थी क्योंकि इसके तुरंत बाद आम मजरने लगते थे ।  फिर कहीं महुआ । आम के मंजरों की महक तो पेड़ के पास जाने से पता चलती है पर दूर से ही पेड़ की निराली छटा दिख जाती थी । तब मन पड़ता था कि बहुत जल्दी से अपने पेड़ के पास खड़े हो जाएँ । फिर टिकोलों और महुए के फूल चुनने का समय आता था । हमारे एक एक शिक्षक थे शुकदेव जी वे कहते कि महुए का फूल गरीबों का अंगूर है यह बहुत स्वस्थ्यवर्धक होता है ऐसा मेरे नाना भी कहते थे । फिर क्या था गेहूं के पौधों में महुए के फूल खोंस खोंस कर लाते और उन्हें खाते – इतना मीठा और रसीला अंगूर की तरह ही । महुआ दिन को खिलता और आधी रात के बाद गिरता टप टप की आवाज के साथ और आसपास के वातावरण को अपनी सोंधी गंध से आच्छादित कर देता था । कभी कभी तेज हवा चल पड़ी तो महक बस्ती तक भी आ जाती थी । धूप उगने के बाद आम के टिकोले चुनने या तोड़ने का समय होता था । पता नहीं बड़ों को इससे क्या समस्या थी जहां हाथ में छोटा सा आम और ब्लेड देखा नहीं कि डांटना शुरू कर देते थे – टिकला खाने से पेट दर्द करता है । पर इन डांटो का कोई खास असर नहीं होता था हम मजे से नून-बुकनी के साथ टिकला खाते मगर छिपकर !

जैसे जैसे आम बड़े होने लगते कोयल की आवाज सामान्य सी होने लगती थी क्योंकि फिर यह एक आम सी चिड़िया हो जाती । यहाँ वहाँ हर जगह यही आवाज सुनाई देती थी बहुत से छोटे पक्षियों की आवाज इसके दब ही जाती थी । यहाँ से वहाँ एक ही पंचम स्वर गूँजता था कोयल का ।

शुरू शुरू में कोयल को पहचान पाना कठिन था उसकी आवाज से हम महसूस करते थे कि वह इस या उस पेड़ पर है या होगी । एक दिन पड़ोस की एक शादी के बाद पंडाल के लिए गाड़े गए बांस उखाड़े जा रहे थे । एक बांस उखड़ नहीं रहा था । एक व्यक्ति उसे ज़ोर ज़ोर से हिला रहा था उसी हिलाने में बांस की छीप (ऊपरी हिस्सा) एक पक्षी के रास्ते आ गयी जिससे चोट खा जाने से वह नीचे आ गिरा । हमने उठाया और अगले एक ही मिनट के अंदर उसने एक अंडा दे दिया । वह मादा कोयल थी । अब हमारे सामने ये परेशानी थी कि क्या किया जाए अब । कोयल वहाँ कुछ मिनट और रुकी होगी फिर उड़ गयी । हमारे पास उसका अंडा रह गया था । कुछ दिनों तक हमने उस अंडे संभाला भी पर बाद में उसका क्या हुआ ध्यान नही आ रहा है । 

आम जब बड़े हो जाते तब बाग में बड़ों की आवाजाही बढ़ जाती थी । नाना और उनके अन्य तीन भाई यूं तो अलग अलग रहते थे पर उन सब का एक साझा बाग था । उनमें से कोई रात में सोने आता था । जो रात न आता वह सुबह आता । फिर किसी को गोपी मिल गया तो बवाल शुरू हो जाता । गोपी मतलब पेड़ का पका हुआ पहला आम पर अमूमन शुरुआती पके हुए कुछेक आम इस श्रेणी में आ जाते थे । आम की हिस्सेदारी को लेकर बहुत कुचधूम होती थी । सब आपस में बहुत उलझते थे । आम कितने ही हों पर हिस्सेदारी का सवाल था । कई बार बाग में ही उलझ जाते तब शायद पेड़ पर आराम कर रही कोयल उठ जाती और वह भी ज़ोर ज़ोर से बोलने लगती जैसे डांट रही हो ।

हर बार एक तय मात्रा में झगड़े के बाद ही कच्चे आमों को तोड़कर 4 हिस्सों में बांटने का फैसला किया जाता था । जब आम टूटते तो हम बच्चों को बहुत दुख होता । क्योंकि आम न सिर्फ हमारे लिए एक इंगेजमेंट थी बल्कि हमें वहाँ बहुत मजा आता था । हम वहाँ कुछ न कुछ करते ही रहते थे कभी कोई टिहली (टीला) बना लिया , कभी पास के भरना से कुछ केंकड़े पकड़ लाये और आग में भूनकर खा लिया कभी पेड़ की मोती टहनी पर दिन दिन भर झूलते ही रहे । फिर जैसे ही कोई पत्ता खड़कता कि हमारे कान खड़े हो जाते कि कोई न कोई पका आम गिर रहा है पर किस ओर ये नहीं पता । सब फैल जाते । जिकों मिलता उसकी खुशी का ठिकाना नहीं होता था । आम के टूटने के साथ ही ये सब खत्म हो जाता था । कुछ दिन तो बहुत उदासी में गुजरते थे । फिर थोड़े दिनों तक आस पास कहीं भी पत्ता खड़कता था तो लगता था पका हुआ आम ही गिरने वाला है ।

इसी तरह एक बार कच्चे आम तोड़े जा रहे थे हम बच्चे सुबह के स्कूल (इधर सरकारी स्कूल अप्रैल मई में सुबह के हो जाते हैं ) से देर से पहुंचे । रास्ते में मुझे एक काला सा पक्षी मिला जो मर चुका था । हम उसे नहीं पहचानते थे । बाग में बड़ों ने बताया कि वह नर कोयल है जो कू कू की आवाज करता है । हमे बड़ा दुख हुआ कि यह मरा हुआ क्यों मिला । उसकी चोंच यूं खुली थी जैसे मरने से पहले भी कू की आवाज कर के किसी को बुलाया हो ! रंजीत मामा जो हममें थोड़े बड़े थे उन्होने उस कोयल को दफनाया था । उसके बाद से ही उन्हें लोग कोयली प्रेतस्य कह कर चिढ़ाने लगे थे । फिर जो वे चिढ़कर गालियां बकते तो लोगों को पता नही क्यों अच्छा लगता वे और चिढ़ाते ।

जब हम शहर आ गए तो नाना का गाँव छुट गया । कुछ ही सालों में यह भी सुनने को आया कि चारों भाइयों के आपसी विवाद के बाद आमों का बाग बेच दिया गया, सारे पेड़ लकड़ी व्यवसायी ले गए । दुख तो बहुत हुआ था क्योंकि जब हम उन पेड़ों के नीचे दौड़ लगाते थे तो लगता था कि बस यही दुनिया है और यही सबसे बड़ी खुशी । वे पेड़ सदा के लिए छुट गए । जब मैंने यह शहर छोड़ा था तब यह शहर बढ़ना शुरू हुआ था । लोग खेतों की ओर बढ़ रहे थे । जब दिल्ली गया तो वहाँ का माहौल ही अलग था । कोयल की आवाज वहाँ सुनाई देती तो थी पर बहुत हल्की सी लगता कहीं दूर से आ रही हो । कभी कोई कोयल भटक कर करीब आ जाए तो भी उतनी तेज सुनाई नहीं देती थी । नौकरी के सिलसिले में केरल जाना हुआ तो वहाँ जनवरी के अंत में ही कोयल की आवाज सुनाई दे गयी थी । उसे सुनते ही लगा कि चलो बचपन का एक साथी तो यहाँ है मेरे लिए ।

इतने सालों बाद हमारा शहर सहरसा वैसा नहीं लगता जैसा शुरू शुरू में लगता था । कम से कम हमारा मोहल्ला । पहले अपना घर हमें शहर के छोर पर खड़ा लगता था जैसे कि शहर में आने वालों के लिए चेक पोस्ट बना रखा हो । घरों के बीच में गेहूं-धान उगाये जाते थे । जो स्टेट हाइवे यहाँ से वहाँ तक स्पष्ट दिखता था हम खड़े होकर ताजिये का जुलूस , शादी में जा रहे वर पक्ष के लोगों की मस्ती उनके पटाखे खिड़की खोलते ही देख लेते थे उन्हें अब छत पर चढ़ के भी नहीं देखा जा सकता । यहाँ लगभग हर सेंटीमीटर पर घर बन गया है । पर एक बात सुकून देने वाली है कि लगभग सभी घरों में इधर दो चार पेड़ जरूर लगे हैं । आम के पेड़ तो अवश्य । इसका असर ये है कि तरह तरह की चिड़ियाँ यहाँ देखि जा सकती है । अभी कुछ साल पहले मेरे आँगन में मक्के के पौधे उग आए थे । जब उनमें भुट्टे आ गए और भुट्टों में दाने तो झुंड के झुंड सुगगे आ जाते । बहुत सुंदर दृश्य बन जाता था । तब से हर बार मक्का जरूर बोया जाता है हमारे यहाँ और सुगगे ही नहीं बहुत से अन्य पक्षी भी आते हैं ।

 अभी तो राज कोयल का है । कभी इस आँगन के पेड़ से आवाज आती है तो कभी उस आँगन के पेड़ से । गाँव में कभी इतने करीब से कोयल की आवाज को महसूस नहीं किया था । यहाँ लगता है उनके साथ हम भी रह रहे हैं । उन बहुत सी छोटी चिड़ियाँ जो यहाँ से वहाँ अभी भी उड़ – फुदक रही हैं अपने ही तरह की आवाजें निकाल रही हैं उनकी ओर ध्यान अभी नहीं जाता इन कोयलों ने हटा रखा है । फिर कोयलें जाएंगी तो इनका राज आएगा जब ये गुलाब टूसी पर चढ़ कर फूल को मिट्टी से भिड़ा देंगी । अभी पिछले साल क्रोटन की झाड में बटेर का एक घोसला था एक रात बहुत जोर का पानी बरसा तो उसके बच्चे बह गए थे । 

मई 05, 2013

रैयतें भेड़-बकरियाँ और नफरत के फसल की रोटी



आज के अखबार के पहले पन्ने पर आधे पेज का एक विज्ञापन है सहारा इंडिया के भारतीय भावना दिवस के आयोजन का । किसी भी खबर से पहले इसी पर नजर पड़ी । यहाँ सहरसा में ये आधे पन्ने का विज्ञापन है पर यहाँ से बाहर बहुत सी जगहों पर यह विज्ञापन पूरे पन्ने का भी होगा । इस विज्ञापन का मजमून कुछ इस तरह का है कि एक आयोजन होगा जिसमें राष्ट्रगान गाने का विश्व रिकॉर्ड बनाया जाएगा जिसमें कई लाख लोगों के द्वारा इस कर्मकांड की पूर्ति किए जाने की संभावना जताई गयी है , और तकनीक के इस दौर में उसका भी सहारा लेकर जो जहां है उनसे वहीं से अपने वीडियो भेजने के आशय का आग्रह इसमे किया गया है । कहा गया है कि इसके माध्यम से एक अविश्वसनीय रिकॉर्ड बनेगा । और सबसे जरूरी बात जो सबसे ऊपर लिखी है –वर्तमान में 42813 नागरिकों के शामिल होने का रिकॉर्ड पाकिस्तान के नाम है

अब सोचिए कोई तीन करोड़ (3,0000000 संख्या में लिखना जरूरी है ) लोग हैं जिनके चौबीस हजार (24000) करोड़ रूपय इसी सहारा इंडिया को लौटाने हैं । इसके बाबत कई तरह के मामले अदालतों में चल रहे हैं कुछ में तो रूपय न लौटाने की दशा में इनके खातों को सील करने के आदेश आ चुके हैं । व्यापार और अर्थशास्त्र की गूढ बातों का नहीं पता लेकिन तीन करोड़ लोगों के उन रुपयों की देनदारी जिसके कंधों पर है वह इससे बचने की जुगत में है । कितनी ही बार बार सेबी ने सहारा से पैसे लौटाने को कहा है । एक सबसे रोचक बात देखने को मिलती है कि जब सहारा से संबन्धित कोई केस सुर्खियों में आता है तो झट से सहारा का भावुक विज्ञापन अखबारों में दाल दिया जाता है । ये विज्ञापन छविनिर्माण की बेहद चालाक प्रक्रिया के तहत बनवाए जाते हैं जिसमें बार बार यह दिखाने की कोशिश रहती है कि भारत और इसके नागरिकों का असली शुभचिंतक सहारा ही है । याद आता है बीसीसीआई-सहारा विवाद जिसमें सहारा को क्रिकेट टीम का प्रयोजन नहीं मिला था । अगले ही दिन अखबारों के पहले पन्ने पर पूरे पृष्ठ का विज्ञापन था । उसका आशय था कि सहारा प्रयोजन न मिलने से दुखी है अब वह इसकी भरपाई देश में अन्य खेलों के विकास के लिए भारी रकम खर्च करेगा । इसमें स्थानीय स्तर पर भी पैसे खर्च करने की बात की गयी थी । इस बात को दो साल के आसपास होने चले हैं पर इस बाबत कोई खबर पढ़ने को नहीं मिली हाँ कागजी तौर पर यदि ऐसा हो रहा हो तो बात अलग है । हाल के विवाद के के बाद भी सहारा का विज्ञापन आया था जिसमें निवेशकों से धैर्य रखने की अपील थी और कर्मचारियों से सहयोग करने को कहा गया था । वह विज्ञापन भी भावुकता के चरम को छू रहा था ।

खैर यह इस तरह का बड़ा समूह हो लेकिन अब इन कारनामों में यह अकेला नहीं रह गया । निवेश की प्रकृति जो भी हो और पैसे जिस भी तरह से लौटाने की बात की गयी हो पर हाल ही पश्चिम बंगाल में भी निवेशकों के ठगे जाने की बात सामने आई है । यह मामला भी बहुत बड़ी रकम का है और हाई -प्रोफाइल  है । अभी कल ही यहाँ अखबार के पृष्ठ 5 पर बहुत ही अपठनीय प्रिंट में एक छोटी-सी आम सूचना छपी थी जिसमें किसी वियर्ड इंफ्रास्ट्रकचर कोरपोरेशन लिमिटेड के हवाले से यह कहा गया था कि प्रिय ग्राहक आपकी राशि सुरक्षित है और कुछ विभागीय जांच चल रही है इस परिस्थिति में सहयोग व विश्वास बनाए रखें । अगले ही पृष्ठ पर किसी रोज वेली संस्था की ओर से एक आवेदन दिया गया है जिसमें कहा गया है कि राज्य में एक विशेष आर्थिक संस्था द्वारा घोटाले को लेकर राज्य में अस्थिरता पैदा हुई है । हम हर तरह की जांच के लिए तैयार हैं । ... हम राज्य सरकार , सभी राजनीतिक दल , पुलिस प्रशासन , मीडिया बंधुओं से सहयोग की अपील करते हैं । .... हम सभी फील्ड कर्मियों से , कर्मचारियों और ग्राहकों से निवेदन करते हिन कि हम पर भरोसा रखें और अपना धैर्य बनाए रखें

कहना यह है कि इन सभी अपील’, आम सूचना’, आवेदन आदि में कंपनी के नाम अलग अलग हों पर उनकी भाषा एक समान ही है और जो कथ्य है वह भी एक ही है । जब सभी कंपनियाँ पाक साफ ही हैं तो निवेशकों के पैसे क्यों नहीं मिल रहे हैं , जब जनता का धन सुरक्षित है तो इतना बखेड़ा क्यों हो रहा है , मामले अदालतों में जा रहे हैं और अदालतें आदेश पर आदेश दिए जा रही हैं फिर भी नतीजा सिफर ही क्यों है ?

ऐसी अवस्था में सहारा इंडिया कुछ लाख लोगों से राष्ट्रगान गवा कर क्या साबित करना चाहती है यह बहुत स्पष्ट है । यह उसकी उसी भावनात्मक ब्लैकमेलिंग की अगली कड़ी है जिसमें वह खुद को ऐसे पेश कर रही है जैसे कि कंपनी को नाहक ही इसमें फंसाया और प्रताड़ित किया जा रहा है । और वह जो कर रही है उसमें जनता की ही भलाई छिपी है । अन्यथा अभी इस रिकॉर्ड को बनाने की कोशिश करने का क्या तुक बंता है यह समझ से बाहर है ।

राष्ट्रगान के रिकॉर्ड बनाने की जरूरत ही क्या है ! इस का सम्मान होना चाहिए पर इसका इस्तेमाल नहीं । खास तौर पर यह देखना होगा कि यह कब आयोजित किया जा रहा है और इसमें किसके रिकॉर्ड को तोड़ने की बात की गयी है । एक भारतीय कैदी की पाकिस्तान के जेल में बुरी तरह से पिटाई होती है परिणामस्वरूप बाद में उसकी मृत्यु हो जाती है । जिस तरह से मीडिया ने पेश किया और उसके बाद हिन्दू संगठन और सामान्य लोग भी प्रतिक्रिया दे रहे हैं उस समय को अपने लिए भुनाने का इतना सुनहरा अवसर सहारा को बाद में नहीं मिलता । इस समय सहारा को अपने छवि निर्माण की सख्त जरूरत है । यह छवि निर्माण राष्ट्रियता के माध्यम से ही मिलेगा इसकी पहचान सहारा को है जो उसके हर विज्ञापन में दिखती है । कारगिल की लड़ाई के दौरान भी यह खूब देखा गया । सहारा ने उस साल अपने शेर वाले केलेंडर बहुत बांटे थे भावनात्मक टिप्पणी के साथ ।

 एक मित्र ने फेसबुक की अपनी दीवार पर कहा कि पाकिस्तान में भारत की तुलना में ज्यादा नफरत है जबकि विभाजन भारत ने भी सहा है । कहने को जो भी कहा जाए पर भारत में पाकिस्तान के प्रति नफरत रत्ती भर भी कम हो यह नहीं कहा जा सकता । लाल किले के कवि सम्मेलन से लेकर किसी भी मुसलमान को देखते ही उसे पाकिस्तानी या गद्दार समझ कर चलने तक हम इसे देख सकते हैं । हमारा फिल्म उद्योग इस नफरत को कितना बेचता है इससे भी अंदाजा न लगे तो क्या किया जा सकता है । कुछ और नहीं तो मुसलमानों को कट्टर माने की धारणा तो किसी से छिपी नहीं है फिर किस तरह से नफरत के कम होने की बात करते हो ? जब मेरा नवोदय में चयन हुआ तो मैं घर आया था । माँ ने मेरे मित्र ज़ाहिद के चयन के बारे में पूछा तो मैंने बताया कि उसका नहीं हुआ और उसका चयन होना चाहिए था । माँ को भी दुख हुआ पर वहीं मेरे एक मामा बैठे थे छुटते ही कहते हैं भने नई भेले सार मियां के ! मियां कट्टर होई छै (साले मियां को भले ही नहीं हुआ ! मियां कट्टर होता है ) । मामा अपनी कट्टरता भूल गए । इस तरह की कट्टरता की बातें ज़ाहिद भी खूब कहता है । दसवीं की परीक्षा के समय वह अपने किसी हिन्दू मित्र के यहाँ ठहरा था । वह बताता है कि उसकी थाली में खाना काफी ऊपर से परोसा जाता था सबसे हद तब होती थी जब दाल गिराई जाती थी । दाल छिटक कर पूरे बदन पर फैल जाती थी । यहाँ यह कह देना कि मुसलमानों से नफरत पाकिस्तान के प्रति नफरत से अलग है सही नहीं है । यह सही कि भारत में लंबे समय से मुसलमानों के प्रति नफरत कायम है पर विभाजन हो जाने और पाकिस्तान के बन जाने से मुसलमानों को पाकिस्तान का प्रतीक मान लिया गया । नहीं तो सुदूर इलाकों में जाकर आप देख लीजिए कितने लोग मुसलमानों का संबंध इन्डोनेशिया से जोड़ते हैं और कितने पाकिस्तान और बांग्लादेश से । और यह नफरत नहीं तो और क्या है कि जब एक भारतीय कैदी मारा तो उसी तरह की हरकत हमारे भी देश में हो गयी । इसे महज इत्तिफाक़ मासूम से मासूम व्यक्ति भी नहीं कह सकता ।
ऐसे समय में पाकिस्तान के नाम एक रिकॉर्ड को तोड़ने के लिए सहारा का अभियान अकारण नहीं जान पड़ता । ये उसकी चालाकी है और हमारी बेवकूफी कि हम इसे साझे बिना इसके होने में भूमिका निभाने की पूरी तैयारी कर रहे हैं ।

यह हमारे ही देश में हो सकता है जहां इतने लाख लोग उसी सहारा के खिलाफ निवेशकों के पैसे लौटाने के लिए खड़े नहीं हो सकते लेकिन एक निरर्थक से रिकॉर्ड के लिए ऐसा जरूर करेंगे । यहाँ कोई अपराधी भी आपको जाती से बाहर शादी न करने के लिए अनैतिक करार कर सकता है । हम जीतने कट्टर और दकियानूस हैं उतना मुश्किल से कोई समाज हो सकता है । हम बनावटी बातों के चश्मों से दुनिया देखने के आदि हैं जिससे असली बात नहीं दिखती । 

हिंदी हिंदी के शोर में

                                  हमारे स्कूल में उन दोनों की नयी नयी नियुक्ति हुई थी । वे हिन्दी के अध्यापक के रूप में आए थे । एक देश औ...